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Friday, 22 November, 2024
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द्रौपदी प्रथा : जब कई भाइयों की हो एक दुल्हन, तो नहीं होती कोई घरेलू हिंसा

'जेंडर, कल्चर एंड ऑनर' किताब जाति, पितृसत्ता, धर्म, उम्र जैसे विभिन्न नजरिये से महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन का विश्लेषण करती है.

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नई दिल्ली : ‘रेडीमेड पत्नी’ से लेकर ‘मॉडर्न द्रौपदी’ के नाम से पहचाने जानी वाली ‘बहुपतित्व’ या ‘रंडुआ प्रथा’ में रह रहीं औरतों का मुख्य काम दो भाइयों के बीच जमीन बंटवारे को रोकना है. एक नई किताब के मुताबिक ऐसी शादियों में रह रहीं औरतें सामान्य शादी वाली महिलाओं से ज्यादा खुशमिजाज और हंसमुख होती हैं.

जेंडर, कल्चर और ऑनर नाम की ये किताब पंजाब यूनिवर्सिटी कीप्रोफेसर राजेश गिल ने लिखी है. गिल राष्ट्रीय मीडिया में एक जानी-मानी नाम हैं और अब तक 5 किताबें लिख चुकी हैं. रावत पब्लिकेशन द्वारा छापी गई ये किताब महिलाओं के जीवन को जाति, पितृसत्ता, धर्म और कल्चर के चश्मे से देखने की कोशिश करती है. इस किताब के लिए कम से कम चार साल की फील्ड रिसर्च शामिल है जिसमें प्रोफेसर गिल की टीम महीनों तक एक ही गांव में ठहरी.

‘जब मेरी टीम ने मुझे बताया कि ऐसी शादियों में महिलाओं ने घरेलू हिंसा की शिकायत नहीं की और सामान्य तरीके से रह रहीं महिलाओं से ज्यादा खुश हैं तो मैंने अपनी टीम को दोबारा चेक करने भेजा.’ अपनी रिसर्च के दौरान के किस्से को याद करते हुए प्रोफेसर गिल बताती हैं.


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द्रौपदी प्रथा, महाकाव्य महाभारत की एक किस्से से मेल खाती है जब कुंती पांड़वों को कहती हैं, ‘क्या चीज लाए हो? आपस में बांट लो.’ इसके बाद द्रौपदी को सभी पांडवों की पत्नी माना गया. इस प्रथा में कई भाई आपसी सहमति से एक पत्नी का बंटवारा कर लेते हैं. आमतौर पर ये प्रथा कम जमीन वाले या कम आय वाले परिवारों में देखने को मिलती है. या तो ये परिवार अपनी संपत्ति का बंटवारा नहीं करना चाहते या फिर ये लड़कों की शादी का खर्चा वहन नहीं कर सकते. ऐसे में इस प्रथा की आड़ में पत्नियों को दो या दो से अधिक भाइयों में बांट लिया जाता है.

दिप्रिंट से हुए एक साक्षात्कार में प्रोफेसर गिल बताती हैं, ‘ये कोई नई पारिवारिक व्यवस्था नहीं है. यह कई पीढ़ियों से चली आ रही है. हम इसे गलत या सही नहीं कह सकते. हमारा काम है बदलती अर्थव्यवस्था के कारण हो रहे सामाजिक बदलावों को उजागर करना. निम्न आय वाले घरों में जहां चार भाइयों के लिए जमीन का छोटा टुकड़ा भर है या कोई नौकरी नहीं है, उन परिवारों के घर में चूल्हा जले इसलिए इस प्रथा को अपनाया है. बहुत सारे केसों में बहू को बाहर से खरीदकर लाया गया है.’

हरियाणा के यमुनानगर और पंजाब के मनसा व फतेहगढ़ साहिब जिलों के कई गांवों में की गई रिसर्च के दौरान इस तरह के केस पाए गए हैं.

‘निम्न आय वाले घरों ने मजबूरी में अपनाया ये रास्ता’

किताब में एक जगह दौलतपुर गांव के कई आदमी बताते हैं, ‘ऐसा तो आमतौर पर होता है तब जब सभी भाइयों की शादी नहीं हो पाती.’

‘ऐसे केस में एक भाई शादी करके घर में बहू लाता है जो घर का कामकाज भी देखती है और चूल्हा भी चलाती है. वो सभी भाइयों को खुश रखती है क्योंकि जमीन के टुकड़े में सभी की हिस्सेदारी है.’

आगे एक 50 वर्षीय पंचायती सदस्य ने बताया है, ‘वो सभी भाइयों को खुश रखती है तो सभी लोग बच्चों को अपना ही मानकर चलते हैं.’

किताब में आगे पनेचान गांव के 32 वर्षीय व्यक्ति के हवाले से लिखा है, ‘ये गैर शादीशुदा आदमी सारा दिन खेतों में काम करते हैं, जमीन में हिस्सेदारी रखते हैं तो बदले में इन्हें ‘सेवा पानी’ उपलब्ध कराया जाता है.’

फतेहगढ़ के एक गैर शादीशुदा आदमी ने इस बात की तस्दीक करते हुए कहा है, ‘जब आपको घर पर ही रेडीमेड पत्नी मिल जाती है तो शादी करने का क्या फायदा?’

महिलाओं का भी इस प्रथा को लेकर कहना है कि भाभी सारे भाइयों की जेब पर अधिकार रखती है.

इतना ही नहीं घर में जो भाई शादी कर पाता है वो सबसे ज्यादा ताकतवर महसूस करता है. ‘जिसकी शादी होती है उसे लेनदार बुलाया जाता है. वो सबसे ज्यादा मान-सम्मान पाता हा और साथ ही घर के सारे फैसले लेने का अधिकारी भी होता है.’

प्रोफेसर गिल बताती हैं, ‘ये प्रथा दो तरीके की होती है- फ्रैटरनल पोलिएंड्री जहां भाइयों में पत्नी कां बंटवारा होता है. नॉन फ्रैटरनल पोलिएंड्री जहां पत्नी बांटने वाले पुरुष रिश्ते में भाई नहीं होते. ये सिर्फ हरियाणा या पंजाब तक ही सीमित नहीं है. देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है.’

एक 50 वर्षीय बुजर्ग भाइयों की आपसी सहमति को समझाते हुए कहते हैं, ‘जब एक भाई कमरे के भीतर होता है तो वो अपने जूते या चप्पल कमरे के बाहर ही छोड़कर आता है ताकि बाकियों को पता रहेगा कि वो अंदर है.’

इंडिया टुडे की 1999 में छपी ‘बैचलर ब्वॉयज’ नाम की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये प्रथा मुजफ्फरनगर, मेरठ और बागपत के इलाकों में प्रचलित थी. तीनों जिलों में उस वक्त करीब 1500 गैर शादीशुदा आदमी थे. 1994 के एक पुलिस रिकॉर्ड की मानें तो एक महीने में हुए 65 में से 40 मर्डर केस अधेड़ उम्र के गैरशादीशुदा मर्दों के थे. ये ट्रेंड इतना गंभीर था कि पुलिस को एक ‘रंडुआ रजिस्टर’ बनाना पड़ा था.

ऐसे परिवारों में महिलाओं को एक से ज्यादा पुरुषों से संबंध रखने के लिए कैसे राजी किया जाता है? सवाल के जवाब में प्रोफेसर गिल बताती हैं, ‘घर के बड़े बुजुर्ग या सास-ससुर इसमें सबसे महत्वूपर्ण रोल निभाते हैं. वो बहू को ‘अंगूठे का मामला’ (प्रॉपर्टी का मामला) कहकर समझाते हैं कि शादी के खर्चे और जमीन के बंटवारे से बचने के लिए ऐसा करना उचित है.’

हरियाणा की एक महिला सरपंच ने दिप्रिंट से हुई बातचीत में कहा, ‘शादी से पहले ऐसी कोई शर्त नहीं रखी जाती है. ये तो शादी के बाद ही पता चलता है. औरतें समय के साथ ढल जाती हैं.’


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दो प्रगतिशील राज्य

द्रौपदी प्रथा कहें या रंडुआ प्रथा, इस कल्चर को हरियाणा और पंजाब के खराब सेक्स रेश्यो से जोड़कर देखा सकता है. एक तरफ दोनों राज्यों ने हरित क्रांति और श्वेत क्रांति का आगाज किया तो दूसरी तरफ ‘कन्या भ्रूण हत्या’ की हेडलाइन्स अखबारों के मुख्य पृष्ठों पर छाई रही. नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2013-2015 में हरियाणा में 1000 लड़कों के पीछे सिर्फ 831 लड़कियां थीं. पंजाब में ये रेश्यो 1000/889 था.

हालांकि दोनों ही राज्यों ने पिछले कुछ सालों में थोड़ा सुधार किया है लेकिन अभी महिलाओं और पुरुषों की संख्या का ये गैप भरा नहीं है. नतीजन कुंवारे लड़कों की संख्या में बढ़ोतरी हुई और उनकी शादी की मांगें उठनी लगीं. हरियाणा के जींद जिले में तो कुंवारे लड़कों ने रांडा यूनियन भी बनाई और विधानसभा व लोकसभा चुनाव के दौरान बहू दो, वोट लो जैसे नारे भी बुलंद किए. फलस्वरूप हरियाणा के कई स्थानीय नेता चुनावों के मद्देनजर बाहर से बहू दिलाने के वादे करते भी पाए गए हैं.

खराब होती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी को ध्यान में रखें तो क्या ये प्रथा खत्म होने की कगार पर है या बढ़ने की? इस सवाल का जवाब देते प्रोफेसर गिल कहती हैं, ‘कुंवारों और बेरोजगारों की बढ़ती हालत देखकर ये कहना मुश्किल है कि ये कल्चर खत्म होगी या बढ़ेगी.’

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