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Saturday, 23 November, 2024
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कश्मीर से 370 हटाकर आखिर क्या हासिल हुआ, जब कश्मीरी ही साथ न हुए

एकीकरण में कश्मीरी कहां हैं? क्या आज वे भारत के साथ पहले से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं, या उनमें अलगाव की भावना पहले से ज्यादा व्यापक और प्रबल हो गई है?

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संविधान के अनुच्छेद 370 को लगभग निरस्त किए जाने और जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों (एक जम्मू-कश्मीर और दूसरा लद्दाख) में बांटकर दोनों को केंद्र शासित क्षेत्र बनाए जाने के केंद्र के फैसले को दो माह हो गए हैं. इस बीच जो-कुछ हुआ उससे सहज ही यह सवाल उठता है कि आखिर क्या हुआ? क्या कश्मीर समस्या हल हो गई? क्या कश्मीर विवाद समाप्त हो गया? क्या कश्मीर को लेकर बनी रहने वाली अशांति से छुटकारा मिल गया?

दो महीने बाद का क्या है हासिल

पिछले दो माह की स्थितियों पर गौर करें तो इन सवालों के जवाब नकारात्मक हैं. यही नहीं, ये सवाल पहले से और विकट हो गए हैं. कश्मीर समस्या को बताने के लिए इतिहास की ढेर सारी परतें खोली जा सकती हैं. पर मूल रूप से समस्या यह थी कि कश्मीर घाटी की आबादी के एक हिस्से में अलगाव की भावना थी और वह रह-रह कर जाहिर भी होती रहती थी. समाधान तो तभी कहा जाता जब अलगाव की भावना समाप्त हो जाती या कम-से-कम इतनी क्षीण पड़ जाती कि उसकी कोई गूंज सुनाई न देती. इस तरह का समाधान संगीनों के बल पर नहीं, बल्कि घाटी के लोगों का भरोसा जीतने के उपायों और बातचीत से ही हो सकता था.


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इस दिशा में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत के स्वागत-योग्य नारे के साथ कुछ ठोस पहल हुई थी, पर उसकी निरंतरता नहीं बन पाई. मोदी सरकार ने तो वाजपेयी की उस विरासत को मिटाकर उससे उलटी दिशा में चलने को ही समाधान समझ लिया. दावा किया जा रहा है कि अनुच्छेद 370 को हटाने से देश के एकीकरण में रह गई कसर पूरी हो गई और इस लिहाज से यह बड़ा ऐतिहासिक काम हुआ है.

कश्मीरी कहां है

सवाल है इस एकीकरण में कश्मीरी कहां हैं? क्या आज वे भारत के साथ पहले से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं, या उनमें अलगाव की भावना पहले से ज्यादा व्यापक और प्रबल हो गई है? अगर कश्मीर का अर्थ सिर्फ कश्मीर की भूमि नहीं, वहां के लोग भी हैं, तो समाधान का दावा न सिर्फ खोखला बल्कि हास्यास्पद भी है.

इस तरह की समस्या का समाधान क्या होता है इसके दो उदाहरण राजीव गांधी के कार्यकाल से दिए जा सकते हैं. एक था पंजाब समझौता, और दूसरा मिजोरम समझौता. इन दोनों समझौतों के बाद, संबंधित राज्यों में अलगाव की आवाज उठनी बंद हो गई. वहां उग्रवाद का दौर भी समाप्त हो गया. अगर जम्मू-कश्मीर को लेकर ऐसा कुछ हुआ होता तभी उसे समाधान कहा जा सकता था. जो हुआ है वह तो उलटी दिशा में जाना है. एक तरफ कश्मीर घाटी में अलगाव की भावना चरम पर पहुंच गई दिखती है, और दूसरी तरफ, हमारी सरकार कितना भी यह दोहराए कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है, सच तो यह है कि कश्मीर विवाद अंतरराष्ट्रीय फलक पर आ गया है.

कश्मीर हमारा अभिन्न अंग

दो माह बाद भी घाटी के लोग तमाम बंदिशों में और दुनिया की सबसे सघन सैन्य तैनाती के बीच रह रहे हैं. क्या हम दुनिया को इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब दे सकते हैं कि कश्मीरी पराए नहीं अपने हैं, तो ये बंदिशें क्यों हैं? वे संगीनों के खौफनाक साए में रहने को क्यों मजबूर हैं? कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है, तो उस दुखते अंग के दर्द का अहसास बाकी शरीर को क्यों नहीं हो रहा? क्या इसी संवेदनहीनता से हम एकत्व को साधेंगे?


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इस तर्क का कोई औचित्य नहीं है कि सरकार ने जो किया उसके लिए उसे जनादेश मिला हुआ था. सारे हिंदीभाषी राज्य मिलकर दक्षिणी राज्यों में हिंदी लागू करने के लिए बहुमत दे सकते हैं. क्या उसे जनादेश माना जाएगा? अनुच्छेद 370 को हटाने का वास्तविक जनादेश तो तब माना जाता जब इस मुद्दे पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बहुमत मिलता. लेकिन यहां तो राज्यपाल की सहमति को ही राज्य की सहमति मान लिया गया!

कश्मीरियों पर ढाई गई आफत ने न केवल उनका दिल तोड़ा है बल्कि एक लोकतांत्रिक देश के रूप भारत की साख को भी गहरा धक्का पहुंचाया है. किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर बुद्ध या गांधी का नामोल्लेख करके हम आज के भारत की हकीकत पर परदा नहीं डाल सकते. यह कहकर हम दुनिया से आंख नहीं चुरा सकते कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है. बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन आतंरिक मामला नहीं होता.

भारत खुद श्रीलंका और म्यांमार में मानवाधिकारों के हनन का मसला लंबे समय तक उठाता रहा. चाहे हिरासत में यातना देने का मामला हो, या बच्चों के अधिकारों का या अल्पसंख्यकों की रक्षा का, मानवीय व्यवहार और मौलिक अधिकारों से ताल्लुक रखने वाले ऐसे तमाम मसलों पर संयुक्त राष्ट्र ने समय-समय पर जो घोषणापत्र जारी किए हैं, उन्हें और बहुत-से देशों के साथ-साथ भारत ने भी खुशी-खुशी स्वीकार किया है. क्या ये कागजी प्रतिज्ञाएं हैं?

यह विचित्र है कि कश्मीर घाटी में अलगाव की भावना तथा कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों से चिंता जताने का सिलसिला बढ़ने के बावजूद भाजपा के खेमे में खुशी है. इसलिए कि अनुच्छेद 370 संबंधी सरकार के फैसले से उसे हिंदुत्व तथा पाकिस्तान से रोज तनातनी के माहौल में फलने-फूलने वाली ‘राष्ट्रवादी’ राजनीति के और सबल होने की संभावना दिखाई देती है. यह उम्मीद कितनी टिकाऊ होगी यह तो वक्त बताएगा, पर सियासी नफा-नुकसान से प्रेरित ऐसे संकीर्ण नजरिए से किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकलता, बल्कि समस्याएं और उलझ जाती हैं.

(लेखक स्तंभकार हैं, और यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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1 टिप्पणी

  1. ये देश का गद्दार है कांग्रेस के टुकड़ों पर पलने वाला लेखक। भारत तेरे टुकड़े होंगे के पैरोकार।जनमत की बात करने वाले अंधे के सपूत मोदी बिना चुनाव जीते मंगल ग्रह से आ टपका क्या ‌‌‌‌‌‌‌भारतीय जनमानस की इच्छा का मोदी ने सम्मान किया। पाकिस्तान के एजेंट अब भी कुछ समझ में आया।

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