आइए, नगालैंड की कहानी की शुरुआत मैं अपने बैचमेट, दिवंगत एल.वी. रेड्डी को श्रद्धांजलि देकर करता हूं. 1995 में, अपनी सर्विस के 10वें साल में , वे कोहिमा के डिप्टी कमिश्नर थे, जब नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के खापलांग गुट ने उनके कैंप ऑफिस में गोली मार दी थी. जब राजधानी के डिप्टी कमिश्नर को ऑफिस टाइम में ही मार दिया गया, तो भला राज्य में कोई सुरक्षित कैसे हो सकता था?
अब, जब राज्य ने 91-वर्षीय नगा विद्रोही नेता थुइंगलेंग मुइवाह को अपने गांव लौटने की अनुमति दे दी है, तो यह साफ है कि नगालैंड अब विकास के एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है.
लेकिन 1990 के दशक में हालात बिल्कुल अलग थे. तब यह राज्य लगभग “गायब होने” की स्थिति में था. मैंने यह सब खुद देखा—1996 में जब मैं कोहिमा और मोकोकचुंग गया था, जहां सिविल सर्विस प्रोबेशनर्स की ट्रेनिंग चल रहा था और फिर 1998 में जब मैं फेक जिले में चुनाव पर्यवेक्षक के रूप में पहुंचा था.
मैंने अपनी आंखों से देखा कि अंडरग्राउंड (यूजी) समूहों का लोगों पर कितना जबरदस्त “कंट्रोल” था. कोहिमा, दीमापुर, फेक और मोकोकचुंग में लोग सूरज ढलने से पहले ही दुकानें बंद कर देते थे. सरकारी कर्मचारियों के चेहरों पर भी डर साफ झलकता था. चुनाव बहिष्कार का आह्वान हर ओर सुनाई देता था.
चुनावी ड्यूटी पर लगी नई-नई मारुति जिप्सियां दीमापुर से कोहिमा जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर गड्ढों और धूल से बुरी तरह हिल जाती थीं. अंडरग्राउंड संगठन एक समानांतर शासन चलाते थे—वो हर कारोबार, सरकारी कर्मचारी और ठेकेदार से “टैक्स” वसूलते थे. कोहिमा और दीमापुर में जिन पत्रकारों से मैंने बात की, उनका कहना था कि सरकार और इन यूजी संगठनों के बीच एक “अनकहा समझौता” था.
1997 में इसाक-मुइवाह गुट के साथ स्वराज कौशल द्वारा कराई गई संधि ने दोनों पक्षों को एक तरह से “स्पेस” दे दिया. तय हुआ कि किन घटनाओं को रोका जाएगा और किन्हें अनुमति दी जाएगी. इसी कारण बैलेट बॉक्स भेजने या चुनाव पर्यवेक्षकों के आने-जाने में कोई बाधा नहीं हुई.
कुछ शहरी सीटों को छोड़ दें तो चुनाव प्रचार का माहौल लगभग गायब था. फिर भी, जो कुछ बहादुर लोग वोट डालने पहुंचे, उन्हें शारीरिक रूप से रोकने की कोशिश नहीं की गई.
टर्निंग प्वाईंट
जब पूर्व केंद्रीय मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस और पूर्व गृह सचिव के. पद्मनाभैया नगा उग्रवादियों से बातचीत में लगे हुए थे, उसी दौरान 2001 में उत्तर-पूर्वी क्षेत्र विकास विभाग (DoNER) की स्थापना हुई—पहले एक विभाग के रूप में और 2004 में एक मंत्रालय के रूप में. यही वह पल था, जिसने नागालैंड और पूरे उत्तर-पूर्व की कहानी को बदल दिया.
सभी राजनीतिक दलों में यह सहमति बनने लगी कि उत्तर-पूर्व केवल “कानून-व्यवस्था” या “सुरक्षा” का मुद्दा नहीं है, जिसे सिर्फ गृह मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय की नज़र से देखा जाए, बल्कि यह एक ऐसा इलाका है जिसकी विकास संबंधी ज़रूरतें बाकी देश से अलग हैं.
यह माना गया कि जब किसी राज्य में स्वास्थ्य, शिक्षा और खेती में निवेश होता है, जब सड़कें बनती हैं, गलियां रोशनी से जगमगाती हैं, जब बाज़ार देर रात तक खुले रहते हैं और युवा लड़के-लड़कियां कॉफी शॉप और पार्कों में गिटार बजाते हैं, तब समाज की सोच और माहौल बदलना शुरू हो जाता है.
मैं एक ऐसे प्रोजेक्ट से शुरुआत करना चाहूंगा जिससे मेरा खुद का जुड़ाव रहा है—उत्तर-पूर्व और हिमालयी राज्यों के लिए बागवानी मिशन (HMNEH). बाद में इसे मिशन फॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर (MIDH) में मिला दिया गया.
HMNEH का उद्देश्य उत्तर-पूर्व के उच्च मूल्य वाली कृषि की क्षमता को पहचानना और उसे विकसित करना था. और यह क्षमता वाकई अद्भुत थी— अरुणाचल प्रदेश में कीवी, नगालैंड और त्रिपुरा में अनानास, मणिपुर और मेघालय में मैंडरिन ऑरेंज, मिजोरम में अदरक और तेजपुर में लीची. इसके अलावा केले, पैशन फ्रूट और तरह-तरह की सब्जियों की भी खेती यहां खूब होती है.
अगर नगालैंड की बात करें, तो उत्तर-पूर्व क्षेत्रीय कृषि विपणन निगम (NERAMC) ने चार उत्पादों को जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक पहचान) दिलाने में अहम भूमिका निभाई— इनमें नगा मिर्च (नगा किंग चिली) – दुनिया की सबसे तीखी मिर्च, जिसकी खुशबू और स्वाद अनोखा है. नगा ट्री टोमैटो – एक विशिष्ट टमाटर की प्रजाति, जो पारंपरिक खेती पद्धतियों से विकसित हुई. नगा खीरा – पूरी तरह जैविक रूप से उगाया जाता है, इसमें पानी की मात्रा बहुत अधिक होती है. चाखेसांग शॉल – अपनी सुंदर डिजाइन और बुनाई कला के लिए प्रसिद्ध. इन उत्पादों ने नगालैंड के लोगों में गौरव और अपनी पहचान की नई भावना जगाई—एक ऐसी पहचान, जो उन्हें “नगा” कहलाने पर गर्व महसूस कराती है.
सांस्कृतिक पुनर्जागरण
लेकिन नगालैंड में जो असली बदलाव आया है, वह सिर्फ विकास योजनाओं से नहीं, बल्कि मार्केटिंग, म्यूजिक फेस्टिवल्स और टूरिज्म से जुड़ाव की वजह से आया है—जब यहां के युवाओं को “गन” नहीं, बल्कि “गिटार” से पहचान मिलने लगी.
उदाहरण के तौर पर लीजिए हॉर्नबिल फेस्टिवल का — यह नगालैंड की संस्कृति और परंपरा का दस दिन लंबा वार्षिक उत्सव है, जो हर साल 1 से 10 दिसंबर तक किसामा हेरिटेज विलेज में आयोजित होता है. पिछले साल इसमें दो लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे. राज्य सरकार द्वारा आयोजित इस महोत्सव में नगालैंड की सभी जनजातियां एक साथ आती हैं और अपनी बागवानी उपज, स्थानीय व्यंजन, परंपराएं, लोकनृत्य, पारंपरिक खेल, हथकरघा और हस्तशिल्प प्रदर्शित करती हैं.
इसी उत्सव में इस लेखक की मुलाकात चाखेसांग जनजाति की टेट्सेओ सिस्टर्स से हुई थी — ये वही बहनें हैं जो राज्यपाल के साथ अमेरिका के सद्भावना दौरे पर गई थीं और दुनिया भर के संगीत समारोहों में प्रस्तुति दे चुकी हैं. इन्होंने मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी (LBSNAA) में भी अफसर प्रशिक्षणार्थियों को अपने गीतों से मंत्रमुग्ध कर दिया था.
इसी तरह मणिपुर के उखरूल जिले (जहां टांगखुल समुदाय प्रमुख है) में होने वाला शिरुई लिली फेस्टिवल और तमेंगलोंग जिले (जहां जेलियांगरॉन्ग नागा समूह यानी रोंगमेई, लियांगमेई, जेमेई और पुमेई समुदाय रहते हैं) में आयोजित ऑरेंज फेस्टिवल, हर साल देशभर से हज़ारों पर्यटकों को आकर्षित करते हैं.
दरअसल, इस साल 20 से 24 मई के बीच हुए शिरुई लिली फेस्टिवल ने मणिपुर में लंबे समय से चली आ रही जातीय तनाव और अस्थिरता के बीच सामान्यता की वापसी का प्रतीक बनकर दिखाया. वहीं, तमेंगलोंग का ऑरेंज फेस्टिवल पिछले हफ्ते 30 अक्टूबर से 1 नवंबर तक आयोजित हुआ.
मैं जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि अब नगालैंड और नागा-बहुल जिलों में लोगों की सोच सिर्फ नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (NSCN) की विचारधारा तक सीमित नहीं रह गई है. राजनीतिक रूप से यह आंदोलन शायद अपनी प्रासंगिकता खो चुका है, भले ही सांस्कृतिक स्तर पर इसकी पहचान अब भी मजबूत है.
आज के युवा, पेशेवर, और इको-टूरिज्म, बागवानी और एग्री-स्टार्टअप्स से जुड़े उद्यमी, भारत के किसी भी हिस्से के युवाओं की तरह ही देश की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने को उतने ही उत्सुक हैं.
विद्रोही नेता
एक ओर जहां नगालैंड में सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक एकीकरण हो रहा था, वहीं दूसरी ओर सरकार ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के प्रमुख इसाक-मुइवा गुट (आईएम) से बातचीत जारी रखी. इसी सिलसिले में 3 अगस्त 2015 को एक ऐतिहासिक फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर हुए — यह समझौता इसाक चिशी स्वू और थुइंगलेंग मुइवा (NSCN-IM के नेता) तथा भारत सरकार के विशेष वार्ताकार एन. रवि (जो अब तमिलनाडु के राज्यपाल हैं) के बीच हुआ. इस समझौते का उद्देश्य नगा विद्रोह के स्थायी समाधान के लिए राजनीतिक वार्ता की बुनियाद तैयार करना था.
समझौते के समय दोनों विद्रोही नेता — स्वू और मुइवा — 80 साल से अधिक उम्र के और उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था. 2016 में जब इसाक चिशी स्वू का दिल्ली में मल्टी-ऑर्गन फेल्योर से निधन हुआ, तो एन. रवि ने सुनिश्चित किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भारत सरकार की ओर से श्रद्धांजलि देने और पुष्पचक्र अर्पित करने पहुंचें. ऐसे कदम प्रतीकात्मक ज़रूर होते हैं, परंतु ये वार्ता के माहौल को सकारात्मक दिशा में ले जाते हैं.
91-वर्षीय मुइवा का अपने गांव सोमदाल (उखरूल, मणिपुर) लौटना और राज्य सरकार द्वारा इस यात्रा को संरक्षण और सहयोग देना, इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
हालांकि, उनके भाषण में नगा संप्रभुता, संविधान और झंडे की वही पुरानी मांग दोहराई गई, जिसे भारत सरकार के लिए स्वीकार करना अब बेहद कठिन है, खासकर अनुच्छेद 370 के हटने (अगस्त 2019) के बाद.
फिर भी, मुइवा की वापसी इस बात की भावनात्मक याद भी दिलाती है कि “नगालिम” (एकीकृत नगा राष्ट्र) की स्थापना की दिशा में कोई ठोस उपलब्धि नहीं हुई. न तो मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश और न ही म्यांमार ने इस विचार के लिए अपनी भूमि छोड़ने की इच्छा जताई.
नगालैंड के कई नगा समुदाय — जैसे आओ, अंगामी, सेमा, कोन्याक और चाखेसांग ने मुइवा के अपने गृहनगर लौटने पर दिखाई गई खुशी में हिस्सा नहीं लिया. वहीं, जेलियांगरॉन्ग यूनाइटेड फ्रंट — जो जेमे, लियांगमेई और रोंगमेई नागाओं का प्रतिनिधित्व करता है उसने मुइवा से उन पर हुई कथित NSCN (IM) की हिंसाओं के लिए माफी की मांग की. उनका कहना था कि “जिस व्यक्ति ने नगाओं को हर मोर्चे पर विफल किया, उसे महिमामंडित करने का कोई कारण नहीं है” और वह “अपने मिशन की शुरुआत के दशकों बाद भी खाली हाथ लौटे हैं”.
उखरूल के लोगों के लिए मुइवा की मौजूदगी उस दौर की याद थी जिसने उनकी पहचान और पीड़ा दोनों को आकार दिया था. यह वापसी ऐसे समय में हुई है जब नई पीढ़ी की आकांक्षाएं बदल रही हैं — संप्रभुता से स्थिरता की ओर, विद्रोही राजनीति से सहभागी शासन और आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में.
(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स साहित्य महोत्सव के निदेशक हैं. हाल तक वे LBSNAA के निदेशक रहे हैं और लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल (एलबीएस म्यूज़ियम) के ट्रस्टी भी हैं. वे सेंटर फॉर कंटेम्पररी स्टडीज़, पीएमएमएल के सीनियर फेलो हैं. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.)
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