दशहरा के मौके पर संघ मुख्यालय से अपने भाषण में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा, ‘भीड़ हत्या (मॉब लिंचिंग) पश्चिमी तरीका है और देश को बदनाम करने के लिए इसका इस्तेमाल न किया जाए.’ किसी समुदाय के खिलाफ घृणा पैदा करके ऐसी स्थिति में ला देना कि दूसरा समुदाय उसे मारने-पीटने और हत्या करने लगे, यह प्रवृत्ति वैश्विक है. भागवत अगर इस बात के लिए चिंतित हैं कि भारत में होने वाली घटनाओं के लिए इसका इस्तेमाल क्यों हो रहा है, तो ये बात समझ में आती है. जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ और अमेरिका में अश्वेतों के खिलाफ सामुदायिक हिंसा की बेशुमार घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं. हम सब कम से कम इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि मॉब लिंचिंग सिर्फ भारत में नहीं होती.
भारत के खास संदर्भ में मॉब लिंचिंग शब्द का इस्तेमाल हाल की उन घटनाओं के लिए हो रहा है, जिसमें खासकर मुसलमानों और कहीं-कहीं दलितों और ईसाइयों को भीड़ द्वारा मारा जा रहा है. हाल की ऐसी घटनाओं को याद करें तो यूपी के दादरी में अखलाक की गोमांस रखने के शक में हत्या, गाय ले जाते पहलू खान की अलवर में हत्या, मरी गाय का चमड़ा उतारने पर गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई और आंध्र प्रदेश के अमलापुरम में ऐसे ही मामले में दो दलित भाइयों की पिटाई का जिक्र किया जा सकता है. इसके अलावा हाल में झारखंड के खूंटी में एक विकलांग आदिवासी ईसाई युवक की गोमांस बेचने के आरोप में भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई.
इन सभी और ऐसी कई घटनाओं से ये जाहिर है कि भीड़ को उत्तेजित करने और किसी समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने के लिए जिस एक बात का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, वह है गाय और गोकशी. इस लेख का उद्देश्य गाय को लेकर हो रही राजनीति, हिंसा और उसके समाजशास्त्र को पिछले डेढ़ सौ साल के संदर्भ में देखना है.
यह भी पढ़ेंः मॉब लिंचिंग में दलित-पिछड़े क्यों शामिल होते हैं
गाय के नाम पर राजनीति का इतिहास
गोकशी और गौरक्षा के नाम पर होने वाली सांप्रदायिकता और हिंसा का इतिहास करीबन डेढ़ सौ वर्ष पुराना है और इसे आज भी सफलतापूर्वक आजमाया जा रहा है. शुरुआती दौर में भी इसका इस्तेमाल न सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ बल्कि ईसाइयों के भी खिलाफ भी हुआ करता था और आज भी इसके नाम पर होने वाली लिंचिंग का इस्तेमाल मुख्य रूप से इन्हीं दोनों समुदायों के खिलाफ हो रहा है.
गौरक्षा के सवाल पर हिंदुओं को एकजुट करने का काम सबसे पहले संगठित रूप से आर्य समाज ने शुरू किया. हालांकि उसकी भाषा में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की जगह गाय को अर्थव्यवस्था और खेती के लिए उपयोगी बताने जैसी बातों पर जोर था. आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती के मुताबिक ‘जब तक भारत में आर्यों का शासन रहा तब तक गाय और दूसरे उपयोगी जानवरों का वध नहीं होता था. बाद में भारत में हमलावर आए जो मांसाहारी थे.’ यह दिलचस्प है कि मुसलमान शासकों से हाथ से भारत की सत्ता अंग्रेजों के हाथ में चली जाती है और वे भी गोमांस खाते थे, लेकिन दयानंद सरस्वती का गोमांस को लेकर सारा आक्रमण मुसलमान शासकों तक ही सीमित रहा. बल्कि उन्होंने अंग्रेज शासकों से गोवध पर पाबंदी लगाने की मांग की और इसका आधार आर्थिक बनाया. उन्होंने 1879 में रेवाड़ी में पहली गोशाला की स्थापना की और 1881 में आगरा में गोरक्षिणी सभा का गठन किया.
हालांकि आगे चलकर सनातनी संस्था गीता प्रेस, गोरखपुर ने 1943 में कल्याण पत्रिका का गो अंक प्रकाशित किया था. इसमें गाय को नारी और मां के रूप में चित्रित करते हुए कविताएं छापी गईं. एक लेख में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी लिखते हैं कि जो कोई भी गाय को मां मानता है, वह हिंदू है. वे लिखते हैं कि गाय मारने से बड़ा कोई अपराध नहीं है. इस अंक में ऐसे लेख भी छपे जिसमें कहा गया कि इस्लाम गाय को मारने का समर्थन नहीं करता.
इस तरह, साबित होता है कि गाय का प्रतीक के रूप में इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है. लेकिन सवाल उठता है कि गाय को सामने रखकर हिंदुओं को संगठित करने की जरूरत क्यों पड़ी? इस सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि हिंदुओं में आखिर वे कौन से मतभेद थे, जिन्हें पाटने के लिए गाय को सामने लाया गया?
इसकी जड़ें वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था में छिपी हैं
वर्ण व्यवस्था हिंदू समाज का मूलाधार है. ये जन्म के आधार पर समाज में विभाजन की स्थायी व्यवस्था है, जिसमें समूहों को ऊपर और नीचे के क्रम में रखा जाता है. इसके अलावा हर जाति या वर्ण का एक निर्धारित कर्म होता है. इसकी वजह से हिंदू समाज अंदर से बंटा हुआ है. इस विभाजन से समाज के प्रभु वर्ग को कहीं कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि इसकी वजह से उनकी श्रेष्ठता कायम रहती है. इस तरह उन्हें न सिर्फ कई तरह के विशेषाधिकार हासिल हैं, बल्कि इसकी वजह से ज्ञान, धन और सत्ता पर उनका नियंत्रण भी होता है. इसके अलावा वर्ण व्यवस्था प्रभु वर्ग को सस्ते या मुफ्त के श्रमिक और सेवक भी उपलब्ध कराती है.
लेकिन इतिहास के विकास के क्रम में एक ऐसा दौर आया जब वर्ण व्यवस्था की विशिष्टताओं को बनाए रखते हुए पूरे हिंदू समाज को एकजुट रखने की जरूरत पैदा हो गई. उपनिवेश काल में 1878 में जब जनगणना शुरू हुई और हर धर्म के लोगों को अलग-अलग गिना जाने लगा तो इसकी सबसे ज्यादा जरूरत आई. दूसरी बार इसकी जरूरत तब आई, जब ये तय हो गया कि मतदान से सरकारें बनेंगी. अंग्रेजी शासन में जब सीमित लोकतंत्र आया तो लोगों को मताधिकार मिला. ऐसे में संगठित मुसलमान मतावलंबियों के मुकाबले के लिए उन हिंदुओं को एकजुट करने की चुनौती आई, जिनकी प्राथमिक पहचान धर्म नहीं जाति थी.
इसकी एक वजह ये भी थी कि अंग्रेजों ने भारतीय समाज में कई तरह के सुधार लाने की कोशिश की. मिसाल के तौर पर उन्होंने सती प्रथा पर रोक लगा दी और सभी जातियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोल दिए. उन्होंने सहमति से सेक्स के लिए लड़की की न्यूनतम उम्र तय कर दी. उनकी शिक्षा के असर से लोगों ने विदेश यात्राएं शुरू कर दी. इनकी प्रतिक्रिया में यथास्थितिवादी शक्तियां सक्रिय हो गईं और जिन्होंने प्राचीन परंपराओं की श्रेष्ठता समाज में स्थापित करने की कोशिश शुरू कर दी. वेदों की तरफ लौटने का आर्यसमाजी अभियान इसी क्रम में आया. गौरक्षा के जिस अभियान को हम अभी देख रहे हैं, वह इसी दौर में आया. इस विचार को न सिर्फ धर्म प्रचारकों के माध्यम से बल्कि उस समय की मीडिया के जरिए भी प्रचारित किया गया. मिसाल के तौर पर इस खबर को देखें-
‘एक किसान अपनी गऊएं लेकर पाली जा रहा था, उसने कुएं में गिरकर प्राण दे दिए. कुएं के मालिक से गऊओं को पानी पिलाने के लिए कहा गया किंतु वह अधिक गऊओं को पानी पिलाने में असमर्थ था. गऊओं का दुख किसान से देखा नहीं गया और कुएं में कूद कर प्राण दे दिए. शहर के दानी सज्जनों द्वारा सेवा संघ को गऊओं की सेवा के लिए काफी सहायता प्राप्त हो रही है. कुछ व्यक्तियों ने अन्यत्र सेवा भी आरंभ कर दी है. पड़ोस के गोदवाड़ प्रांत से भी गऊएं आ रही हैं.’ (29 जुलाई, 1939 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित समाचार, प्रमोद रंजन के आलेख से साभार)
गोकशी पर कानूनी प्रतिबंध लगाने की मांग भी इस बीच बुलंद होती गई. नगरपालिका, विधायिका आदि के चुनावों में इसको लेकर खेमेबंदियां होने लगीं. गाय को लेकर संभवत: पहली संगठित हिंसा आजमगढ़ के मऊ में 1893 में हुई और फिर देखते ही देखते बिहार सहित उत्तर और पूर्वी भारत के राज्यों में अगले छह महीने में कुल 31 सांप्रदायिक दंगे हुए.
यह भी पढ़ेंः जयप्रकाश नारायण की ऐतिहासिक भूल की वजह से बढ़ी भाजपा
इन दंगों का वैचारिक नेतृत्व तो जमींदार और धर्म प्रचारक करते थे, जिनका प्रभुत्व नए कानूनों और सुधारों से कम हो रहा था. लेकिन इसमें भाग लेते थे गरीब किसान-मजदूर. यहां तक कि इन सांप्रदायिक दंगों की लपट बंबई, आज के मुंबई, के मजदूर आंदोलन तक पहुंच गई. अंग्रेजों को लगता था कि यह विद्रोह या दंगे उनकी सत्ता के खिलाफ हैं. इसलिए उन्होंने इसे पूरी ताकत से दबा दिया, लेकिन आजाद भारत में जब किसी राजनीति की धुरी यदि यही हिंदू-मुस्लिम विभाजन व ध्रुवीकरण बन जाये तो भला इसे कैसे रोका जा सकता है?
वर्तमान समय में गौरक्षा के राजनीतिक विचार की महत्ता बनी हुई है क्योंकि इससे जातियों में बंटे हिंदू समाज को एकजुट करने में मदद मिलती है. मोदी और बीजेपी की विराट जीत के पीछे सिर्फ 10-15 फीसदी अगड़े ही नहीं, बल्कि दलितों, पिछड़ों की एकजुटता भी है. इस एकजुटता में गौरक्षा आंदोलन का बहुत बड़ा हाथ है. ये न भूलें कि बीजेपी बेशक विकास की बात करती है लेकिन उसके चुनावी नारों की लिस्ट में ये दो नारे प्रमुख थे– मोदी को मतदान, गाय को जीवनदान और बीजेपी का संदेश, बचेगी गाय, बचेगा देश.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)