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Friday, 14 November, 2025
होममत-विमतभारत की खुफिया एजेंसियां भले आलोचना झेलती हों, लेकिन आतंक से निपटने में वही देश की असली ढाल हैं

भारत की खुफिया एजेंसियां भले आलोचना झेलती हों, लेकिन आतंक से निपटने में वही देश की असली ढाल हैं

दिल्ली धमाका किसी बड़े आतंकी अभियान की शुरुआत हो सकता है. इसे सिर्फ ‘इंटेलिजेंस फेल्योर’ कहना गलत है.

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मुझे पता है कि भारत में हर आतंकी हमले के बाद एक तय पैटर्न बन गया है — हर बार लोग एक सुर में कहते हैं कि यह “इंटेलिजेंस फेल्योर” है, लेकिन अब यह बात सुन-सुनकर थकान होने लगी है.

बेशक, खुफिया एजेंसियों का काम है कि वह आतंकी संगठनों पर नज़र रखें, लेकिन कोई भी एजेंसी न तो हर जगह मौजूद हो सकती है, न ही सब कुछ पहले से जान सकती है. अगर जासूसी एजेंसियां इतनी परफेक्ट होतीं, तो दुनिया में कभी कोई आतंकी हमला होता ही नहीं — क्योंकि वह हर साजिश को पहले ही नाकाम कर देतीं.

हकीकत यह है कि जिन देशों को आतंकवाद का खतरा है, उन्हें भी बड़े-बड़े हमलों का सामना करना पड़ा है. ब्रिटेन की सिक्योरिटी सर्विस और सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस ने 1970 और 1980 के दशक में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी (आईआरए) के हमलों को रोकने की पूरी कोशिश की — फिर भी धमाके हुए और कई लोगों की जान गई. आईआरए ने तो उस होटल में भी बम फोड़ा था, जहां ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ठहरी थीं. वे बाल-बाल बचीं.

अमेरिका भी राजनीतिक हत्याओं को रोकने में कई बार बुरी तरह असफल रहा है, खासकर जब हत्यारे अकेले काम कर रहे हों. वहां भी आतंक के कई बड़े हमले हुए जिनमें 9/11 जैसी घटना भी शामिल है, जहां खुफिया एजेंसियां नाकाम रहीं.

यहां तक कि इज़राइल की मशहूर एजेंसी मोसाद, जिसे भारत में अक्सर आतंकवाद से निपटने के लिए आदर्श माना जाता है, वह भी हमास के हमले की पहले से भनक नहीं लगा सकी, जिससे पिछला युद्ध शुरू हुआ.

खुफिया नाकामियां होती हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि एजेंसी को सही जानकारी मिल जाती है, लेकिन जब वह ऊपर तक जाती है, तो उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

जैसे 2008 के मुंबई हमलों के मामले में, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (R&AW) का कहना है कि उसने उन नावों से बातचीत को इंटरसेप्ट किया था, जिनसे आतंकी मुंबई पहुंचे थे. एजेंसी ने वो ट्रांसक्रिप्ट आगे भेजे भी, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र के शीर्ष अधिकारियों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया.

नया आतंकी अभियान

हर आतंकी हमले के बाद उसकी जांच और विश्लेषण ज़रूरी होता है, लेकिन यह काम शांति और तथ्यों के साथ होना चाहिए. घबराहट फैलाना या हर बार ‘इंटेलिजेंस फेल्योर’ का शोर मचाना राजनीतिक फायदे के लिए तो ठीक है, लेकिन इससे कोई हल नहीं निकलता. जो थोड़ी जानकारी दिल्ली के हालिया धमाके के बारे में सामने आई है, उससे लगता है कि यह घटना विडंबना से एक खुफिया सफलता का ही दुखद परिणाम थी.

दरअसल, जम्मू-कश्मीर पुलिस ने एक ऐसे आतंकी नेटवर्क का पर्दाफाश किया था, जिसमें बड़ी तबाही मचाने और हज़ारों लोगों की जान लेने की क्षमता थी. उनसे जब्त किया गया विस्फोटक बेहद बड़ी मात्रा में था. इस नेटवर्क के कुछ सदस्य समाज में सम्मानित और आम लोगों की तरह दिखते थे — ऐसे लोग जो बिना शक पैदा किए बम लगाने में सफल हो सकते थे.

अब यह साफ हो गया है कि दिल्ली का हमलावर भी इसी नेटवर्क का हिस्सा था. शायद उसे अंदाज़ा हो गया था कि उसके साथी पूछताछ में सब कुछ बता देंगे, इसलिए उसने या तो एक आखिरी आत्मघाती हमला किया या फिर विस्फोटक लेकर कहीं जा रहा था, जो बीच रास्ते में ही फट गया.

ऐसे मामले में सिर्फ “इंटेलिजेंस फेल्योर” पर बात करना मुश्किल है. हां, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि दिल्ली पुलिस अगर प्रदूषण पर विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों को पकड़ने में इतनी व्यस्त न होती, तो शायद आतंक से बचाव पर ज्यादा ध्यान दे पाती, लेकिन जितना मैं प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की कार्रवाई की निंदा करता हूं, उतना ही साफ है कि इस बात को आतंकी हमले से जोड़ना उचित नहीं है.

यह सब इसलिए भी अहम है क्योंकि लगता है कि एक नए आतंकी अभियान की शुरुआत हो चुकी है. हमें पता है कि पाकिस्तान की मौजूदा सैन्य नेतृत्व भारत के प्रति खुली दुश्मनी रखता है. साथ ही यह भी जानते हैं कि उनकी सेना अब किसी सीधी जंग का जोखिम नहीं उठाएगी. पिछली बार वह इसलिए बच गए थे क्योंकि तब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने हस्तक्षेप कर दिया था, इससे पहले कि भारत पाकिस्तान के भीतर जवाबी कार्रवाई कर पाता. इससे पाकिस्तान को ‘जीत’ का दावा करने का मौका मिल गया, लेकिन अगली बार उनकी किस्मत ऐसे नहीं होगी — इसलिए जंग उनके हित में नहीं है.

ऐसे माहौल में, पिछले दो दशकों में जिस तरह उन्होंने आतंकी संगठनों को पनपाया, उसे फिर से सक्रिय करना उनके लिए सबसे फायदेमंद रणनीति है और जब तक आतंकी भारत के ही नागरिक निकलते हैं (जैसे इस मामले में दिख रहा है), पाकिस्तान आसानी से कह सकता है कि यह भारत का “आंतरिक मामला” है.

इसलिए, हमारे पास अब बहुत सीमित विकल्प बचे हैं.

वापसी की लड़ाई

ऑपरेशन सिंदूर के बाद अब सैन्य कार्रवाई केवल आखिरी विकल्प हो सकती है क्योंकि न सिर्फ पाकिस्तान के दोस्त व्हाइट हाउस में हमें रोकने की कोशिश करेंगे, बल्कि हमें बाकी दुनिया को यह समझाने में भी मुश्किल होगी कि आतंकी पाकिस्तान के समर्थन और हथियारों से लैस हैं.

इसीलिए, जिन खुफिया एजेंसियों की अक्सर आलोचना की जाती है, अब वही हमारी सबसे बड़ी उम्मीद हैं — हमलों को सीमित करने, पलटवार करने और भारत की सुरक्षा करने की.

यह आंकना हमेशा मुश्किल होता है कि हमारी एजेंसियों ने कितना अच्छा या बुरा काम किया, क्योंकि जैसा कि हर पूर्व R&AW प्रमुख कहते हैं — “हमारी नाकामियां अखबारों के पहले पन्ने पर होती हैं, लेकिन हमारी सफलताएं हमेशा छिपी रहती हैं.”

यह बात माननी होगी कि जब खुफिया एजेंसियों पर खालिस्तानियों को खत्म करने के लिए सुपारी किलर रखने के आरोप लगे, तब उनका काम सराहनीय नहीं था. न सिर्फ यह विचार ही बेवकूफाना और खतरनाक था, बल्कि इसका अमल भी बेहद घटिया तरीके से हुआ.

उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार ने अब उस गलती से सबक लेकर अपनी व्यवस्था को दुरुस्त कर लिया होगा. क्योंकि अगर हमारे सबसे बुरे डर सच साबित हुए और सीमा पार से एक आतंकी अभियान की फिर से तैयारी हो रही है, तो उसे नाकाम करने का एकमात्र तरीका खुफिया जानकारी ही है, न कि वही मूर्खतापूर्ण हरकतें जो खालिस्तानी अभियान के दौरान दिखाई गईं.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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