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Friday, 7 November, 2025
होममत-विमतसूडान साबित करता है कि जब दुनिया ख़ूनी शासकों पर लगाम नहीं लगाती, तो नतीजे कितने भयानक होते हैं

सूडान साबित करता है कि जब दुनिया ख़ूनी शासकों पर लगाम नहीं लगाती, तो नतीजे कितने भयानक होते हैं

चौदह मिलियन शरणार्थी, तथा 25 मिलियन लोग तीव्र भूखमरी का सामना कर रहे हैं, यह दुनिया के लिए सूडान में व्याप्त अराजकता को समाप्त करने के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए - भले ही इसके शासकों की क्रूरता पर्याप्त कारण न हो.

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नोद्रेदिन अहमद आइसा को वह पल याद आता है जब चाकू ने उसके हाथ-पैर को काटा था, जैसे पिघला लावा उसकी नसों से होकर दिल तक पहुंच गया हो. फिर उसने देखा कि एक जेल गार्ड उसकी कटी हुई दाहिनी बांह और बाईं टांग को भीड़ के सामने लहराते हुए दिखा रहा था, जो तालियां बजा रही थी. यह क्रूर सज़ाएं 1983 की सर्दियों में शुरू हुईं, जब सूडान में शरीया कानून लागू किया गया. हज़ारों शराब की बोतलें नील नदी में उड़ेल दी गईं. महिलाओं को विवाह से बाहर संबंध के शक में पत्थर मारकर मार दिया गया. लैंगिक अलगाव को बेरहमी से लागू किया गया. एक भारतीय व्यवसायी, ललित रतनलाल शाह, को सूदखोरी यानी रिबा के आरोप में अपनी संपत्ति गंवानी पड़ी.

रिपोर्टों के अनुसार दिसंबर 1984 में यह दहशत खत्म होने से पहले तीन सौ पुरुषों के एक या अधिक अंग काट दिए गए. उनकी बांहें और टांगे विशेष रूप से मंगाए गए चाकुओं से काटी गईं, और इसके लिए सऊदी अरब में अंग विच्छेदन तकनीक का प्रशिक्षण लेकर आए एक डॉक्टर की सलाह ली गई.

चार दशक बाद, धार्मिक और जातीय दरारों से बिखरे सूडान पर इस्लामी राष्ट्रीय पहचान थोपने के उस भयावह समय के बाद, देश का विभाजन हो चुका है. अधिकांश ईसाई आबादी वाला दक्षिण अलग हो गया है. लेकिन नफ़रत की भूख अब भी शांत नहीं हुई है. इस बार, 2023 से चल रही गृहयुद्ध में सूडान के मुस्लिम समुदायों को ही निशाना बनाया जा रहा है, जिसमें दसियों हज़ार लोग मारे जा चुके हैं.

पिछले हफ्ते, रैपिड सपोर्ट फ़ोर्सेस (RSF) के विद्रोहियों ने पश्चिमी दारफुर क्षेत्र के अल-फ़ाशिर शहर पर कब्ज़ा कर लिया और सामूहिक हत्याएं, बलात्कार और अमानवीय यातना की. यहां तक कि प्रसूति वार्ड (मैटरनिटी वॉर्ड) में भर्ती मरीजों को भी मार डाला गया.

यह नरसंहार एक डरावनी झलक देता है कि दुनिया कैसी दिखती है जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय और वैश्विक संस्थाएं जनसंहार करने वालों को राज करने देती हैं. अल-फ़ाशिर में हुई हत्या-ज्यादती के लिए ज़िम्मेदार समूह को व्यापक रूप से संयुक्त अरब अमीरात द्वारा हथियार और धन उपलब्ध कराया जाना माना जाता है, ताकि मुस्लिम ब्रदरहुड को खार्तूम में सत्ता में आने से रोका जा सके. दूसरी ओर, सूडानी सशस्त्र बलों (SAF) को सऊदी अरब और क़तर दोनों का समर्थन मिला है.

एक देश का बिखरना

कई उपनिवेश-उत्तर देशों की तरह, जैसा कि विद्वान अली बॉब ने लिखा है, सूडान को राष्ट्र बनने से पहले ही राष्ट्र-राज्य की पहचान मिल गई थी.

लंबे समय तक बहु-जातीय और बहु-धार्मिक समुदायों का एक मिश्रित स्थल रहे उत्तरी सूडान के इलाकों को 1820-1821 में उस्मानी मिस्र ने जीत लिया था. लेकिन मिस्र कभी भी सूडान के दक्षिणी हिस्सों पर पूरी राजनीतिक पकड़ नहीं बना सका. उधर, उन्नीसवीं सदी के अंत में केन्या से आए अंग्रेज़ मिशनरी दक्षिण में और सक्रिय होते गए. 1885 में, इस्लामी धार्मिक नेता मुहम्मद अहमद ने मिस्र के शासन को उखाड़ फेंका और केंद्रीय व पश्चिमी सूडान को एकजुट किया.

1898 से, आधुनिक सूडान के सभी क्षेत्रों पर ब्रिटिश साम्राज्य का नियंत्रण हो गया. देश का नाम भी मध्यकालीन अरब भूगोलविदों से लिया गया था, जो इस क्षेत्र को “काले लोगों की भूमि” कहते थे. इतिहासकार गेरार्ड प्रूनियर के अनुसार, ब्रिटिशों ने सूडान के आधुनिकीकरण पर बहुत कम खर्च किया, और जो कुछ भी खर्च हुआ वह मुख्यतः ख़ार्तूम और ब्लू नाइल प्रांत की कुछ जनजातियों पर हुआ.

यह नया औपनिवेशिक उपनिवेश सरल वर्गीकरण में फिट नहीं बैठता था. दारफुर की जनजातियों को अक्सर नस्लीय रूप से “ब्लैक अफ्रीकन” और अन्य को “अरब” माना जाता है, लेकिन प्रुनियर के अनुसार इन लेबलों के बीच कोई स्पष्ट नस्लीय फर्क नहीं है. इसी तरह, दक्षिण का मुख्यतः ईसाई इलाका अपनी उत्तरी इस्लामी आबादी के साथ भाषा और संस्कृति के कई तत्व साझा करता था.

1955 में स्वतंत्रता मिलने के बाद, सूडान ने एक ऐसा संविधान बनाया जो इस्लाम को ईसाई और आदिवासी (एनिमिस्टिक) परंपराओं के साथ संतुलित करने की कोशिश करता था. लेकिन देश के अभिजात्य वर्ग ने जल्द ही दक्षिण की आकांक्षाओं को इस्लाम के ज़रिए दबाना शुरू कर दिया. राज्य-प्रायोजित इस्लामीकरण की इस प्रक्रिया ने विद्रोह को जन्म दिया.

उत्तरी नेतृत्व झुकने को तैयार नहीं था. मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता हसन अल-तुराबी ने घोषणा की कि “दक्षिण की कोई संस्कृति नहीं है. इसलिए, इस खालीपन को अनिवार्य रूप से इस्लामी पुनरुत्थान के तहत अरबी संस्कृति ही भरेगी.”

1969 के एक सैन्य तख्तापलट के बाद, सैन्य शासक गफ़र मुहम्मद अल-निमेरी ने दक्षिण के साथ व्यावहारिक समझौता करने की कोशिश की. 1972 में दक्षिणी विद्रोहियों के साथ हुए समझौते में धर्म और रीति-रिवाजों का सम्मान करने का वादा किया गया. लेकिन आर्थिक संकट और अधिक स्वायत्तता की मांग के बीच, अल-निमेरी ने खुद को “इमाम” घोषित कर दिया — यानी सूडान का धार्मिक शासक. उनका दावा था कि इस उपाधि से उन्हें पूर्ण आज्ञाकारिता का अधिकार है.

मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन पाने और सऊदी अरब का संरक्षण हासिल करने के लिए, अल-निमेरी ने सूडान को इस्लामी राज्य घोषित कर दिया. शरीया दंड केवल एक व्यापक कार्यक्रम का हिस्सा था, जिसने सूडान को भीतर से खोखला कर दिया. इसमें आयकर समाप्त करना और ब्याज पर प्रतिबंध लगाना भी शामिल था. इसके बाद आई गंभीर आर्थिक संकट ने 1985 में एक और तख्तापलट को जन्म दिया और अल-निमैरी को सत्ता से हटा दिया गया. चार साल की असफल लोकतांत्रिक कोशिशों के बाद, 1989 में ब्रिगेडियर ओमर अल-बशीर ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया.

अन्य धर्मतांत्रिक राज्यों की तरह, सूडान की यह भयावह स्थिति समय के साथ और भी विचित्र होती गई. 2012 में, नौ महिलाओं को सिर्फ़ पैंट पहनने के लिए सार्वजनिक रूप से कोड़े मारने की सज़ा सुनाई गई.

भूमि, आस्था और आतंक

हालांकि अल-बशीर ने 2011 में तेल-समृद्ध दक्षिण सूडान की स्वतंत्रता वाले जनमत संग्रह को मंजूरी दी, लेकिन उन्होंने अपने पूर्व शासकों द्वारा स्थापित इस्लामी राज्य को और मजबूत करना जारी रखा. तख्तापलट के बाद, अल-बशीर एक हाथ में कलाश्निकोव राइफल और दूसरे हाथ में कुरान लेकर सार्वजनिक रूप से दिखाई दिए और यह वादा किया कि वह “लोगों और सेना के दुश्मनों को खत्म कर देंगे.” उन्होंने अल-तुराबी के साथ मिलकर कठोर सज़ाएं फिर लागू कर दीं. 1999 में, न्याला शहर की अदालतों ने 18 लोगों को फांसी, दाहिने हाथ और बाएं पैर की काट-छांट, और सूली पर चढ़ाने की सज़ा सुनाई गई थी.

अल-बशीर के शासन ने अल-कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को शरण दी. अल-कायदा ने सूडान में अपने ठिकानों का इस्तेमाल मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक की हत्या की कोशिश और विश्व व्यापार केंद्र पर आतंकी हमलों में समर्थन देने के लिए किया. हालांकि सूडान ने 1996 में बिन लादेन को निष्कासित कर दिया था, लेकिन आतंकवाद के लिए अल-बशीर के समर्थन से नाराज़ अमेरिका ने दो साल बाद सूडान पर बमबारी की.

इस बीच, दारफुर में लड़ाई भड़क उठी — यह साबित करता हुआ कि धर्म पूरे देश को एकजुट करने के लिए पर्याप्त नहीं था. 1970 के दशक से, रज़ैगात, हब्बानिया और बेनी हल्बा जैसी घुमंतू जनजातियों के लोग — जो खुद को “अरब” पहचानते हैं — सूखे से बचने के लिए दक्षिणी दारफुर में बस गए थे. 1980 के मध्य से, इन जनजातियों के सदस्यों को दक्षिण सूडान के अलगाववादियों के खिलाफ लड़ाई में मिलिशिया के रूप में भर्ती किया गया. हथियारबंद और संगठित होने के बाद, इन मिलिशियाओं ने स्थानीय ब्लैक अफ्रीकन जनजातियों, जैसे फुर और ज़घरावा, की ज़मीनों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया.

हिंसा और बढ़ गई. कुख्यात जनजावीद मिलिशिया — यानी “दुष्ट घुड़सवार” — ने दारफुर में अपने प्रतिद्वंद्वियों की बेरहमी से हत्या करना और बलात्कार करना शुरू कर दिया. 2013 में, दारफुर में जन्मे “अरब” नेता मोहम्मद हामदान दागलो (हेमदती) के नेतृत्व में आरएसएफ (RSF) जनजावीद से ही उभरा. एक जनविद्रोह ने 2019 में अल-बशीर को सत्ता से बाहर कर दिया. फिर 2021 में, दागलो ने एसएएफ (SAF) के अब्देल फतह अल-बुर्हान के साथ मिलकर एक और तख्तापलट किया.

चेहरे बदल गए, लेकिन हालात नहीं. दो साल पहले, 20 वर्षीय मरियम तिराब SAF-RSF शासन के तहत ज़िना (व्यभिचार) के आरोप में पत्थर मारकर मौत की सज़ा पाने वाली पहली महिला बनी.

अंतिम कार्य नहीं

हालांकि अल-बशीर अंततः जेल में पहुंचे, मगर प्रुनीय के अनुसार खार्तूम का “नरसंहार प्रबंधन” सफल साबित हुआ. 9/11 के बाद, सीआईए और एमआई6 ने सूडान की सीक्रेट सर्विस के साथ चुपचाप आतंकवाद-रोधी सहयोग शुरू किया. बाद में, सूडान की सेना ने यमन में सऊदी अरब के साथ लड़ने के लिए 1,000 से अधिक सैनिक भेजे, जिससे उन्हें सऊदी शासन की कृपा मिली. खार्तूम ने संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों को दारफुर में तैनात होने से रोकने में सफलता पाई और केवल अफ्रीकी संघ के सैनिकों को जमीन पर काम करने की अनुमति दी.

अल-बशीर को सत्ता से हटाए जाने के बाद, संयुक्त राष्ट्र-अफ्रीकी संघ मिशन समाप्त हो गया — और दारफुर तथा पूरा सूडान पहले की तरह ही अव्यवस्थित रह गया. आपातकालीन राहत और पुनर्निर्माण के लिए धन की भारी कमी है. लेकिन आरएसएफ और एसएएफ लगातार और भी घातक हथियार हासिल कर रहे हैं.

हिंसा रोकने के लिए कूटनीतिक प्रयासों में शामिल चार देशों — अमेरिका, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र — ने युद्धविराम के लिए दबाव बनाया है. लेकिन कोई संकेत नहीं है कि यूएई या सऊदी अरब अपने-अपने पक्षकारों को छोड़ने के लिए तैयार हैं. अल-फ़ाशिर का पतन इस प्रक्रिया को और जटिल कर रहा है और सूडान के एक तरह के वास्तविक बंटवारे की नींव रख रहा है.

1.4 करोड़ शरणार्थी और 2.5 करोड़ लोग जो भुखमरी की कगार पर हैं — यह दुनिया के लिए सूडान की इस भयावह स्थिति को समाप्त करने के लिए काफी होना चाहिए, भले ही उसके शासकों की क्रूरता न हो. लेकिन अल-फ़ाशिर ने यह कड़वा सबक दे दिया है कि दुनिया को कार्रवाई करने के लिए कोई भी पीड़ा पर्याप्त नहीं है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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