भारत में तरक्की और तकलीफ अक्सर एक ही पटरी पर चलती हैं.
अक्टूबर की शुरुआत में कर्नाटक कैबिनेट ने ‘कर्नाटक मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी 2025’ को मंज़ूरी दी — जिसके तहत सरकारी और निजी क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को हर महीने एक दिन का पेड लीव मिलेगी. यह ऐतिहासिक फैसला 50 लाख से ज्यादा महिलाओं पर असर डालेगा.
लेकिन दो हफ्ते बाद, हरियाणा के रोहतक स्थित महार्षि दयानंद यूनिवर्सिटी में दो महिला सफाईकर्मियों को उनके पुरुष सुपरवाइज़र ने यह साबित करने के लिए कि उनके पीरियड्स चल रहे हैं या नहीं इसके लिए अपने सैनिटरी पैड्स की तस्वीरें खींचने को मजबूर किया.
कर्नाटक की पॉलिसी एक बड़ी पहल है, जिसे मील का पत्थर कहा जा सकता था — अगर हम बार-बार दो कदम पीछे न लौटते.
कर्नाटक अब उन कुछ भारतीय राज्यों की सूची में शामिल हो गया है जो ‘मासिक धर्म स्वास्थ्य’ को वर्कप्लेस के अधिकार के रूप में मान्यता देते हैं. 1992 में बिहार ने सबसे पहले सरकारी कर्मचारियों के लिए महीने में दो दिन की पेड मेंस्ट्रुअल लीव दी थी — यह फैसला लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री कार्यकाल में एक जैसी सैलरी की डिमांड को लेकर हुए आंदोलन के समाधान के दौरान लिया गया था. यह पॉलिसी अब तीन दशक से जारी है.
ओडिशा ने 2024 में इसी तरह की व्यवस्था शुरू की, जिसमें 55 साल से कम उम्र की सरकारी महिला कर्मचारियों को यह सुविधा दी गई. केरल में राज्य की यूनिवर्सिटीज़ और आईटीआई की महिला छात्रों और कर्मचारियों को पीरियड लीव मिलती है. वहीं चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी उत्तर भारत की पहली यूनिवर्सिटी बनी जिसने छात्राओं को मासिक धर्म अवकाश देने की पहल की.
दुनिया के कई देशों में यह पुरानी अवधारणा है — जापान ने 1947 में ही कानूनी पीरियड लीव शुरू की थी. इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, ताइवान और ज़ाम्बिया में भी इसके अलग-अलग फॉर्मेट्स हैं. वहीं स्पेन यूरोप का पहला देश बना जिसने इसे औपचारिक रूप से लागू किया — डॉक्टर की सलाह पर तीन से पांच दिन की छुट्टी के रूप में.
हरियाणा ने हकीकत उजागर की
इस संदर्भ में, कर्नाटक का फैसला यह स्वीकार करता है कि मासिक धर्म स्वास्थ्य कोई “महिला मुद्दा” नहीं, बल्कि वर्कप्लेस की असल चिंता है. हालांकि, इस नीति की सीमाएं भी हैं — सबसे बड़ी यह कि कितनी महिलाएं इससे बाहर रह जाएंगी.
भारत की ज़्यादातर गारमेंट वर्कर्स को तो बीमारी की छुट्टी भी बिना वेतन कटे नहीं मिलती. कुल मिलाकर, 81 प्रतिशत भारतीय महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं — खेतों में, घरों में, दिहाड़ी मजदूर के रूप में या सफाईकर्मी के तौर पर — जिनके लिए “पीरियड लीव” अब भी एक सपना है. इसके बावजूद, कर्नाटक ने इस मुद्दे को “विशेष छूट” से आगे बढ़ाकर “श्रमिक अधिकार” की श्रेणी में रखा है. यह इस समझ पर आधारित है कि शरीर की सीमाएं होती हैं, महिलाओं का दर्द वास्तविक होता है और पुरुष-प्रधान वर्कप्लेस को अब आधी आबादी की जैविक ज़रूरतों के अनुरूप ढलना होगा.
यही वजह है कि एमडीयू, रोहतक में हुआ यह प्रकरण और भी घिनौना लगता है.
26 अक्टूबर को यूनिवर्सिटी में हरियाणा के राज्यपाल के दौरे से पहले तीन महिला सफाईकर्मी खेल परिसर की सफाई कर रही थीं. उनके पुरुष सुपरवाइज़रों ने उन्हें तेज़ी से काम करने को कहा. जब महिलाओं ने बताया कि वे मासिक धर्म दर्द से गुजर रही हैं, तो सुपरवाइज़रों ने उन्हें वॉशरूम जाकर अपने गंदे पैड की तस्वीरें लेने के लिए मजबूर किया.
इसके बाद दोनों सुपरवाइज़र और असिस्टेंट रजिस्ट्रार के खिलाफ यौन उत्पीड़न, अश्लीलता, महिला की शील भंग करने और धमकी देने जैसी धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज हुई है. दोनों को सस्पेंड कर दिया गया है और यूनिवर्सिटी ने आंतरिक जांच का वादा किया है.
लेकिन यहां कानून या प्रक्रिया सवाल पर नहीं हैं. सवाल है उस सोच का, जो यह तय करती है कि किस वर्ग या शरीर पर भरोसा किया जाए और किसे बुनियादी इज़्ज़त भी न दी जाए.
2020 में, जब जोमैटो ने अपने कर्मचारियों के लिए सालाना 10 दिन की पीरियड लीव की घोषणा की, तो सीईओ दीपिंदर गोयल ने एक मेमो में लिखा था — “अगर हमारी महिला सहकर्मी कहें कि वे पीरियड लीव पर हैं, तो हमें अनकम्फर्टेबल नहीं होना चाहिए. यह लाइफ का पार्ट है. हमें उनकी बात पर भरोसा करना होगा. हमें नहीं पता कि वे कितने दर्द से गुज़रती हैं, लेकिन हमें उनका साथ देना होगा, अगर हमें एक सचमुच सहयोगी माहौल बनाना है.”
सोचिए, एमडीयू की सफाईकर्मी महिलाओं ने अगर यह मेमो पढ़ा होता, तो उन्हें यह सब कितना खोखला और अजीब लगता.
जोमैटो के गुरुग्राम ऑफिस और एमडीयू रोहतक के बीच की दूरी सिर्फ दो घंटे की सड़क यात्रा है — पर उनकी सोच, संवेदना और हकीकत के बीच की खाई शायद कभी नहीं भर पाएगी.
किसी महिला से उसके पैड की तस्वीर खिंचवाना सिर्फ अमानवीय नहीं, बल्कि पूरे समाज की बीमार मानसिकता की तस्वीर है.
धर्म के पर्दे में छिपा भेदभाव
एमडीयू की यह घटना कोई अपवाद नहीं है. लड़कियों और महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान अपमानित करना पुराना पैटर्न है.
कुछ महीने पहले ठाणे के एक सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में पांचवी से दसवीं तक की नाबालिग लड़कियों की “पीरियड जांच” करवाई गई, क्योंकि बाथरूम में खून के दाग मिले थे. प्रिंसिपल और एक महिला अटेंडेंट ने बच्चियों को कपड़े उतारने को मजबूर किया, ताकि पता लगाया जा सके कि कौन मासिक धर्म में है. उनका मकसद था “प्रदूषण” के स्रोत को खोजना. दोनों के खिलाफ POCSO एक्ट के तहत मामला दर्ज हुआ और गिरफ्तारी हुई.
सबसे डरावना मामला भुज का है. साल 2020 में गुजरात के श्री सहजानंद गर्ल्स इंस्टिट्यूट—जो स्वामीनारायण मंदिर से जुड़ा एक कॉलेज है—में 68 छात्राओं को अंडरगारमेंट्स उतारने पर मजबूर किया गया ताकि यह पता चल सके कि कौन-सी छात्राएं पीरियड्स में हैं. शक था कि मासिक धर्म के दौरान कुछ लड़कियां मंदिर और डाइनिंग हॉल में चली गई थीं, जिससे “धार्मिक पवित्रता” भंग हुई. एफआईआर के बाद प्रिंसिपल, हॉस्टल कोऑर्डिनेटर और एक चपरासी को गिरफ्तार किया गया.
उस वक्त छात्राओं के माता-पिता ने जमकर विरोध किया, लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि कॉलेज में बने वो “नियम” ही क्यों हैं, जिनके तहत मासिक धर्म के दौरान लड़कियों को बेसमेंट के “पीरियड रूम” में रहना पड़ता था, रसोई या मंदिर में जाना और किसी को छूना मना था.
टीवी डिबेट में हिंदू महासभा के अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि ने एक महिला एंकर और एक महिला एक्टिविस्ट को डांटते हुए इस मध्ययुगीन पाबंदी को “सुविधा” बताने की कोशिश की—जैसे यह महिलाओं की भलाई के लिए हो. कुछ दिन बाद, मंदिर से जुड़े एक धार्मिक नेता कृष्णस्वरूप दासजी ने बयान दिया कि जो महिलाएं पीरियड्स के दौरान अपने पति के लिए खाना बनाती हैं, वे अगले जन्म में कुतिया बनेंगी और वह पुरुष जो वह खाना खाते हैं, वे बैल के रूप में जन्म लेंगे.
जब लगा था, बदलाव आ रहा है
यह सब पढ़कर लगता है जैसे यह बातचीत 2018 की हो. वह साल, जब लगा था कि हम आखिरकार आगे बढ़ रहे हैं. उसी साल Period. End of Sentence को ऑस्कर मिला था — बेस्ट डॉक्युमेंट्री (शॉर्ट) कैटेगरी में. उसी साल अक्षय कुमार की फिल्म PadMan रिलीज़ हुई थी, जिसने सरकार की योजनाओं को लोकप्रिय बनाया. महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने #YesIBleed अभियान शुरू किया, जिससे महिलाओं को अपने पीरियड्स पर खुलकर बात करने के लिए प्रेरित किया गया.
28 मई को Menstrual Hygiene Day मनाया गया, थीम थी #NoMoreLimits — यानी अब कोई सीमा नहीं. सरकार ने जन औषधि सुविधा सेनेटरी नैपकिन योजना लॉन्च की, ताकि कम दामों पर पर्यावरण-अनुकूल पैड्स मिल सकें. संसद में Menstruation Benefits Bill पेश हुआ.
और फिर सितंबर में आया ऐतिहासिक सबरीमाला फैसला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से रोकना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. यह फैसला एक आधुनिक गणराज्य में “पवित्रता” आधारित भेदभाव को खारिज करता था.
वो वक्त सच्चे बदलाव का लग रहा था. हम “पीरियड पावर्टी”, प्रोडक्ट्स की पहुंच और सुरक्षित जगहों की बात कर रहे थे. पीरियड्स को शर्म या पागलपन नहीं, बल्कि स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा मानने लगे थे. ऐसा लग रहा था कि विषय अब खुलकर सामने आ गया है—न अब खामोशी, न झूठी मुस्कान वाले टीवी ऐड्स.
लेकिन सात साल बाद…2018 की उम्मीद अब एक थकी हुई सच्चाई में बदल चुकी है कि किसी नीति को लागू करना आसान है, लेकिन सोच बदलना बेहद मुश्किल.
कर्नाटक की मासिक धर्म अवकाश नीति तारीफ के काबिल है, लेकिन यह उसी देश में लागू है जहां पीरियड्स में महिलाओं को कपड़े उतरवाकर अपमानित किया जा सकता है, बिना किसी झिझक के.
भारत में हम “मासिक धर्म अवकाश” पर एक नहीं, दो बिल्कुल अलग बातचीत कर रहे हैं — एक, वर्कप्लेस पर महिलाओं के अधिकारों पर और दूसरी, इस पर कि क्या मासिक धर्म “प्रदूषण” है, क्या महिलाओं के शरीर समाज की संपत्ति हैं, और क्या हमें उन पर विश्वास करना चाहिए.
एक भारत उन्हें पीरियड लीव देता है, दूसरा उनसे सबूत मांगता है कि वे इसके लायक हैं. तरक्की और तकलीफ — एक ही पटरी पर चल रहे हैं. काश, ये दोनों इतनी बार टकराते नहीं.
(करनजीत कौर पत्रकार हैं. वे TWO Design में पार्टनर हैं. उनका एक्स हैंडल @Kaju_Katri है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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