टिहरी गढ़वाल: ढाबे के रसोइये कुलदीप कठैत ने मेडिकल सुपरिंटेंडेंट के दरवाज़े पर बेतहाशा दस्तक दी. वह अपनी 22 साल की पत्नी रवीना के लिए मदद मांग रहे थे, जो घनसाली उप-जिले के पिलखी गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में बच्चे को जन्म देने के एक दिन बाद स्टील की हिलते-डुलते बेड पर दर्द से तड़प रही थीं. कुलदीप का आरोप है कि सुपरिंटेंडेंट ने दरवाज़ा तक नहीं खोला और उन्हें भगा दिया.
कुलदीप ने रोते हुए कहा, “उन्होंने कहा कि डॉक्टर सुबह आएंगे और देखेंगे. उन्होंने कहा कि वे कुछ नहीं कर सकते, इसलिए मुझे समय बर्बाद नहीं करना चाहिए और रवीना को बस हिम्मत दिलानी चाहिए कि वह दर्द सह ले.” उसी रात, 24 अक्टूबर को, रवीना की मौत हो गई. उसी दिन उनकी तीसरी शादी की सालगिरह भी थी.
इस बार मायूसी की जगह गुस्सा था. रवीना की मौत से एक महीने पहले ही उसी गांव की एक और युवती की ऐसी ही हालत में मौत हो चुकी थी. इतनी जल्दी हुई दो रोकी जा सकने वाली मौतें लोगों के सब्र का बांध तोड़ गईं. मामला फिर पहाड़ बनाम मैदान का बन गया—इस बार स्वास्थ्य को लेकर.
पहाड़ी ज़िलों में असमान स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर गुस्सा इतना बढ़ गया कि आंदोलन अल्मोड़ा से टिहरी गढ़वाल तक फैल गया है. अल्मोड़ा में इसे ‘ऑपरेशन स्वास्थ्य’ कहा जा रहा है और चंबा में ‘जन संघर्ष’, लेकिन मांग एक ही है: ज़्यादा डॉक्टर, चालू अस्पताल.
आंदोलन बढ़ने के बीच ही टिहरी गढ़वाल में कम से कम दो और लोगों की मौत कथित तौर पर स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से हो गई — 48-वर्षीय पूरब सिंह (अक्टूबर) और 23-वर्षीय नीतू पंवार (18 नवंबर).
“हम हमारा हक मांगते, नहीं किसी से भीख मांगते.” यह नारा पूरे टिहरी गढ़वाल में गूंज रहा है, जहां कई गांव अनिश्चितकालीन आंदोलन पर बैठे हैं.
24 अक्टूबर को प्रदर्शनकारियों ने अल्मोड़ा के चौखुटिया से देहरादून विधानसभा तक 300 किमी की पदयात्रा शुरू की, जिसे पुलिस ने रोका.
घनसाली में, कुलदीप रोज़ पीएचसी जाते हैं, जहां उनके मुताबिक “चरमराई हुई मेडिकल व्यवस्था” के खिलाफ सैकड़ों लोग धरना दे रहे हैं — वही व्यवस्था जिसने रवीना की जान ले ली.

मशाल मार्च, पीएम नरेंद्र मोदी को खून से लिखे खत—लोग कहते हैं कि राज्य को पहाड़ों में ढह चुकी स्वास्थ्य व्यवस्था को ठीक करना ही होगा.
9 नवंबर को उत्तराखंड के 25 साल पूरे होने पर जश्न मनाया गया, पीएम मोदी ने “विकास यात्रा” की तारीफ की और 8,000 करोड़ की परियोजनाओं का उद्घाटन किया, लेकिन आंदोलन और तेज़ हो गया. नैनीताल के गरमपानी से लेकर टिहरी गढ़वाल के थौलधार तक लोग दिनों-दिन धरने पर बैठे रहे. सोमवार को अल्मोड़ा के भिखियासैंण में प्रदर्शनकारियों और स्वास्थ्य विभाग के बीच बातचीत टूट गई. चौखुटिया में लोग लगातार नारे लगा रहे थे—“स्वास्थ्य सेवाएं बहाल करो, डॉक्टर दो, अस्पताल बचाओ”—जबकि राज्य अपनी सिल्वर जुबली मना रहा था.
उत्तराखंड क्यों बना था? क्योंकि हमें लगता था कि हमारी अनदेखी हो रही है. हम मानते थे कि अलग राज्य बनने से इस पहाड़ी क्षेत्र का विकास होगा, लेकिन आज जो हो रहा है, उससे लगता है कि हमारी हालत और खराब हो गई है
— सुनीता रावत, उत्तराखंड क्रांति दल महिला प्रकोष्ठ की ज़िला अध्यक्ष
संकट की गंभीरता 2024 की सीएजी रिपोर्ट में साफ दिखती है, जिसमें 2016 से 2022 के बीच उत्तराखंड की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की समीक्षा की गई. रिपोर्ट में कहा गया कि सामान्य ड्यूटी मेडिकल ऑफिसरों के लिए नीति है, लेकिन विशेषज्ञ डॉक्टरों के लिए नहीं. इसके कारण सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 94% पद खाली, सब-डिस्ट्रिक्ट अस्पतालों में 45% और ज़िला अस्पतालों में 30% पद खाली हैं. पहाड़ बनाम मैदान की खाई साफ है—पहाड़ी ज़िलों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 70% पोस्ट खाली हैं, मैदानों में 50%. नर्स और तकनीशियन की स्थिति भी ऐसी ही है.

उत्तराखंड 2000 में इस वादे पर बना था कि गढ़वाल और कुमाऊं को वह विकास और राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलेगा जो उन्हें नहीं मिला था, लेकिन आज, वही इलाके सबसे बुनियादी चीज़—स्वास्थ्य के अधिकार के लिए फिर संघर्ष कर रहे हैं.
उत्तराखंड क्रांति दल, जिसने कभी राज्य आंदोलन की अगुवाई की थी, अब इन प्रदर्शनों के समर्थन में उतर आया है. राज्य विधिक सेवाएं प्राधिकरण (SLSA) ने भी खतरे की घंटी बजाई है. पिछले हफ्ते हाईकोर्ट में जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान उसने बताया कि पहाड़ी इलाकों के बेस और ज़िला अस्पतालों में “बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी” है और वे बस रेफरल सेंटर बनकर रह गए हैं. उसने यह भी कहा कि लोग भूस्खलन और बादल फटने जैसी आपदाओं के खतरे में तो हैं ही, लेकिन उन्हें बुनियादी इलाज भी नहीं मिलता.
सुनीता रावत ने कहा, “आज सरकार उत्तराखंड के 25 साल मना रही है, लेकिन इसी वक्त हमें एक मूल सवाल पूछना चाहिए—उत्तराखंड क्यों बना था? हमें अनदेखी महसूस होती थी. हमने सोचा था कि अलग राज्य बनने से इस पहाड़ी क्षेत्र का विकास होगा, लेकिन आज जो कुछ हो रहा है, उससे लगता है कि हमारी हालत और बदतर हो गई है.”
सब कुछ शुरू होने की वजह
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों को एक साथ दुख, गुस्से और विरोध में जोड़ने वाली चिंगारी थी — 21 साल की पिलखी निवासी अनीशा रावत की मौत.
जिस छोटे कमरे में वे अपने पति जसपाल सिंह के साथ रहती थीं, उसकी दीवारें अनीशा की तस्वीरों से भरी हुई हैं — मुस्कुराते हुए, नाचते हुए, हाथ पकड़े हुए. दीवार पर लगी घड़ी के बैकग्राउंड में भी उनकी ही फोटो है. उन्हें एक महीने बाद अपनी पहली शादी की सालगिरह मनानी थी.
उनके आखिरी दिनों की यादें जसपाल को आज भी सताती हैं.
उन्होंने कहा, “उसे बहुत दर्द हो रहा था. वह बार-बार कह रही थी कि उसके पैरों में बहुत दर्द है.”
पिलखी, जो ऋषिकेश से 200 किलोमीटर से ज्यादा दूर है, वहां गर्भवती होना खुशी नहीं, बल्कि डर की बात माना जाता है. इकलौता प्राइमरी हेल्थ सेंटर घनसाली बाज़ार में है, 20 किलोमीटर दूर और वहां भी मुश्किल से कोई डॉक्टर मिलता है. सही सड़कें नहीं हैं और वहां तक पहुंचने में कम से कम दो घंटे लगते हैं, वो भी ऊबड़-खाबड़, पत्थरीले रास्तों से पैदल चलकर.

गर्भावस्था के दौरान अनीशा कभी भी जब आराम चाहती, तो बाज़ार तक पैदल चली जातीं, जैसे उनकी सास उत्तम देवी 30 साल पहले करती थीं. यहां हालात ज्यादा नहीं बदले हैं. ज्यादातर महिलाएं प्राकृतिक प्रसव ही करती हैं और अगर इमरजेंसी हो जाए, तो पीएचसी में सी-सेक्शन करने के लिए कोई डॉक्टर नहीं है.
सितंबर में डिलीवरी से एक हफ्ता पहले, अनीशा अपनी भाभी के घर रहने चली गईं, जो अस्पताल के पास एक पक्की, मोटरेबल सड़क पर रहती थीं. पीएचली के पुराने आईसीयू में जिसकी दीवारें उखड़ी हुई थीं और बिस्तर चरमराता था, कई घंटों के दर्द के बाद उन्होंने बेटे को जन्म दिया और फिर उनकी तबीयत बिगड़ने लगी, खासकर उस कट (perineal cut) से जो डिलीवरी आसान करने के लिए लापरवाही से लगा दिया गया था.
यहां कोई विशेषज्ञ नहीं है. कोई उपकरण नहीं है. ये फैसला हमारे बड़े अफसरों को लेना है. लोग विरोध कर रहे हैं और हमने भी इन मुद्दों को मीटिंग में उठाया है, पर हम उससे आगे कुछ नहीं कर सकते
— पिलखी के सरकारी डॉक्टर
उनकी भाभी सर्वेशी देवी ने कहा, “उसे ऑब्ज़र्वेशन में रखने के बजाय, उन्होंने हमें 12 घंटे में ही घर ले जाने को कह दिया. मैं बार-बार कह रही थी कि खून बह रहा है, लेकिन मेडिकल स्टाफ ने सुनने से मना कर दिया और कहा कि ये आम बात है.”
उस शाम देवी के घर में अनीशा की सांस फूलने लगी. जसपाल उन्हें पीएचस ले गया, जहां से उसे ऋषिकेश रेफर कर दिया गया.
उन्होंने कहा, “मुझे सरकारी डॉक्टरों पर भरोसा नहीं था, इसलिए मैं उन्हें ऋषिकेश के एक प्राइवेट अस्पताल ले गया.”
लेकिन वे बच नहीं सकी. डॉक्टरों ने बताया कि उनका बहुत खून बह चुका था. अनीशा अपने नवजात बेटे को एक बार भी गोद में नहीं ले पाईं.

उत्तराखंड की मातृ मृत्यु दर 100,000 जन्मों पर 103 मौतें है, जो राष्ट्रीय औसत 97 से ज्यादा है. यहां शिशु मृत्यु दर भी 1,000 जन्मों पर 39.1 है, जबकि देशभर में यह 35.2 है — ये आंकड़े 2024 की CAG रिपोर्ट में दिए गए हैं.
पिलखी के पीएचसी के एक डॉक्टर ने कहा कि वे अक्सर मरीजों को रेफर कर देते हैं क्योंकि वे “जोखिम नहीं ले सकते.” स्टाफ के पास अच्छी ट्रेनिंग नहीं है और कुछ तो बुनियादी काम भी ढंग से नहीं कर पाते.
उन्होंने कहा, “यहां कोई विशेषज्ञ नहीं है. कोई उपकरण नहीं है. ये फैसला हमारे बड़े अफसरों को लेना है. लोग विरोध कर रहे हैं और हमने भी इन मुद्दों को मीटिंग में उठाया है, पर हम उससे आगे कुछ नहीं कर सकते.”
‘ये विकास आखिर किस काम का है?’
गुस्सा तो अनीशा रावत की मौत से पहले ही धीरे-धीरे उबल रहा था. जुलाई में चमोली के ग्वालदम के 1 साल के शुभांशु जोशी की मौत हो गई थी. तेज़ डिहाइड्रेशन के बाद उन्हें पीएचसी ले जाया गया, लेकिन वहां कोई बाल रोग विशेषज्ञ नहीं था और ज़िले के अस्पताल में बच्चों का आईसीयू नहीं था. इस वजह से उन्हें चार अस्पतालों के बीच इधर-उधर भेजा जाता रहा और आखिरकार उनकी जान चली गई.
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक्स पर लिखा था, “ऐसा लगता है कि अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपने काम में लापरवाही की है. तुरंत जांच के आदेश कुमाऊं कमिश्नर को दिए गए हैं.”
जोशी परिवार की पीड़ा ने लोगों के दिलों को छू लिया और विरोध शुरू हो गया, लेकिन असली तेज़ी अनीशा की मौत के बाद आई. उनकी मौत के अगले ही दिन, दुकानदारों, समाजसेवियों और ग्रामीणों ने घनसाली बाज़ार बंद कर दिया और पिलखी के पीएचसी तक मार्च निकाला. उन्होंने स्वास्थ्य विभाग, जिला प्रशासन और स्थानीय विधायक शक्ति लाल शाह के खिलाफ नारे लगाए. जिला पंचायत सदस्यों ने भी इस विरोध में शामिल होकर जांच की मांग की.

व्हाट्सऐप ग्रुप्स पर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के लिए न्याय की मांग करते मैसेज की बाढ़ आ गई. विधायक और पंचायतें भी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में आ खड़ी हुईं.
जब तेज़ी से बढ़ते विरोध ने घनसाली में ‘स्वास्थ्य जन संघर्ष मोर्चा’ का रूप लिया, तब अल्मोड़ा के चौखुटिया में अक्टूबर में ‘ऑपरेशन स्वास्थ्य’ शुरू हो गया. चौखुटिया से देहरादून तक निकला स्वास्थ्य मार्च इतना बड़ा हो गया कि मामला विधानसभा तक पहुंच गया.
नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य ने विधानसभा में कहा, “चौखुटिया में खराब स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर 35 दिनों से विरोध चल रहा है, लेकिन सरकार ध्यान नहीं दे रही. यह जनता का आंदोलन है. सीएचसी के मानक पूरे नहीं हो रहे.” इस पर बीजेपी मंत्री सुबोध उनियाल ने कहा कि कदम उठाए जा रहे हैं.

16 अक्टूबर को उत्तराखंड सरकार ने मोबाइल मेडिकल यूनिट वैन शुरू कीं ताकि स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच बढ़ाई जा सके. मुख्यमंत्री धामी ने चौखुटिया पीएचसी में एक्स-रे मशीन और 30 बिस्तरों वाली सुविधा में 20 और बिस्तर जोड़ने की घोषणा की.
उन्होंने कहा, “सरकार की कोशिश है कि पहाड़ों के लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सुविधा के लिए बड़े शहरों पर निर्भर न रहना पड़े.”
इसी दौरान अक्टूबर में पिलखी की रवीना की मौत हो गई और 48-वर्षीय पूरब सिंह की भी, जिन्हें कथित तौर पर सीएचसी बालेसुर में एक्सीडेंट के बाद इलाज देने से मना कर दिया गया था. 18 नवंबर को एक और गर्भवती महिला, 23 साल की नीतू पंवार (श्रिकोठ, चमोली) की मौत हो गई. उन्हें भी सीएचली बालेसुर से रेफर कर दिया गया था — वही केंद्र जिसने पूरब सिंह को भी लौटा दिया था. नीतू की मौत ने विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी और लगातार हो रही रेफरल प्रणाली को लेकर नया गुस्सा भड़का दिया.

सोशल मीडिया पर उनकी मौत के लिए जवाबदेही की मांग करने वाले पोस्ट वायरल हैं. लोग उनकी कार की पिछली सीट पर पड़ी तस्वीर भी साझा कर रहे हैं.
एक फेसबुक पोस्ट में लिखा था: “उत्तराखंड बने 25 साल हो गए…और अब भी गर्भवती बहनों के लिए ठीक सुविधाएं नहीं! फिर ये ‘विकास’ किस काम का?”
एक अन्य पोस्ट में लिखा था: “खाक विकास हुआ पहाड़ों का. लोग आज भी इलाज के अभाव में मर रहे हैं.”
उत्तराखंड में जो हो रहा है, गलत हो रहा है. मेरी जनता दुख झेल रही है. मैं सरकार को उनकी हालत बता रहा हूं
— पूर्व टिहरी विधायक धन सिंह नेगी
इस्तीफे की मांगों के बीच, टिहरी के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. श्याम विजय ने एक वीडियो जारी किया. इसमें उन्होंने कहा कि नीतू पंवार को घर पर ही “झटके” आए थे और जब उन्हें स्वास्थ्य केंद्र लाया गया तो उनका ब्लड प्रेशर बहुत ज्यादा था. इसलिए उन्हें रेफर कर दिया गया. उन्होंने मौत का कारण प्री-एक्लेम्पसिया बताया और कहा कि मामले की जांच के लिए टीम बनाई जाएगी.
घनसाली में जहां 25 दिनों से धरना चल रहा है, प्रदर्शनकारियों ने अब 19 नवंबर को मार्च का ऐलान किया है. स्थानीय कार्यकर्ता संदीप आर्या ने पोस्ट किया: “यह घनसाली की बहनों की न्याय यात्रा है. अगर टिहरी की डीएम नहीं आ सकतीं, तो घनसाली के लोग उन्हें जगा दें.”
8 नवंबर को उन्होंने और अन्य कार्यकर्ताओं ने एडीएम के ज़रिए से प्रधानमंत्री को खून से लिखा पत्र भेजा.
पूर्व टिहरी विधायक धन सिंह नेगी भी मैदान में उतर आए हैं. चंबा में हुए विरोध में उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि वे स्वास्थ्य मंत्री धन सिंह रावत से लगातार मुलाकात कर रहे हैं और ज़मीनी हालात बता रहे हैं.

टूटा सपना
पूरब सिंह सब्ज़ियां खरीद रहे थे, तभी एक आधी बनी इमारत से लोहे की रॉड उनके सिर पर आ गिरी. उनके हाथ से सब्ज़ियां छूट गईं और वह सड़क पर गिर पड़े. उनके चेहरे से खून बह रहा था. पड़ोसियों ने उन्हें तुरंत कम्युनिटी हेल्थ सेंटर पहुंचाया, लेकिन मेडिकल स्टाफ ने इलाज करने से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि उन्हें इस तरह का इलाज करने की ट्रेनिंग नहीं मिली है. इसके बजाय उन्हें ऋषिकेश के अस्पताल रेफर कर दिया गया, लेकिन सिंह वहां तक पहुंच ही नहीं पाए.
पूरब सिंह के 27 साल के बेटे मनीष सिंह ने कहा, “कम्युनिटी सेंटर के मेडिकल स्टाफ ने मेरे पिता की पट्टी तक नहीं की, न ही खून रोकने की कोई कोशिश की.”

इन रोकी जा सकने वाली मौतों की कीमत आर्थिक भी है. मनीष, जो ढाबों में खाना बनाकर पैसे बचा रहे थे और शेफ बनना चाहते थे, अब अपनी मां और छोटे भाई की देखभाल कर रहे हैं. अपने हुनर को निखारने के बजाय, वह जो भी छोटा-मोटा काम मिले, कर लेते हैं—ठीक वैसे ही जैसे उनके पिता करते थे—ताकि घर चला सके. फिर भी ये काफी नहीं है.
उन्होंने आंसू पोछते हुए कहा, “मैं कमाना चाहता था और ऋषिकेश में एक घर बनाना चाहता था. मेरी पूरी ज़िंदगी मैंने अपने माता-पिता को बुनियादी चीज़ों के लिए संघर्ष करते देखा है और सरकार ने सिर्फ हमें आश्वासन ही दिए हैं. मैं चाहता हूं कि सरकार हमारे परिवारों को इस नुकसान का मुआवजा दे. अब घर कौन चलाएगा?”
प्यार और संघर्ष के लिए वापसी
घनसाली के पीएचसी के बाहर बने टैंट में अब अनीशा रावत, रवीना कठैत और पूरब सिंह की तस्वीरें रखी हैं. यह तस्वीरें एक डगमगाती मेज़ पर रखी हैं और मालाओं से सजी हुई हैं. हर सुबह, 40 साल की सुनीता रावत वहीं झुककर प्रणाम करती हैं, फिर धरने पर बैठती हैं.
उन्होंने अपनी काली नेहरू जैकेट का कॉलर ठीक करते हुए कहा, “ये हमारे शहीद हैं. मुझे इनसे ताकत मिलती है.”
सुनीता दिल्ली-एनसीआर में टीचर थीं, फिर वह अपने गांव लौट आईं. कोविड के समय उन्होंने देखा कि यहां लोग अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं, तो उन्होंने कुछ करने का फैसला किया.
उन्होंने कहा, “मैंने देखा कि उत्तराखंड के लोग परेशान हैं, खासकर पहाड़ी इलाके. मुझे लगा कि हम अभी भी 1947 में ही हैं और विकास बहुत दूर है. मेरे लोग सड़क, बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं.”
राजनेताओं और अधिकारियों की लापरवाही का बोझ औरतें कब तक उठाती रहेंगी? हर बार सब कुछ हमारे ही सिर पर आकर गिरता है
— मतू देवी, अनीशा की सास
उनके भीतर का दबा हुआ विद्रोही जाग गया. वह क्रांति दल में शामिल हो गईं—वही संगठन जो कभी अलग राज्य की मांग का आंदोलन चला चुका है. अब वह और उनके साथी उत्तराखंड भर में घूमते हैं और लोगों को उनके अधिकारों के बारे में बताते हैं.
उन्होंने कहा, “इलाज का अधिकार. किसी को इसके लिए इतना संघर्ष नहीं करना चाहिए.”
सुनीता की सभा में ज्यादातर बुजुर्ग पुरुष और महिलाएं होती हैं. गांव के कई युवा पुरुष बाहर काम करते हैं.
रावत ने गुस्से से कहा, “चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियां बड़े-बड़े वादे करती हैं. वोट देने के बाद गायब हो जाती हैं. हमें उन्हें जवाबदेह बनाना होगा. जब वे फिर आएं तो उनसे उनकी गैरहाज़िरी के बारे में पूछो. क्रांति दल से जुड़िए. हम मिलकर उत्तराखंड का चेहरा बदलेंगे, जैसे 1990 के दशक में बदला था.”
100 किलोमीटर दूर चंबा में, एक और धरने में, कार्यकर्ता अंकित सजवाण भी यही नाकामियां गिनाते हैं— डॉक्टरों की कमी, अल्ट्रासाउंड मशीन नहीं, स्पेशलिस्ट नहीं.

सजवाण ने कहा, “हर बार डॉक्टर आते हैं और एक हफ्ते के अंदर ही चले जाते हैं. अधिकारी कहते हैं कि यहां कोई काम करना नहीं चाहता. लेकिन क्यों? क्योंकि उन्हें ज़रूरी सुविधाएं ही नहीं दी जातीं.”
लेकिन पिलखी में अपने कमरे के दरवाजे के पास बैठी अनीशा की सास मतू देवी रो देती हैं.
उन्होंने धीरे से कहा, “राजनेताओं और अधिकारियों की लापरवाही का बोझ कब तक औरतें उठाएंगी? हमेशा हम पर ही सब आकर गिरता है.”
पास ही, जसपाल अपनी नवजात संतान को गोद में झुलाते हैं. अनीशा का मांगलसूत्र उनके बगल में बिस्तर पर रखा है. वह मोबाइल पर अनीशा के उत्तराखंडी गानों पर नाचते वीडियो स्क्रॉल करते हैं.

वे अपने बेटे से कहते हैं, “ये तुम्हारी मां है, जिसने तुम्हें जन्म दिया.”
जसपाल ने बताया कि वह गांव में रहकर खेती इसलिए करने लगे क्योंकि अनीशा यही चाहती थीं. शादी से पहले वे बेंगलुरु में कुक थे और उनका कुछ समय तक लॉन्ग-डिस्टेंस रिलेशन था. वे चाहते थे कि अनीशा उनके साथ वहां आ जाए. वह वीडियो कॉल्स पर उसे ऊंची-ऊंची इमारतें, चौड़ी सड़कें, नाइटलाइफ दिखाते थे.
उन्होंने कहा, “उसे ये सब अच्छा लगता था, लेकिन वह पहाड़ छोड़कर कभी नहीं जाना चाहती थी. काश उसने मेरी बात मान ली होती.”
वह एक आसान-सी ज़िंदगी चाहती थीं, उन्होंने कहा, उनके सपने भी बहुत बड़े नहीं थे.
जसपाल ने कहा, “उसे हमेशा स्कूटी चलानी थी. उसके लिए स्कूटी मतलब आज़ादी—अपने दम पर सड़कों पर चलने की आज़ादी. मैं हमेशा कहता था—चलाएगी, जब यहां सड़क बनेगी.”
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