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Sunday, 2 November, 2025
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भारतीय किसान अब मधुमक्खियां किराए पर ले रहे हैं, पर खर्च बढ़ता जा रहा है

मधुमक्खियों की संख्या कम होने की वजह से कई राज्यों के किसान अब इन ज़रूरी पॉलिनेटर्स के लिए पैसे खर्च कर रहे हैं. वे छत्ते किराए पर ले रहे हैं, हाथों से पॉलिनेशन कर रहे हैं और अपनी खेती के तरीके भी बदल रहे हैं.

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नई दिल्ली: भारत में खेती का एक संकट उभर रहा है, जो खास तौर पर बिहार, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को प्रभावित कर रहा है. यह न बारिश से जुड़ा है, न खाद की कीमतों से, बल्कि परागण (पॉलिनेशन) की लागत से. मधुमक्खियों की संख्या घटने से किसान अब व्यावसायिक मधुमक्खी पालकों से छत्ते किराए पर ले रहे हैं. यह अतिरिक्त खर्च उनकी पहले से ही कम मुनाफे वाली आय पर भारी पड़ रहा है.

“हमारे इलाकों में मधुमक्खियों को पालतू बनाना संभव नहीं है. इसलिए स्थानीय स्तर पर मधुमक्खी पालन हमारे लिए विकल्प नहीं है,” लखनऊ के आम किसान, 59 वर्षीय लक्ष्मण राम मौर्य ने कहा. “यूपी के 17 आम उत्पादन क्षेत्रों को छोड़कर बाकी जगहों पर मधुमक्खी पालन हो रहा है, लेकिन इसकी लागत हर दिन बढ़ रही है. हमें पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों से छत्ते किराए पर लेने पड़ते हैं.”

छत्ते किराए पर लेने और उनकी देखभाल में सालाना 2 लाख रुपए तक खर्च हो सकता है, लेकिन अक्सर यही किसानों के पास एकमात्र उपाय होता है.

भारत की करीब 70 प्रतिशत फूलदार फसलें मधुमक्खियों पर निर्भर हैं. इनके बिना कम फूल फल में बदलते हैं, सब्जियों की पैदावार घटती है और किसानों की आजीविका प्रभावित होती है. 2021 में वन अर्थ नाम की पत्रिका में छपे एक अध्ययन के अनुसार, 2006 से 2015 के बीच मधुमक्खियों की प्रजातियों में लगभग 25 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई.

“जंगली मधुमक्खियों द्वारा पॉलिनेशन लाखों जंगली पौधों की प्रजातियों के प्रजनन के लिए जरूरी है और लगभग 85 प्रतिशत खाद्य फसलों की उपज सुनिश्चित करने की कुंजी है,” एडुआर्डो ई ज़त्तारा और मार्सेलो ए आइज़ेन द्वारा की गई  स्टडी में कहा गया.

यह मधुमक्खियों की विविधता का पहला दीर्घकालिक वैश्विक अध्ययन था, जिसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि पॉलिनेशन करने वालों में गिरावट कुछ क्षेत्रों तक सीमित है या दुनिया भर में हो रहा है.

भारतीय किसान भी इसे महसूस कर रहे हैं. वे अब कई उपाय अपना रहे हैं—मधुमक्खी पालन, हाथों से पॉलिनेशन करना और ऐसे फूल लगाना जो पॉलिनेशन करने वालों को आकर्षित करते हैं.

“कुछ किसान पर्याप्त पॉलिनेशन सुनिश्चित करने के लिए छत्ते किराए पर ले रहे हैं या खुद मधुमक्खियाँ पाल रहे हैं. कुछ एकीकृत कीट प्रबंधन तकनीक अपना रहे हैं, जिसमें कम या लक्षित कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है और फूल आने के समय छिड़काव से बचा जाता है ताकि पॉलिनेटर्स (पॉलिनेशन करने वाले) को नुकसान न हो,” जम्मू-कश्मीर के शोपियां के सेब किसान शीराज़ अहमद डार ने दिप्रिंट से कहा.

कुल मिलाकर, मधुमक्खियों की कमी से निपटना किसानों के लिए एक महंगा काम साबित हो रहा है.

पॉलिनेशन की उंची कीमतें

अब फसलों को उत्पादक बनाए रखने के लिए किसानों को मधुमक्खियों पर निवेश करना पड़ रहा है. छत्ते किराए पर लेना, कॉलोनियों की देखभाल करना और उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाना अब कई किसानों के खर्च की सूची का हिस्सा बन चुका है.

आम तौर पर भारत में मधुमक्खी पालन महंगा काम है. 50 कॉलोनी वाले एक एपियरी की स्थापना में लगभग 1.78 लाख रुपए उपकरण और ढांचे पर खर्च होते हैं, और करीब 1.34 लाख रुपए सालाना संचालन पर. मूल्यह्रास (डेप्रिसिएशन) और ब्याज जोड़ने पर कुल वार्षिक खर्च लगभग 1.69 लाख रुपए बैठता है.

समूह आधारित मधुमक्खी पालन में शुरुआती लागत लगभग 1.52 लाख रुपए होती है, लेकिन सालाना खर्च साझा प्रबंधन और परिवहन के कारण बढ़कर लगभग 2.33 लाख रुपए हो जाता है. कुल वार्षिक खर्च करीब 2.85 लाख रुपए तक पहुंच जाता है.

मधुमक्खियों को सीलबंद लकड़ी के बक्सों में रखकर ट्रकों में ले जाया जाता है. आमतौर पर रात के समय तापमान कम होने पर इन्हें ढोया जाता है ताकि मधुमक्खियां अपने छत्तों में रहें. खेतों तक पहुंचने पर मधुमक्खी पालक इन्हें स्थापित करते हैं.

“अत्यधिक कीटनाशक के प्रयोग से प्राकृतिक मधुमक्खियां लगभग खत्म हो गई हैं, जिससे मुनाफे में तेज गिरावट आई है. अतिरिक्त लागत के कारण लाभ कम से कम 10 प्रतिशत घट गया है,” लखनऊ के किसान लक्ष्मण राम ने कहा. उन्होंने बताया कि 50 कॉलोनी वाला एपियरी 1.7 लाख से 2.5 लाख रुपए में आता है, जबकि सरकारी सब्सिडी 40 प्रतिशत तक मिल सकती है.

छोटी इकाइयां लगाना सस्ता पड़ता है, लेकिन कमाई भी कम होती है. यूपी के मधुमक्खी पालक ओम प्रकाश मौर्य ने कहा कि 10 कॉलोनी का सेटअप 55,000 से 60,000 रुपए में बन जाता है. उन्होंने कहा कि छत्ता किराए पर लेने की लागत मधुमक्खियों की प्रजाति पर भी निर्भर करती है.

छोटे किसानों के लिए यह अतिरिक्त खर्च उनके लाभ और लंबे समय की टिकाऊ खेती दोनों को खतरे में डाल देता है. बिहार और हरियाणा के किसानों का भी यही कहना है. हर तरीका जेब पर असर डालता है. फसल पैटर्न बदलने से खाद और बीज पर खर्च बढ़ता है, हाथ से पॉलिनेशन में मजदूरी अधिक लगती है और कीटनाशक कम करने से उपज प्रभावित होती है.

“हर किसान मधुमक्खी पालन नहीं कर सकता,” बिहार लीची ग्रोअर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष 70 वर्षीय बच्चा प्रताप सिंह ने कहा. “हम अपने मुज़फ्फरपुर के खेत में हाथ से पॉलिनेशन पर निर्भर रहते हैं. फूलों से पराग इकट्ठा करके बॉक्स में रखा जाता है, जिससे मजदूरी लागत काफी बढ़ जाती है.”

एक फलदार बाग की सालाना देखभाल लागत लगभग 65,930 रुपए प्रति हेक्टेयर है, जिसमें से 30 प्रतिशत मजदूरी पर खर्च होता है.

भारत के किसानों की यह दिक्कत दुनिया भर में हो रही पॉलिनेशन कमी का हिस्सा है, जो केवल आजीविका ही नहीं, जीवन तक को प्रभावित कर रही है.

2022 में पर्यावरण स्वास्थ्य परिप्रेक्ष्य पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि वैश्विक स्तर पर अपर्याप्त पॉलिनेशन के कारण फलों, सब्जियों और मेवों के उत्पादन में 3-5 प्रतिशत की कमी आती है. इससे हर साल लगभग 4,27,000 अतिरिक्त मौतें होती हैं, क्योंकि पौष्टिक भोजन की उपलब्धता घटती है और उससे संबंधित बीमारियां बढ़ती हैं.

स्टडी में कहा गया कि खाद्य उत्पादन में कमी का असर कम आय वाले देशों में अधिक था, जबकि भोजन की खपत और मृत्यु दर पर असर मध्यम और उच्च आय वाले देशों में अधिक दिखाई दिया, जहां गैर-संचारी रोगों की दर अधिक है.

घटते पॉलिनेशन के साथ तालमेल बिठाना

मधुमक्खियों की कमी से निपटने के लिए कुछ किसान अपनी फसलें और खेती के तरीकों को बदल रहे हैं.

जम्मू–कश्मीर में कुछ सेब उत्पादकों ने अम्ब्री और रेड डिलीशियस किस्मों की जगह गाला किस्म उगानी शुरू की है, जो स्वयं पॉलिनेशन कर सकती है और कम मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है. यह जानकारी शोपियां के सेब किसान दार ने दी.

कुछ किसान इंटरक्रॉपिंग अपना रहे हैं—यानी सरसों जैसी फसलें साथ में लगाना, जो पॉलिनेटर्स को खेतों की ओर आकर्षित करती हैं. लेकिन हरियाणा में अब मधुमक्खियों की कमी के कारण सरसों उगाना और मुश्किल हो गया है. राज्य के 63 वर्षीय एक किसान, जो इंटरक्रॉपिंग अपनाते हैं, ने कहा कि मधुमक्खियों की संख्या घटने से सरसों की लागत पिछले दो–तीन वर्षों में प्रति हेक्टेयर कम से कम 10,000 रुपए बढ़ गई है.

फसल उत्पादन बनाए रखने के लिए वह सरसों के बीज ट्रकों से सैकड़ों किलोमीटर दूर तक ले जाकर उपयुक्त मिट्टी वाली जगहों पर बोते हैं.

उन्होंने कहा, “फसलों का यह मैनुअल माइग्रेशन बहुत मेहनत वाला काम है और कुशल मजदूरों की जरूरत होती है. सरसों जैसी तिलहनी फसलों में यह बेहद जरूरी है.” उन्होंने बताया कि फूल आने के दौरान बार–बार देखभाल जरूरी होती है और दूरी के हिसाब से परिवहन खर्च भी बदलता है.

लेकिन कम जागरूकता के कारण इन प्रयासों पर अत्यधिक कीटनाशक इस्तेमाल भारी पड़ता है. कुछ आम रसायन जो पॉलिनेटर्स, खासकर मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचाते हैं, वे हैं—नियोनिकोटिनोइड्स, फेंथियॉन, डायमेथोएट, मोनोक्रोटोफॉस, मालाथियॉन और मैन्कोज़ेब. अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के अनुसार, ये रसायन पराग और अमृत को प्रदूषित कर मधुमक्खियों की भोजन खोजने, रास्ता पहचानने और प्रजनन की क्षमता को बाधित कर सकते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की पूर्व कीट विज्ञान प्रमुख देबजानी डे ने बताया, “ज्यादातर किसान नहीं जानते कि कीटनाशक कब छिड़कना चाहिए. मधुमक्खियां दिन के कुछ ही समय सक्रिय रहती हैं, खासकर सुबह और शाम जब धूप कम होती है.”

उन्होंने बताया कि दुनिया में लगभग 20,000 प्रजातियों की मधुमक्खियां हैं और भारत में करीब 600 प्रजातियां पाई जाती हैं. भारत में पॉलिनेटर्स की संख्या पर कीटनाशक, मोनोकल्चर खेती और जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है.

भारत सरकार राष्ट्रीय मधुमक्खी एवं शहद मिशन (NBHM) जैसी योजनाओं के जरिए मधुमक्खी पालन और परागण संरक्षण को बढ़ावा देती है, लेकिन जंगली पॉलिनेटर्स पर व्यवस्थित डेटा उपलब्ध नहीं है.

हरियाणा के हिसार कृषि विज्ञान केंद्र में सहायक वैज्ञानिक मनोज कुमार जाट ने कहा, “फिलहाल इन छोटे कीटों के लिए ऐसी कोई नीति नहीं है. हालांकि, देश भर में 26 केंद्र हैं जहां हम किसानों को इन्हें पालतू बनाने का प्रशिक्षण देते हैं.”

इस बीच, खेतों और बागों में सन्नाटा बढ़ता जा रहा है, जबकि किसान फिर से गुनगुनाहट लौटाने की कोशिश कर रहे हैं.

दार ने कहा, “मैंने शुरुआती 2000 के दशक से जंगली मधुमक्खियों और अन्य कीटों में लगातार गिरावट देखी है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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