बात 2019 की ही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के एक अहम अधिवेशन को संबोधित कर रहे थे जिसमें देश भर से पार्टी के पदाधिकारी व नेता मौजूद थे. यह वह पड़ाव था जब भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का चुनाव हार चुकी थी जिससे लोकसभा में उसके भविष्य को लेकर सवाल उठने लगे थे. यह तीनों ही राज्य अरसे से भाजपा का गढ समझे जाते थे. बहरहाल, अधिवेशन में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने इशारा किया कि किसी भी प्रदेश के नेतृत्व को ऐसा नहीं समझना चाहिए कि अंत में चुनाव के समय ‘मोदी आएगा और जिता ही देगा.’ यह बयान शायद मीडिया की नजर से चूक गया या किसी ने इसका निहितार्थ पकड़ा नहीं. आज वही बयान हरियाणा और महाराष्ट्र के संदर्भ में भी दोहराया जा सकता है.
डिलिवरी और शिथिलता का प्रश्न
दरअसल, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अथक प्रचार और मतदाता को प्रभावित करने की क्षमता ने प्रदेश इकाइयों में एक निर्भरता ला दी है जिससे कई बार वे शिथिल भी हो जाते हैं. यह बात खास तौर पर उन राज्यों में देखी जा रही है जहां पार्टी सत्ता में है, जैसा कि 2018 में तीन राज्यों में हुआ और कुछ हद तक अब हरियाणा व महाराष्ट्र में. हालांकि महाराष्ट्र में कुल 150 सीटें लड़कर 105 सीटों पर विजयी होना राजनीतिक रूप से महाराष्ट्र जैसे जटिल प्रदेश में छोटी बात नहीं है. छोटी बात तो हरियाणा जैसे प्रदेश में भाजपा का लगातार दूसरी बार सबसे बड़ी पार्टी होना भी नहीं है. लेकिन हां, लोकसभा के वोट की लहर देखें तो यह कठिनाई की ओर इशारा करता है.
डिलिवरी यानी सरकार-प्रशासन को हर नागरिक तक पहुंचाना प्रदेश सरकार की जिम्मेदारी होती है और इसकी जवाबदेही केंद्र पर थोपी या टाली नहीं जा सकती. जहां हरियाणा में डिलिवरी में कमी के संकेत पहेल से ही थे वहीं महाराष्ट्र में समस्याएं काफी ज्यादा और प्रदेश बहुत बड़ा होने के चलते शायद और कोशिशें करने की जरूरत थी.
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हरियाणा में विशेष रूप से मंत्रियों का हारना सरकार की डिलिवरी में कमी का पक्का संकेत है. लेकिन इससे यह कह देना कि राष्ट्रवाद का नारा फेल हो गया जल्दबाजी का निष्कर्ष मालूम होता है. वास्तव में जब तक कोई डाटा विश्लेषण यह साबित न कर दे तब तक राष्ट्रवाद चला या नहीं, कितना चला इसपर कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी ही होगी.
कौन से मुद्दे चले और कौन से नहीं इसपर शायद और गहन समीक्षा की जरूरत है लेकिन इतना तय है कि विपक्ष भाजपा को परास्त नहीं कर पाया लिहाजा इन नतीजों को अपनी जीत के रूप में पेश करना बंद करे. विपक्ष के लिए सांत्वना पुरस्कार यह है कि जैसा 2019 लोकसभा के बाद कहा जा रहा था कि देश में विपक्ष निष्क्रिय हो चुका ऐसा कतई नहीं है और यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है.
महाराष्ट्र हरियाणा से सबक लें
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का माइक्रो मैनेजमेंट और एक एक बूथ पर जीत सुनिश्चित करने का गणित उनके गृह मंत्री बनने से संभवतः प्रभावित हुआ है. और पार्टी को इसका समाधान जल्दी से ढूंढना पड़ेगा. अगले कुछ महीनों में दो बेहद चुनौतीपूर्ण प्रदेश में चुनाव हैं. झारखंड में भाजपा सत्ताधारी है लिहाजा वही डिलिवरी वाला सवाल खड़ा होना तय है जबकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता से लड़ना आसान नहीं होगा. यूं भी दिल्ली भाजपा पार्टी की सबसे कमजोर इकाइयों में मानी जाती है.
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लेकिन भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि यह नतीजे बहुत सही वक्त पर आए हैं. झारखंड में अनावश्यक मुद्दों, खासतौर पर हिंदू-मुस्लिम विवादों को हवा देने के बजाय, ठोस प्रशासनिक कदम पर फोकस करने की जरूरत तो है ही साथ ही प्रदेश के लिए नई आकांक्षाओं के अनुरूप विज़न पेश करना भी जरूरी है. इसी तरह दिल्ली में केंद्र व प्रदेश के बीच तालमेल पर भी जोर होना चाहिए ताकि दिल्ली को एक विश्व स्तर की राजधानी का रूप दिया जा सके और दिल्लीवासियों का जीवन स्तर बेहतर हो.
2014 के लोकसभा चुनाव के तुरत बाद हुए उपचुनावों में बुरी तरह हारने से लेकर बिहार और दिल्ली में सफाए तक भाजपा का मौजूदा नेतृत्व पिछले पांच सालों में जीत ही नहीं हार को भी बखूबी देख चुका है. मगर पार्टी ने इन अनुभवों के बाद फौरन अपनी रणनीति को चुस्त-दुरूस्त भी किया है, तो हार से ही नहीं जीत से भी सबक लेना पार्टी के हक में होगा, और लगे हाथों भाजपा या विपक्ष की ही तरह एग्जिट पोल करने वाली एजेंसियां भी कुछ सबक ले लें तो सोने पे सुहागा!
(लेखक प्रसार भारती में सलाहकार हैं और करंट राजनीति पर लिखती हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं )