मुंबई : हाल ही में महाराष्ट्र के नए उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले अजित अनंतराव पवार के जीवन का एक मात्र मिशन है महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनना.. उनकी इस महत्वाकांक्षा को प्राप्त करने की राह में विचारधारा कभी भी एक महत्वपूर्ण कारक नहीं रही है. सूत्रों के मुताबिक उनके लिए यह मंज़िल अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके लिए कोई भी राह अपनाई जा सकती है. भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस की नौका में सवार होकर एक तरह से उन्होंने अपने आलोचकों को ही सही ठहराने का काम किया है.
पिछले एक दशक में अजित पवार की विक्षुब्धता साफ-साफ झलकती रही है. वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हे अपने इरादों को छुपाना नहीं आता. उनकी पारदर्शी शारीरिक भाषा ही शायद उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है. अजित की राजनैतिक यात्रा में उनके करीबी सहयोगी रहे एक एनसीपी नेता कहते हैं, ‘जब उन्हें गुस्सा आता है तो बस आ ही जाता है. वे कभी इसे छुपाने का प्रयास नहीं करते. वह थोड़े गर्म स्वभाव के हैं और उन्हें क्रोध आता भी काफ़ी जल्दी है.’
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उनकी इस सतत नाराज़गी के पीछे दो प्राथमिक कारण हैं – पहला कि वह हमेशा अपने चाचा शरद पवार के भतीजे के रूप में जाने जाएंगे, और दूसरा यह कि इतने वरिष्ठ नेता होने के बाद भी उन्हें कभी भी शरद पवार के राजनीतिक वारिस के रूप में सार्वजनिक रूप से पेश नहीं किया गया. उनके ‘शुभचिंतकों’ द्वारा अजित के भीतर दबी इस कुंठा को और हवा दी गयी और इसका परिणाम यह निकला कि उन्होंने शुक्रवार देर रात, महाराष्ट्र में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार का गठन करने के लिए फडणवीस के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया. एक तरह से यह उनके चाचा द्वारा उन्हें सदा सहायक भूमिका निभाने को विवश किए जाने का प्रतिकार था.
पिछले एक पखवाड़े से, जब से महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की मिली-जुली सरकार गठन की कवायद शुरू हुई थी, अजित ने हमेशा इन प्रयासों मे अड़ंगा डालने का ही काम किया था. वे पिछली फडणवीस सरकार द्वारा स्थापित भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की जांच का सामना कर रहें हैं और ऐसा लगता है कि उसकी रिपोर्ट मे कुछ ऐसा है जिसने उन्हें भाजपा के साथ जाने के लिए मजबूर कर दिया है. बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ वर्तमान में सिंचाई घोटाले से जुड़ी पांच याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है, जिसमें तथाकथित तौर पर अजित पवार भी शामिल हैं.
हालांकि, भतीजे अजित पवार द्वारा शुक्रवार की रात की कार्रवाइयों ने न केवल उनकी विश्वसनीयता को नष्ट किया अपितु इसने चाचा शरद पवार को भी एक बड़ा झटका दिया है. एनसीपी के भीतर और बाहर अजित के आलोचकों का सदैव से कहना रहा है कि ऐसे किसी भी शख़्स के प्रति वफ़ादार हो सकते हैं जो उन्हें सीएम की कुर्सी की पेशकश कर सकता है.
राजनैतिक अति-महत्वाकांक्षा का उफान
अजित पवार की राजनीतिक अति-महत्वाकांक्षा का भान हमेशा से उनके चाचा शरद पवार को भी रहा है. शायद इसी को सुनिश्चित करने के लिए कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले के साथ अजित पवार की कोई झड़प न हो, उन्होंने सुप्रिया को राष्ट्रीय राजनीति में रखा और राज्य की राजनीतिक चालें अजित पवार के हिस्से में रहीं. पर 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान पहली बार अजित की अपने चाचा से राजनैतिक भिड़ंत हुई और उन्होंने मांग रखी कि उनके बेटे पार्थ को उम्मीदवार बनाया जाए. अजित ने इस बारे में शरद की एक नही सुनी और इसी कारण पार्थ एनसीपी का गढ़ माने जाने वाली मावल सीट से चुनाव हार गए. इसी के साथ चाचा और भतीजे की बीच एक बड़ी लड़ाई की भूमिका बन चुकी थी.
पार्टी से जुड़े एक सूत्र का कहना है, ‘अजित पवार को लगता है कि साहेब (शरद पवार) उनके बेटे की तुलना में रोहित पवार (एनसीपी प्रमुख के बड़े भाई राजेंद्र के लड़के) का पक्ष ले रहे हैं. उन्हें पार्थ के लिए लोकसभा टिकट पाने के लिए लड़ना पड़ा और वह चुनाव भी हार गये, लेकिन इस अनुभव से सबक सीखने के बजाय, अजित दादा और अधिक महत्वाकांक्षी बन गए हैं.’
राजनैतिक उभार की गाथा
1991 में, अजित ने पुणे जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष के रूप में पद संभाला और 16 वर्षों तक इस पद बार बने रहे. उसी वर्ष वह पहली बार बारामती से लोकसभा के लिए चुने गए, लेकिन बाद मे उन्होंने अपने चाचा, जो पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार में रक्षामंत्री बन चुके थे, के लिए यह सीट खाली कर दी. उसी वर्ष अजित महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव जीते और सरकार में शामिल होकर नवंबर 1992 से फरवरी 1993 तक जूनियर कृषि मंत्री रहे, इसके बाद के कई मंत्रिमंडलों मे भी कांग्रेस से एनसीपी के अलग होने के बाद और नवनिर्मित पार्टियों के गठबंधन के तहत उन्होंने बागवानी, बिजली, जल संसाधन (कृष्णा घाटी और कोंकण सिंचाई) सहित कई विभागों को संभाला.
2009 के विधानसभा चुनावों के बाद भी अजित उप-मुख्यमंत्री बनने के लिए लालायित थे, पर शरद पवार ने एनसीपी के एक और वरिष्ठ नेता छगन भुजबल को इस ज़िम्मेदारी के लिए चुना. 2010 में जब भुजबल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, तब अजित ने यह पद संभाला. पर पार्टी के जुड़े के एक सूत्र ने बताया कि वह कभी नहीं भूल पाए कि वह उप-मुख्यमंत्री पद के लिए शरद पवार की दूसरी पसंद थे.
फडणवीस, वही शख़्श जिसने उनके खिलाफ भ्रष्टाचार-रोधी जांच आरंभ की थी, के साथ हाथ मिलाकर अजित जांच एजेंसियों द्वारा किसी भी कार्रवाई से खुद की पांच साल के लिए रक्षा चाह रहे थे. परंतु अतीत में भी अजित की अपने चाचा की परछाईं से बाहर निकलने की कोशिशें नाकाम रही हैं.
शुक्रवार की रात किया गया तख्तापलट एक तरह से अजित पवार द्वारा 41 साल पहले शरद पवार के इसी तरह के प्रयास का अनुकरण करने का एक प्रयास भी हो सकता है. बता दें कि वर्ष 1978 में, शरद पवार ने अपने 38 विधायकों के साथ कांग्रेस से बाहर निकलकर एक नई पार्टी – समानांतर कांग्रेस – बनाई थी और जनता पार्टी के सहयोग से एक नई सरकार की स्थापना की. इस तरह वे महज 38 साल में राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बन गये थे.
विवादों से गहरा नाता..
विवादों में रहना अजित पवार के लिए कोई नई बात नहीं है; उनकी राजनीतिक यात्रा इसके उदाहरणों से भरी पड़ी है. उनकी आक्रामक जीभ उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है और वे सदैव इस पर काबू रखने में असमर्थ रहे हैं. उन पर आरोप है कि उन्होंने जल संसाधन मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान लवासा लेक सिटी परियोजना (एक निजी बिल्डर द्वारा प्रायोजित) मे आवश्यकता से अधिक रुचि दिखाई और इसे विकसित करने में मदद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. सितंबर 2012 में उन पर भ्रष्टाचार के और आरोप लगे और उन पर करीब 70,00 करोड़ रुपये के धन के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया.
2003 में जब महाराष्ट्र में सूखे का संकट अपने चरम पर था तो अजित पवार ने एक काफ़ी विवादस्पद बयान दिया था. पुणे के इंदपुर में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होने कहा था, ‘अगर डैम में पानी नही है तो मैं क्या कर सकता हूं? इस में पेशाब कर दूं क्या?’. उनके इस बयान का पूरे महाराष्ट्र मे काफ़ी विरोध हुआ और कई जगह इसके खिलाफ प्रदर्शन भी किए गये. उनको माफी मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा और बाद में उन्होंने माना कि यह उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी.
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अप्रैल 2014 में, जब वह राज्य के जल संसाधन मंत्री थे तो उनका एक और बयान विवाद का कारण बना, दरअसल, जब वे बारामती के मसलवाड़ी गांव में सुप्रिया सुले के लिए प्रचार कर रहे थे, तो उन्होंने धमकी दी कि अगर ग्रामीणों ने उनकी चचेरी बहन को वोट नहीं दिया तो जलापूर्ति रोक देंगे.
अब अपने चाचा को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने के बाद सुलह-सफाई की गुंजाइश काफ़ी कम ही है. शरद पवार इस बेइज़्ज़ती को कभी नही भूल पाएंगे. भले ही शायद देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई वाली सरकार 30 नवंबर को विधानसभा मे बहुमत साबित कर दे पर संभव है कि यह अजित पवार की राजनीतिक यात्रा का अंत होने से नहीं बचा सकती. उनके चाचा शायद यह सुनिश्चित करेंगे कि अजित पवार अब अपनी राजनैतिक पारी और न खेल पाएं.
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