“जो बरगद के पेड़ को नियंत्रित करेगा, वही जनता पर असली नियंत्रण रखेगा.” किसी सैन्य किताब की यह शुरुआत आम तो नहीं लगती — खासकर उस किताब की जो किसी खास ऑपरेशन पर केंद्रित हो और वो भी 20 साल पुराने अभियान पर.
अब जाकर ऑपरेशन सर्प विनाश — भारतीय सेना का 2003 में पुंछ-राजौरी के हिल काका इलाके से आतंकियों के ठिकाने साफ करने का अभियान — चर्चा में फिर से आ रहा है. भारत में संस्थागत यादें बहुत लंबे समय तक नहीं टिकतीं, खासकर जब वह अलग-अलग नज़रियों वाले सैन्य अभियानों से जुड़ी हों. इसलिए जब किसी चर्चित अभियान पर पहली बार किताब आती है और वो भी उसी अधिकारी द्वारा जिसने उसे योजना बनाकर अंजाम दिया, तो यह स्वागत योग्य बात है.
लेफ्टिनेंट जनरल हरदेव सिंह लिड्डर द्वारा लिखी गई तथा जयश्री लक्ष्मीकांत के साथ तैयार की गई किताब ऑपरेशन सर्प विनाश कई अप्रत्याशित झलकियां देती है.
यहां “बरगद का पेड़” कोई वास्तविक पेड़ नहीं है जो गांव में छांव देता हो. यह उससे कहीं अधिक का प्रतीक है — एक ऐसी जगह की भावना, जहां लोग खुद को सुरक्षित और संरक्षित महसूस कर सकें. जिन परिस्थितियों में विद्रोह या आतंक फैलता है, वहां सुरक्षा बलों को ही इस “बरगद के पेड़” की भूमिका निभानी होती है — यानी सुरक्षा देने वाले संरक्षक की, सचमुच और प्रतीकात्मक रूप से दोनों रूपों में.
पुंछ-राजौरी में 2023-24 में हुए आतंकी हमलों ने इस किताब को और भी प्रासंगिक बना दिया है. जो ज़रूरत दो दशक पहले थी, वही आज भी उतनी ही ज़रूरी है.
आतंकवादियों के लिए सुरक्षित ठिकाना
फिर से जिस इलाके में असर दिखा, वह वही पहाड़ी इलाका था जो राजौरी और पुंछ जिलों को जोड़ता है और पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर (पीओके) तक फैला हुआ है. इन दो जिलों से लगे पीओके के इलाके सामाजिक और पारिवारिक तौर पर कश्मीर घाटी के सामने वाले इलाकों से कहीं ज्यादा जुड़े हुए हैं. 1948 की युद्धविराम रेखा ने खेतों और परिवारों को बांट दिया था, जो हालात के मुताबिक मिलते-जुलते और इधर-उधर आते-जाते रहे. 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद जब इसे आधिकारिक तौर पर नियंत्रण रेखा (एलओसी) के रूप में मान्यता मिली, तब भी पड़ोसी गांवों के बीच आना-जाना संभव था. यही बात इस इलाके को बेहद अहम बनाती है.
पाकिस्तान के लिए यह इलाका बहुत मायने रखता है. भौगोलिक दृष्टि से देखें तो इस्लामाबाद से अंतर्राष्ट्रीय सीमा मात्र 50 किलोमीटर दूर है. यानी यह डर हमेशा बना रहता है कि किसी सैन्य हमले में यह इलाका जल्द ही घिर सकता है. इसके साथ ही यह पहाड़ी रास्ता पीर पंजाल रेंज के जरिए कश्मीर घाटी में दाखिल होना आसान बनाता है — यानी भूगोल ही एक बड़ा लालच है. इसके ऊपर इस इलाके की सामाजिक स्थिति भी आतंकियों को मदद करती है, क्योंकि एलओसी के आर-पार रिश्तेदारों के होने से उन्हें सुरक्षित रास्ता और पनाह दोनों मिल जाते हैं.
इसी वजह से कई आतंकियों को खास तौर पर यहां घुसपैठ कराई गई थी, ताकि एक तरह का “मुक्त इलाका” तैयार हो सके — जो उनके “तीसरे चरण के विद्रोह” के सपने की तैयारी थी. इस वक्त तक आतंकवादी गुटों ने एलओसी के करीब एक सुरक्षित ज़ोन बना लिया था, जहां वे आसानी से ठहर सकते थे और सुरक्षा पा सकते थे. जब यह इलाका स्थिर हो जाता, तो इसके बाद “मुख्य हैंडलर” — यानी पाकिस्तानी सेना — मैदान में उतरती. उन्हें तब एक सुरक्षित और आसानी से पहुंचने वाला ठिकाना मिल जाता, जहां से वह आगे का ऑपरेशन चला सकें.
1990 के दशक के आखिर से लेकर 2003 तक हिल काका इलाका ऐसा ही एक ठिकाना था, जब तक भारतीय सेना ने वहां से आतंकियों को बाहर नहीं कर दिया. यह जगह बेहद कठिन पहुंच वाली, घने जंगलों से घिरी घाटी है, जो सुरन नदी के ऊपर और राजौरी-पुंछ रोड़ पर बसे ऐतिहासिक गांव बफ्लियाज़ और सुरनकोट के पास स्थित है. यह जगह एलओसी और पीर पंजाल दोनों के करीब है, इसलिए यह आतंकवादी समूहों के लिए एकदम सही ठिकाना थी — जहां वे आगे बढ़ने से पहले आराम और वापिस से काम शुरू कर सकते थे, या फिर वहीं रहकर स्थानीय आबादी पर दबदबा बना सकते थे.
इस तरह यह पहाड़ी पर बना “बरगद का पेड़” बन गया — यानी फैलता हुआ ठिकाना. जब तक ऑपरेशन “सर्प विनाश” नहीं हुआ, जिसकी कमान लेफ्टिनेंट जनरल लिड्डर के हाथ में थी.
स्पेशल फोर्स के इस अनुभवी अधिकारी ने श्रीलंका में भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) के कार्यकाल के दौरान अपनी बटालियन की सफल अगुवाई की थी. वहां के नम और घने जंगलों में सीखी गई काउंटर-इंसर्जेंसी रणनीति को उन्होंने राजौरी-पुंछ की बर्फीली और पथरीली पहाड़ियों में लागू किया. इलाके बदल सकते हैं, लेकिन सैन्य सिद्धांत दुनिया भर में एक जैसे रहते हैं.
रोमियो फोर्स के जनरल ऑफिसर कमांडिंग के तौर पर, तब मेजर जनरल लिडर ने स्पेशल फोर्स पर पूरी तरह निर्भर रहने के बजाय पैदल सेना का ज्यादा इस्तेमाल किया. जम्मू-कश्मीर में उस समय वे पहले से ही बहुत सफल अभियान चला रहे थे. उन्होंने इस ऑपरेशन को पूरी तरह मैनपावर इंटेसिव बनाया — यानी बड़ी संख्या में सैनिकों को लगाया जो स्पेशल फोर्स के सामान्य सिद्धांतों के विपरीत था.
हिल काका के इलाके को धीरे-धीरे घेराबंदी करके साधारण पैदल सेना और राष्ट्रीय राइफल्स की एक बटालियन ने आतंकियों को जाल में फंसा लिया. लॉजिस्टिक्स, इंजीनियरिंग और एविएशन सपोर्ट ने इस अभियान का पूरा समीकरण बदल दिया — जो पहले कभी किसी ऑपरेशन में नहीं देखा गया था.
इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं कि जब कुछ साल पहले फिर से हमले बढ़ने लगे, तो कई लोगों ने “सर्प विनाश” जैसी एक और कार्रवाई की मांग की.
(मानवेन्द्र सिंह बीजेपी नेता हैं, डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट के एडिटर-इन-चीफ और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति के चेयरमैन हैं. उनका एक्स हैंडल @ManvendraJasol है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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