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Friday, 14 November, 2025
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ज़ोहरान ममदानी की न्यूयॉर्क जीत ने याद दिलाई गुजराती मुस्लिमों की भूली-बिसरी कहानी

मुगल दौर के बंदरगाहों से लेकर डचों से हुए समुद्री युद्धों और बॉम्बे के व्यापारी घरानों तक — गुजराती मुस्लिमों ने कभी हिंद महासागर की दुनिया को आकार दिया था, बहुत पहले, जब उनके एक वंशज ने न्यूयॉर्क जीता.

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न्यूयॉर्क के नए मेयर के रूप में ज़ोहरान ममदानी का चुनाव पिछले हफ्ते दुनिया भर के मीडिया में चर्चा का विषय बन गया — खासकर इसलिए कि वे तकनीकी रूप से सिर्फ एक अमेरिकी शहर की प्रशासनिक कमान संभाल रहे हैं, लेकिन यह चर्चा इस भारतीय मूल के युवा मुस्लिम समाजवादी तक सीमित नहीं है; यह एक बहुत पुराने, गहरे इतिहास की गूंज है.

गुजराती, बांग्ला, अरबी, हिंदी, लुगांडा और स्पैनिश बोलने वाले ममदानी, भारतीय मुस्लिमों की उस भूली हुई विश्वनगरी पहचान का प्रतीक हैं, जो कभी दुनिया के कई हिस्सों में प्रभावशाली थी. उनके पूर्वजों की गुजराती मुस्लिम समुदायों ने कभी इंडोनेशिया में डचों से समुद्री प्रभुत्व की लड़ाई लड़ी थी; जापान से लेकर अरब तक स्कूलों, अस्पतालों और प्रिंटिंग प्रेसों में निवेश किया था और ब्रिटिश साम्राज्य को अफ्रीका में पैर जमाने में मदद की थी.

आज भी उस भारतीय मुस्लिम इतिहास की गूंज सुनाई देती है — कभी लंदन के आलीशान नीलामी घरों में, तो कभी न्यूयॉर्क के मेहनतकश इलाकों में.

भारतीय महासागर में गुजराती

यह कहानी एक सामान्य से ट्वीट से शुरू हुई थी, जिसमें कहा गया था कि अगर ममदानी शुरुआती आधुनिक दौर के दक्षिण-पूर्व एशिया के मसाला व्यापार के समय होते, तो अपनी कई भाषाएं जानने की क्षमता से बहुत धन कमा सकते थे. इस ट्वीट को अब तक 10 लाख से ज्यादा बार देखा जा चुका है और 54,000 से अधिक लोगों ने इसे लाइक किया है और यह काफी हद तक सही दिखाता है कि कैसे गुजराती मुस्लिम अंतरराष्ट्रीय व्यापार की दुनिया में मशहूर हुए थे.

इतिहासकार रूबी मलोनी ने अपने शोधपत्र ‘Gujarat’s Trade with South East Asia (16th and 17th centuries)’ में गुजरात के प्रसिद्ध बंदरगाह खंभात का ज़िक्र किया है कि उसने “दो हाथ फैलाए थे — एक अदन की ओर और दूसरा मलक्का की ओर.” उस समय जहां बनिया व्यापारी पूर्वी अफ्रीका और फारस की खाड़ी में सक्रिय थे, वहीं गुजराती मुस्लिम व्यापारी मलक्का व्यापार पर हावी थे. वे अहमदाबाद में बने सस्ते ब्लॉक-प्रिंट कपड़े लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक जाते थे और वहां उन्हें मसालों के बदले बेचते थे.

इन व्यापारियों में कुछ इतने प्रभावशाली थे कि उन्होंने अपने आप में ‘वंश’ बना लिए थे, जिनका संबंध मुगल दरबार से भी था, लेकिन इनके बीच जाति-आधारित संगठन भी मजबूत था, जैसा कि हिंदू और जैन गुजराती समुदायों में देखा जाता था.

यह सबसे स्पष्ट रूप से सूरत में दिखाई देता था, जो भारत के पश्चिमी तट का सबसे शानदार बंदरगाह माना जाता था. वहां की भाषा-बोली का माहौल बहुत विविध था — गुजराती, अरबी, फारसी, उर्दू, डच, अंग्रेज़ी और पुर्तगाली सभी बोली जाती थीं. हालांकि, जाति और धर्म के आधार पर भेद साफ थे, फिर भी गुजराती व्यापारी — चाहे हिंदू हों या मुस्लिम आपसी और कारोबारी रिश्तों में अपने साझा गुजरातीपन के कारण विश्वनगरी रवैया अपनाते थे.

इतिहासकार जावेद अख्तर ने अपने शोधपत्र ‘The Culture of Mercantile Communities in Mughal Times’ में कई उदाहरण दिए हैं. सूरत में आर्मेनियाई व्यापारी पारसियों और मुस्लिमों के साथ व्यापार करते थे; वैष्णव भाटिया, जिन्हें समुद्र पार करने की मनाही थी, मुस्लिमों के साथ मिलकर जहाजों और माल में हिस्सेदारी रखते थे. अख्तर ने ऐसे दस्तावेज़ का ज़िक्र किया है जिनमें बनिया पुरुष अपनी पत्नियों को मेहर (दहेज) देने जैसी मुस्लिम परंपराएं अपनाते दिखते हैं. हिंदू और मुस्लिम व्यापारी मिलकर मुगल अधिकारियों के सामने अपनी शिकायतें भी पेश करते थे.

एक बार 1669 में जब सूरत के काज़ी ने एक वैष्णव बनिए को जबरन इस्लाम कबूलने पर मजबूर किया, तो करीब 8,000 व्यापारी — सभी धर्मों के विरोध में सूरत छोड़कर भरूच चले गए.

गुजराती मुस्लिमों ने बहुत जल्दी यूरोपियों को अपने व्यापार के लिए खतरे के रूप में पहचान लिया. मलोनी बताती हैं कि डच ईस्ट इंडिया कंपनी के रिकॉर्ड्स में इन व्यापारियों से निपटने में आने वाली कठिनाइयों का उल्लेख है. ये व्यापारी दाम घटाकर या अपने लोगों को बंदरगाह अधिकारियों के रूप में नियुक्त करवाकर डचों को चुनौती देते थे. डच चाहे कुछ भी कर लें, गुजराती मुस्लिमों को व्यापार से रोक नहीं पाते थे.

जोहर के सुल्तान ने व्यापारी हाजी जाहिद बेग के जहाजों का स्वागत किया, जो डचों की रोक के बावजूद टिन की खरीद करते थे. अन्य व्यापारी अंग्रेज़ जहाजों में माल भेजते थे. सूरत के अत्यंत अमीर व्यापारी अब्दुल गफूर तो अपने जहाजों पर डच झंडे भी फहराते थे.

आखिरकार जब डचों ने इंडोनेशिया के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, तब गुजराती मुस्लिमों का मलक्का पर नियंत्रण खत्म हुआ, लेकिन तब तक व्यापार की नई संभावनाएं क्षितिज पर उभरने लगी थीं.

खोजा महिला | बॉम्बे की महिलाओं द्वारा वेल्स की प्रिंसेस को भेंट किए गए एल्बम से चित्र, जिसमें भारतीय महिलाओं के 13 वॉटरकलर चित्र शामिल हैं, कलाकार मैनचेरशॉ फकीरजी पिठावाला (1872–1937) द्वारा | विकिमीडिया कॉमन्स
खोजा महिला | बॉम्बे की महिलाओं द्वारा वेल्स की प्रिंसेस को भेंट किए गए एल्बम से चित्र, जिसमें भारतीय महिलाओं के 13 वॉटरकलर चित्र शामिल हैं, कलाकार मैनचेरशॉ फकीरजी पिठावाला (1872–1937) द्वारा | विकिमीडिया कॉमन्स

‘कॉरपोरेट इस्लाम’ का उदय

18वीं सदी में जब मुगल साम्राज्य डगमगाने और टूटने लगा, तो पुराने बड़े व्यापारी घराने और वंश धीरे-धीरे बिखर गए. मराठा राजा शिवाजी के बार-बार हमलों से सूरत का बंदरगाह कमज़ोर पड़ा और ईस्ट इंडिया कंपनी के नए बंदरगाह बॉम्बे से उसे कड़ी टक्कर मिलने लगी.

इसी दौर में तीन गुजराती मुस्लिम समुदाय बोहरा, मेमन और खोजा जो अब तक छोटे व्यापारी माने जाते थे, बदलते राजनीतिक हालातों से फायदा उठाने के लिए सबसे बेहतर स्थिति में थे. ज़ोहरान ममदानी इन्हीं में से आखिरी समुदाय यानी खोजा से ताल्लुक रखते हैं.

इतिहासकार माइकल ओ’सुलिवन ने अपनी मशहूर किताब ‘No Birds of Passage: A History of Gujarati Muslim Business Communities, 1800–1975’ में लिखा है कि ये तीनों समूह “पूर्व में उज्जैन से लेकर पश्चिम में कराची तक, दक्षिण में पूना से लेकर उत्तर में उदयपुर तक” फैले हुए थे. 1840 के दशक में एक भारतीय शब्दकोशकार ने लिखा था कि इनका इलाका “ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड से भी बड़ा था” और उनकी साझा मातृभाषा गुजराती मध्य और पश्चिम भारत में व्यापार की मुख्य भाषा बन गई थी.

बोहरा, मेमन और खोजा तीनों ने लगभग 15वीं सदी में इस्लाम कबूल किया था, लेकिन उनके सामाजिक और सांस्कृतिक तौर-तरीके काफी अलग थे. इनमें से कुछ सुन्नी थे, कुछ शिया, कुछ इस्माइली जो आगा खान को अपना धार्मिक गुरु मानते थे, जबकि कुछ अपने क्षेत्रीय मूल और सूफी संतों से जुड़ाव रखते थे.

लेकिन इन सभी में एक चीज़ समान थी — जमात. ओ’सुलिवन इसे “कॉरपोरेट इस्लाम” का एक रूप बताते हैं. दरअसल, हर जमात के सदस्य कुछ संसाधन साझा करते थे — जैसे स्कूल, अस्पताल. वहीं, अमीर सदस्य जो धार्मिक या सामाजिक रूप से ऊंचे पदों पर होते, अपने निजी पारिवारिक ट्रस्ट या कंपनियां भी चलाते थे.

ओ’सुलिवन लिखते हैं कि जमात ने संगठन, एकजुटता और धार्मिक व्याख्या का ऐसा ढांचा बनाया, जिसने इन समुदायों को वैश्वीकरण के बदलते दौर में ढलने की क्षमता दी. ये जमातें पूंजी, जनशक्ति और धार्मिक लचीलेपन को इतनी तेज़ी से संगठित कर सकती थीं जितना भारत के बहुत कम संस्थान कर पाते थे.

19वीं और 20वीं सदी के अंत तक ये गुजराती मुस्लिम जमातें भारत की सबसे ताकतवर आर्थिक शक्तियों में शामिल हो गईं. आज भले ही पारसी और बनिया उद्यमियों की छवि ज्यादा चर्चित है, लेकिन गुजराती मुस्लिमों ने भी मराठों और अंग्रेज़ों के साथ समझौते किए, अफीम युद्धों से लाभ कमाया और जल्द ही बॉम्बे में कई तरह के वाणिज्यिक सामान बनाने लगे.

1840 के दशक में गुजराती मुस्लिमों ने गुजराती भाषा में पहले मुद्रित ग्रंथ प्रकाशित करवाए जिनमें यात्रा वृत्तांत और चीन जैसे नए बाज़ारों के लिए सांस्कृतिक परिचय शामिल थे. उनकी बढ़ती संपन्नता ने सिद्धपुर जैसी जगहों पर भव्य हवेलियों को जन्म दिया, जो आज वीरान खड़ी हैं. यही गुजराती थे, जिन्होंने शायद किसी भी अन्य भारतीय समुदाय से अधिक, पूर्वी अफ्रीका में ब्रिटिश राज की वित्तीय व्यवस्था की नींव रखी और ज़ोहरन ममदानी का परिवार भी उसी प्रवासी रेखा से जुड़ा है.

यह सब मिलकर भारतीय महासागर के इस्लाम के केंद्र को निर्णायक रूप से बदलने वाला मोड़ साबित हुआ. इसी वजह से इस्माइली खोजाओं के पूजनीय आगा खान ने विभाजन से पहले अपना मुख्यालय ईरान से बॉम्बे स्थानांतरित किया.

गुजरात का सिद्धपुर शहर | विकिमीडिया कॉमन्स
गुजरात का सिद्धपुर शहर | विकिमीडिया कॉमन्स

भूला हुआ विश्वनागरिक दृष्टिकोण

गुजराती मुस्लिमों द्वारा अपनाए गए इस्लाम के रूपों ने पूंजी निवेश और उत्तराधिकार जैसे आधुनिक विचारों को आत्मसात किया और नए बाज़ारों व संस्कृतियों में फैलते हुए अक्सर नई जमातों में विभाजित हो गए.

इसी के साथ, शोधकर्ता दानिश खान लिखते हैं कि गुजराती मुस्लिम बॉम्बे में नेतृत्व और प्रभाव के पदों पर उस समय पहुंच चुके थे, जब वे अमेरिका तक नहीं पहुंचे थे. उन्होंने लिखा, “औपनिवेशिक भारत के पहले मुस्लिम बैरोनेट एक खोजा थे और पहले मुस्लिम आईसीएस अधिकारी एक सुलेमानी बोहरा. बदरुद्दीन तैयबजी और रहीमतुल्ला सयानी कांग्रेस पार्टी के पहले दो मुस्लिम अध्यक्ष बने. सर अदमजी पीरभॉय ने कराची में मुस्लिम लीग के पहले सत्र की अध्यक्षता की.”

लेकिन 20वीं सदी की शुरुआत में जब पैन-इस्लामिक और हिंदू राष्ट्रवाद दोनों उभरने लगे, तो पलड़ा फिर बदल गया. समुद्री और व्यापारिक इतिहासों को भुला दिया गया और उनकी जगह ली उन शिकायतों ने जो सदियों पुराने राजाओं से प्रेरित थीं.

अब गुजराती मुस्लिमों का इतिहास कहां फिट होता है? ममदानी का चुनाव कई मायनों में विडंबनापूर्ण है. बॉम्बे में, जो कभी इस समुदाय का ऐतिहासिक केंद्र था, एक भाजपा नेता ने ममदानी की न्यूयॉर्क जीत पर कहा — “हम किसी खान को मेयर नहीं बनने देंगे.”

सच्चाई यह है कि तब भी और अब भी, गुजराती मुस्लिमों का इतिहास कट्टर हिंदुत्व और कट्टर इस्लाम — इन दो अतियों के बीच गायब हो गया है. ऐसा लगता है कि हर नई खबर भारत के कई आपस में गुंथे हुए इतिहासों को और ज्यादा अलग करती जा रही है.

(अनिरुद्ध कनिसेट्टि एक पब्लिक हिस्टोरियन हैं. वे लॉर्ड्स ऑफ द डेक्कन के लेखक हैं, जो मध्ययुगीन दक्षिण भारत का एक नया इतिहास है और इकोज़ ऑफ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट को होस्ट करते हैं. उनका एक्स हैंडल @AKanisetti है. उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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