पासपोर्ट पर वीज़ा स्टेपल करना और अंतरराष्ट्रीय ट्रांजिट ज़ोन में भारतीय यात्रियों को रोकना, अरुणाचल प्रदेश के लोगों के साथ होने वाली परेशानियों के कुछ उदाहरण हैं. चीन अरुणाचल प्रदेश को “दक्षिण तिब्बत” का हिस्सा मानता है. इन कार्रवाइयों को किसी ज़्यादा उत्साहित इमीग्रेशन अधिकारी की गलती नहीं कहा जा सकता. यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जिसके ज़रिए चीन अरुणाचल प्रदेश की भारत के एक पूर्ण राज्य के रूप में स्थिति पर सवाल उठाता है. यही ज़्यादा सच लगता है क्योंकि चीन के पूरे सिस्टम में कुछ भी बिना तालमेल के नहीं होता.
पिछले हफ्ते ही, प्रेमा वांगजॉम थोंगडॉक, जो यूके में रहने वाली एक भारतीय फाइनेंशियल कंसल्टेंट हैं, को शंघाई एयरपोर्ट पर गैरकानूनी तरीके से रोका गया. भारत के कड़े विरोध के बाद, चीन की विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने वही आधिकारिक बयान दोहराया कि “बॉर्डर इंस्पेक्शन अधिकारियों ने कानून और नियमों के अनुसार पूरी प्रक्रिया का पालन किया और संबंधित व्यक्ति के कानूनी अधिकारों की पूरी सुरक्षा की”.
उन्होंने अरुणाचल प्रदेश को “जांगनान” कहा और दावा किया कि “चीन ने कभी भी भारत द्वारा बनाए गए तथाकथित अरुणाचल प्रदेश को स्वीकार नहीं किया”.
भारत के अधिकारों को स्पष्ट करना
अब तथ्य साफ कर लेते हैं. आज का अरुणाचल प्रदेश पहले नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) का हिस्सा था और 1914 में भारत, तिब्बत और चीन के प्रतिनिधियों द्वारा सिमला और नई दिल्ली में हुई बैठक के बाद मैकमोहन समझौते के तहत बनाई गई सीमा रेखा में इसे स्पष्ट रूप से दर्शाया गया था. इस सम्मेलन को सिमला कन्वेंशन कहा जाता है — जिसकी शुरुआती बैठकें ब्रिटिश भारत की गर्मियों की राजधानी में हुई थीं, लेकिन बातचीत सर्दियों तक चली और नई दिल्ली में खत्म हुई.
यह सच है कि प्रथम विश्व युद्ध और कठिन भौगोलिक स्थिति के कारण भारतीय राजस्व और नागरिक अधिकारियों की इन दूरदराज़ सीमाई इलाकों में यात्राएं बहुत कम हुईं. इसी वजह से वहां के मठों में दलाई लामा के प्रति निष्ठा रखने वाले भिक्षु प्रशासन संभालते रहे, खासकर तवांग मठ में, जो NEFA का मुख्य द्वार था.
लेकिन स्वतंत्रता के बाद — और खासकर पाकिस्तान द्वारा भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिशों के बाद — भारत के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने संविधान की पहली अनुसूची में बताए क्षेत्रों पर भारत के अधिकारों को मज़बूती से स्थापित करने की पहल की. अपनी मृत्यु से एक हफ्ते पहले, 15 दिसंबर 1950 को, उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू का ध्यान चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के विस्तारवाद के खतरे की ओर दिलाया.
उन्होंने लिखा, “इतिहास में हमने शायद ही कभी अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा की चिंता की हो. हिमालय को हमेशा उत्तर से आने वाले खतरे के खिलाफ एक अभेद्य दीवार (न टूटने वाली दीवार) माना जाता था. हमारे पास एक मैत्रीपूर्ण तिब्बत था, जिससे कोई परेशानी नहीं थी….(लेकिन) हाल का इतिहास बताता है कि कम्युनिज़्म साम्राज्यवाद से बचाव नहीं है और चीनी कम्युनिस्ट भी अन्य साम्राज्यवादियों की तरह ही हैं”.
इस पत्र में उन्होंने नेहरू से तुरंत इन कदमों पर कार्रवाई करने को कहा:
(a) उत्तरी और उत्तर-पूर्वी सीमाओं को मज़बूत करने के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक कदम, जिसमें पूरी सीमा — नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के जनजातीय क्षेत्र — शामिल हों.
(b) सीमा क्षेत्रों और उनसे लगे राज्यों जैसे यूपी, बिहार, बंगाल और असम में आंतरिक सुरक्षा के उपाय.
(c) इन क्षेत्रों और सीमा चौकियों के साथ सड़क, रेल, हवाई और वायरलेस संचार को बेहतर बनाना.
(d) सीमा चौकियों की पुलिसिंग और खुफिया व्यवस्था.
(e) ल्हासा में हमारे मिशन का भविष्य और ग्यांत्से और यातुंग में ट्रेड पोस्ट, और तिब्बत में ट्रेड रूट की सुरक्षा के लिए काम कर रही सेना; और, आखिर में, मैकमोहन लाइन से जुड़ी पॉलिसी.
इस पत्र की एक प्रति जयरामदास दौलतराम, तत्कालीन असम के राज्यपाल, को भेजी गई, जिन्हें NEFA की विशेष ज़िम्मेदारी दी गई थी. उन्होंने तुरंत कार्रवाई करने का फैसला किया. उन्होंने असम राइफल्स के मेजर रालेंगनाओ ‘बॉब’ खाथिंग को बुलाया — जिन्होंने 1950 के असम भूकंप के बाद पुनर्वास कार्य में अपनी पहचान बनाई थी. दौलतराम ने उन्हें मैकमोहन लाइन के अनुसार तवांग पर भौतिक कब्ज़ा करके NEFA की सीमा सुरक्षित करने का आदेश दिया.
क्या ड्रैगन कभी सुनता है?
खाथिंग ने तवांग मठ पर भारत का अधिकार स्थापित करने के लिए कुमाऊं रेजिमेंट के 200 जवानों और 800 कुलियों व खच्चरों के साथ यात्रा शुरू की. 9 फरवरी 1951 को खाथिंग तवांग पहुंचे और घोषणा की कि अब से लामाओं को भारत के प्रति निष्ठा दिखानी होगी.
ज़्यादा विरोध नहीं हुआ क्योंकि स्थानीय लोग लंबे समय से भारी करों के कारण परेशान थे, खासकर जब युद्ध के लंबे दौर ने उनकी रोज़ी-रोटी प्रभावित की थी. अगर पटेल कुछ और समय जीवित रहते, तो शायद भारत ल्हासा में वाणिज्य दूतावास या ग्यांत्से और यातुंग में सैन्य ठिकाने नहीं छोड़ता क्योंकि उनकी मृत्यु के बाद हमारी विदेश नीति ‘राष्ट्र-प्रथम’ के बजाय वैचारिक दिशा में चली गई. हमने न सिर्फ तिब्बत पर चीन के प्रभुत्व की राय मानी, बल्कि चीन की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता का भी समर्थन किया — एक कदम जो बाद में हमारे लिए बोझ साबित हुआ. मानचित्र के स्तर पर देखें तो हिंदी में ‘चीन’ शब्द पहली बार 1952 में प्रकाशित भारत के पहले हिंदी नक्शे पर दिखाई दिया.
दस साल बाद, 23 अक्टूबर 1962 को चीनी सैनिक नेफा में घुसे, जो चीन और भूटान से सटा हुआ है, और भारी गोलाबारी शुरू कर दी. उन्होंने तवांग, जो एक मठ वाला कस्बा है, पर कब्ज़ा कर लिया. नवंबर के मध्य तक वे बोमडिला पहुंच गए, जो एक और मठ वाला इलाका है और असम से सिर्फ 250 किलोमीटर दूर है, जहां भारत के चाय बागान, तेल के कुएं और जूट उद्योग हैं. लेकिन हमले की शुरुआत के सिर्फ एक महीने बाद, 21 नवंबर को चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी और दोनों देशों के बीच मौजूद धुंधली वास्तविक सीमा रेखा — यानी मैकमहोन लाइन — से 20 किलोमीटर पीछे हट गया, जिसे वह हमेशा चुनौती देता रहा था. यही अब वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) कहलाती है.
इसके बाद भी, प्रेमा द्वारा उठाया गया मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है. “द्विपक्षीय या भू-राजनीतिक मसले को एक निजी भारतीय नागरिक पर डाल दिया गया.” ऐसा अंतरराष्ट्रीय ट्रांज़िट में कभी नहीं होना चाहिए क्योंकि यह शिकागो और मॉन्ट्रियल कन्वेंशनों का उल्लंघन है जो नागरिक उड्डयन से जुड़े हैं.
लेकिन क्या ड्रैगन कभी सुनता है?
संजीव चोपड़ा एक पूर्व IAS अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स साहित्य महोत्सव के निदेशक हैं. हाल तक वे LBSNAA के निदेशक रहे हैं और लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल (LBS म्यूज़ियम) के ट्रस्टी भी हैं. वे सेंटर फॉर कंटेम्पररी स्टडीज़, PMML के सीनियर फेलो हैं. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.
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