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Thursday, 21 November, 2024
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कैसे रेलवे का निजी हाथों में सौंपा जाना देश को बेचे जाने सरीखा है

भारतीय रेल का करोड़ों लोगों को ‘पीठ पर लादकर’ दिनों-रात का ये सफर तब ही जारी रह सका, जब कई पीढ़ियों के करोड़ों लोगों का खून-पसीना इसमें शरीक हुआ, जिन्होंने इस सफर के लिए जान भी दी और सैनिकों की तरह मोर्चा संभाले रहे.

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रेलवे हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय उपक्रम है और रहेगा. ये उपक्रम देश के लाखों लोगों के आराम और सुविधा का खयाल बहुत आत्मीयता से रखता है. इसके साथ कर्मचारियों की बहुत बड़ी संख्या जुड़ी है, जिसके कल्याण की हमेशा फिक्र होना चाहिए. राष्ट्रीय स्वामित्व वाली रेलवे महज महत्वपूर्ण संपत्ति नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है.
– जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री

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रेलवे का पहला ब्रिज जिसका उद्घाटन नेहरू ने किया था.

यही वह मंशा है, जिसके चलते रेलवे ने कभी गंगा के एक घाट से दूसरे घाट के स्टेशन तक पहुंचाने के लिए स्टीमर चलाया. काठगोदाम से नैनीताल के बीच तांगा चलवाया या फिर ट्रेन की बोगी में भी पुस्तकालय खुलवा दिया. तीन दशक पुरानी यादों को ज़हन में टटोला जाए तो बहुत सी यादगार बातें मिल जाएंगी.

फिलहाल, रेलवे में होने वाला बदलाव एकदम उलट तस्वीर है. जैसे रेलवे अब राष्ट्र की ‘महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं, बल्कि महज बिकाऊ संपत्ति है’. यात्रियों को मिलने वाली सुविधा एहसान की तरह जताई जा रही है और हर सुविधा पर अतिरिक्त शुल्क हनक के साथ वसूलने का कायदा अमल में आ चुका है.

हाल ही में भारतीय रेल में पहली निजी ट्रेन ‘तेजस’ के ट्रैक पर दौड़ने के साथ ही भारतीय रेल के इतिहास में नया अध्याय भी लिख गया. जल्द ऐसी ही 150 ट्रेनों और 50 स्टेशनों के भी निजी होने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. ये ‘100 दिन के एक्शन प्लान’ के तहत हो रहा है या पहले से तय है, ये सरकार ही जानती है.

ऐसा उस रेल के इतिहास में हो रहा है, जिसने भारत में पहले उद्योग का दर्जा हासिल किया, जिसने किसानों को जमीन का बंधुआ होने से बचाकर मुक्त श्रमिक बनाया, जिसने देश को एक कोने से दूसरे कोने से जोड़ा, जिसने जाति, धर्म के बंधनों को तोड़ने में मदद की, जिसने देश को गुलामी की जंजीरें तोड़ने में ऐतिहासिक भागीदारी की, जिसने लाखों परिवारों को व्यवस्थित जिंदगी जीने का मौका दिया, जिसने कितनी ही सत्ताओं, सरकारों के आने-जाने की परवाह किए बगैर अपना सफर जारी रखा.


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कई पीढ़ियों के खून-पसीने से जारी रहा सफर

भारतीय रेल का करोड़ों लोगों को ‘पीठ पर लादकर’ दिनों-रात का ये सफर तब ही जारी रह सका, जब कई पीढ़ियों के करोड़ों लोगों का खून-पसीना इसमें शरीक हुआ, जिन्होंने इस सफर के लिए जान भी दी और सैनिकों की तरह मोर्चा संभाले रहे. हर साल दर्जनों की तादात में ट्रैकमैनों ने जिंदगी खोई, तो ‘ट्रेन का ब्रेन’ कहे जाने वाले एक-एक कंट्रोलर ने दो-दो दर्जन ट्रेनों का सफल संचालन कराके करोड़ों लोगों की जान बचाई.

आज वही रेल अपने कर्मचारियों और उसके मुसाफिरों से मानो कह रही है, ‘ये आपकी संपत्ति नहीं, जिसकी आपको रक्षा करना है, ये तो पराई हो रही है, जिसको कैसे चलना है, उसका मालिक तय करेगा.’ अब किसी को शायद फुर्सत नहीं होगी कि ‘अ गर्ल विद अ बास्केट’ जैसी कहानी लिखे, ‘हम वहशी हैं’ जैसे सफर के दर्द को महसूस कराए.

रेल नहीं, कई देशों से बड़ा देश

आज ‘देश की जीवन रेखा’ कही जाने वाली रेलवे की उस यात्रा को साझा करने भर से पता चल सकता है कि ये महज रेल नहीं, बल्कि देश है. कई देशों से बड़ा देश. अपनी आबादी, संस्कृति और इतिहास के हिसाब से भी. इसका एक हिस्सा बिकना भी देश का हिस्सा बिकने जैसा है. ऐसे में पूरी रेल का बिकना देश के बिकने जैसा ही होगा, अगर ऐसा हुआ तो. ये सच है, अगर कोई कायदे से भारतीय रेल का इतिहास पढ़ ले तो उसे देश के इतिहास की 90 फीसदी समझ आ जाएगी. रेल ने देश में ‘एकजुटता और संघर्ष’ के सफर में मील के पत्थर गाड़े हैं.

‘तेजस’ के बेहतरीन और खुशबूदार शौचालय हों या देश में स्वच्छता मिशन की अलख. तथ्य ये है कि किसी भी तरह के शौचालय के बगैर भारत की ट्रेनें 55 साल दौड़ीं. कल्पना कीजिए, सफर में यात्रियों को खिड़कियों और दरवाजे से लटककर शौच को मजबूर होना पड़ा हो. काफी राजनीतिक दबाव और कुछ लोगों के आवाज उठाने के बाद अंग्रेज सरकार ने फर्श में एक छेद कराके प्रारंभिक शौचालय की व्यवस्था की.

ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि देश की पहली ट्रेन बॉम्बे से ठाणे के बीच चली. नहीं, देश में पहली ट्रेन रुड़की और पिरान कलियर के बीच 22 दिसंबर 1851 को चली थी, किसानों की तत्कालीन सिंचाई समस्याओं को हल करने के लिए. बड़ी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता थी जो कि रुड़की से 10 किमी दूर पिरान कलियर क्षेत्र में उपलब्ध थी, इसलिए.

सुल्तान, सिंध और साहिब नाम के तीन लोकोमोटिव से खींची गई 14 डिब्बे वाली पहली कॉमर्शियल ट्रेन 16 अप्रैल 1853 को बॉम्बे और ठाणे के बीच चली. भारत का पहला इलेक्ट्रिक लोको 1910 में सीमेंस द्वारा ओवरहेड विद्युत उपकरणों के साथ बैगनॉल्स द्वारा मैसूर गोल्ड फील्ड्स को वितरित किए गए थे. पहली इलेक्ट्रिक ट्रेन बॉम्बे (विक्टोरिया टर्मिनस) और कुर्ला के बीच 16 किलोमीटर की दूरी पर 3 फरवरी 1925 को शहर के बंदरगाह मार्ग से चली.

119 साल पहले बनी सरकारी कंपनी

1845 में, सर जमशेदजी जेजेभॉय के साथ जगन्नाथ शंकर सेठ ने इंडियन रेलवे एसोसिएशन का गठन किया. 1900 में रेलवे सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी बन गई. 1901 में प्रारंभिक रेलवे बोर्ड का गठन हुआ, जो वाणिज्य और उद्योग विभाग के अधीन था और इसमें एक सरकारी रेलवे अधिकारी बतौर अध्यक्ष हुआ करता था. इसके अलावा इंग्लैंड से एक रेलवे प्रबंधक और अन्य दो सदस्यों के रूप में कंपनी के एजेंट थे.

1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत को काम चलाऊ रेल नेटवर्क विरासत में मिला. लगभग 40 फीसदी रेलवे लाइनें नए बने पाकिस्तान में थीं. कई लाइनों को भारतीय क्षेत्र के माध्यम से फिर से जोड़ा जाना था. पूर्व भारतीय रियासतों के स्वामित्व वाली 32 लाइनों सहित कुल 42 अलग-अलग रेलवे सिस्टम 55 हजार किलोमीटर सीमा में मौजूद थे.

1952 में मौजूदा रेल नेटवर्क को जोन में बदलने का निर्णय लिया गया. तब कुल छह जोन अस्तित्व में आए. जैसे-जैसे भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था विकसित की, लगभग सभी रेलवे उत्पादन इकाइयां स्वदेशी निर्माण करने लगीं. रेलवे ने अपनी लाइनों को बदलना शुरू कर दिया. 6 सितंबर 2003 को मौजूदा जोन से छह और जोन बनाए गए और 2006 में एक और जोन जोड़ा गया. भारतीय रेलवे में अब कोलकाता मेट्रो सहित 17 जोन हैं.

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रेलवे का पुराना कोलाज.

अनचाहे पढ़ा दिया सामूहिकता का पाठ

रेलवे अंग्रेजों के लिए फायदे का सौदा था. रेल कच्चे माल को देशभर से ढोकर इंग्लैंड का खजाना भरने के काम में लग गई. चाहे-अनचाहे बहुत से लोगों को भी दूसरे क्षेत्रों में जाने का मौका मिला, मजदूर बतौर ही सही. बाद में यात्री गाड़ियों की भी शुरुआत हुई और बड़ी संख्या में रेल संचालन से लेकर रखरखाव में लोगों को इस उपक्रम में रोजगार मिला.

बेशक, हालात बहुत विपरीत थे, लेकिन सामूहिकता का पाठ भी तो पढ़ने को मिला. ये सामूहिकता दो दशक पहले तक रेलवे कॉलोनियों की आवोहवा में समाई थी.

एक जमाने में यही रेल विदेशी हुकूमत के खिलाफ लामबंदी का जरिया ही बन गई. क्रांतिकारियों का काकोरी केस, भगत सिंह का हुलिया बदलकर जाना, गांधी जी का देशभर में भ्रमण, अन्य नेताओं का भी इसी तरह गोलबंदी का प्रयास ट्रेन यात्रा से सुगम हो गया.

रेलकर्मियों ने रखी श्रमिक संघर्ष की बुनियाद

रेलकर्मियों ने आधुनिक श्रमिक संघर्ष की न सिर्फ बुनियाद रखी, बल्कि अपनी सूझ-बूझ से कायल कर दिया. पूरी दुनिया मई दिवस 8 घंटे काम की मांग के लिए 1886 में शिकागो में हुए मजदूर आंदोलन की याद में मनाती है. इस तथ्य से बहुत कम लोग वाकिफ हैं कि शिकागो के आंदोलन के काफी पहले भारतीय रेलवे के कर्मचारियों ने अप्रैल और मई 1862 में इसी मुद्दे पर पहली बार हड़ताल की. इसी प्रभाव में उसी साल बैलगाड़ी चालक ऐतिहासिक हड़ताल पर चले गए, जिसके बाद कई श्रमिक आंदोलनों ने ताकत दिखाई. 1906 में ईस्ट इंडिया रेलवे की मालगाड़ियों के गार्ड्स ने जीत हासिल की.

18 नवंबर 1907 भारतीय मजदूर आंदोलन के उद्घोष में एक ऐतिहासिक दिन था, जब बंगाल के आसनसोल में रेलकर्मियों ने अपने 43 प्वाइंट चार्टर के समर्थन में संघर्ष छेड़ दिया. यह हड़ताल पूरे देश में तेजी से फैल गई थी और कोई भी ट्रेन कई दिन कलकत्ता नहीं पहुंच सकी. कलकत्ता बंदरगाह पर सन्नाटा पसर गया क्योंकि पोर्ट के कर्मचारियों ने भी हड़ताली रेलकर्मियों के समर्थन में एकजुटता दिखाकर काम रोक दिया.

11 फरवरी 1927 को बंगाल में खड़गपुर डिवीजन में रेलवेकर्मियों ने बड़े पैमाने पर हड़ताल की. इसी असर में हावड़ा जिले के लिलुआ के रेलकर्मियों ने 28 मार्च 1928 से काम बंद कर दिया और उनकी मांगों को पूरा किया गया. पहली बार संभवत: 1927 से भारत में मजदूरों के संघर्ष के उद्घोष में मई दिवस समारोह मजदूरों के अधिकारों का दावा करने का हिस्सा बना. संघर्षों का ये क्रम जारी रहा.


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आजाद भारत में भी बेरहमी से हुआ रेलकर्मियों का दमन

ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) 1925 में भारतीय रेलवे में स्थापित पहला संघ बना, जो सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन सेंटर हिंद मजदूर सभा से संबद्ध है. 1940 के उत्तरार्ध तक, एआईआरएफ में समाजवादी और कम्युनिस्टों का प्रभाव था. 1947 और 1953 के बीच संघ के अध्यक्ष समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण थे, जबकि पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु उपाध्यक्ष थे.

इस बात से चिंतित होकर सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी ने 1948 में अपनी विंग इंडियन नेशनल रेलवे वर्कर्स फेडरेशन (आईएनआरडब्ल्यूएफ) बनाई. मार्च 1949 में एआईआरएफ ने हड़ताल की तैयारी की, लेकिन सरकार से समझौते के बाद नोटिस वापस लेने वाली थी कि एआईआरएफ में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े नेताओं ने आंदोलन की शुरुआत कर दी.

आंदोलन तोड़ने के लिए सरकार ने सैन्य बलों को उतार दिया, सात हजार श्रमिकों को गिरफ्तार करने के साथ ही दो हजार श्रमिकों को बर्खास्त कर दिया गया. इस घटना के बाद एआईआरएफ से कम्युनिस्ट यूनियनों और कम्युनिस्ट विचार रखने वालों को निष्कासित कर दिया गया. 1953 में एआईआरएफ ने राष्ट्रीय संघ बनाने के लिए आईएनआरडब्ल्यूएफ के साथ एकता करके नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमेन (एनएफआईआर) बना ली. लेकिन यह एकता कुछ ही समय तक टिकी और दो साल बाद 1955 में एआईआरएफ फिर ‘स्वतंत्र’ होकर काम करने लगी.

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पुरानी ट्रेन.

74 की हड़ताल के बाद बदल गया रुख

मई 1974 में एआईआरएफ के अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडीज ने देशभर में रेलवे स्ट्राइक का नेतृत्व किया, जिसका भारत सरकार ने दमन कर दिया. इस हड़ताल ने देश के पूरे राजनीतिक ताने-बाने को हिलाकर रख दिया और पूरे देश में आंदोलनों के एक नए ज्वार की शुरुआत की. इसके बावजूद एआईआरएफ और एनएफआईआर को बिना चुनाव लगातार मान्य होने का ‘लाभ’ मिलता रहा. आंदोलन के नाम पर खानापूर्ति होने लगी और श्रमिक अधिकारों में कटौती चालू हो गई. धीरे-धीरे करके ठेकाकरण की प्रक्रिया भी चलने लगी.


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यूनियन नेताओं की ‘सरकार से नजदीकियों’ ने ये नौबत ला दी है कि आज किसी भी रेल यूनियन में निजीकरण के खिलाफ एक जगह पांच-दस हजार लोगों को जमा करने का बूता नहीं बचा है, जबकि आज भी इस उपक्रम में करीब 13 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं. 2007 में, भारतीय रेलवे को सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार गुप्त मतपत्र चुनाव कराने का आदेश दिया. इस नाजुक वक्त में भी अधिकांश रेल कर्मचारी नेता यूनियन मान्यता चुनाव के जरिए ‘सरकारी लाभ’ लेने को दौड़ लगा रहे हैं.

(लेखकस्वतंत्र पत्रकार हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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1 टिप्पणी

  1. Hamara rail net asia ka sab se bara net hai hamare bharat ka 85% aarthik bajat rail sabhalati hai or 87% garib majdur pariwar ka chulha rail se jalta hai. Sarkar isko andekha kar nijikaran ka bat karta hai.usaka to samay khatm ho gaya par hamare aane wale pirhi ka bhavishay khatam ho jayga .sarkar jo aysha kar rahi hai o apana bita etihas bhol gaya.aysa nahi hone dege .

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