नई दिल्ली: हर सुबह अबिद कुरैशी फेसबुक स्क्रॉल करते हैं और असाइनमेंट अब्रॉड टाइम्स नामक अखबार पलटते हैं — यह अखबार विदेशों में नौकरियों की जानकारी देता है. पिछले महीने, एक विज्ञापन ने उनका ध्यान खींचा — मॉस्को में निर्माण मज़दूरों की ज़रूरत है. सऊदी अरब में 12 साल तक काम करने और फिर भारत लौटकर छोटे-मोटे कम वेतन वाले काम करने के बाद, रूस उन्हें एक बेहतर मौका लगा.
राजस्थान के चूरू ज़िले के रहने वाले कुरैशी ने कहा, “वहां पैसे खाड़ी देशों से ज़्यादा मिलेंगे. मेरी उम्र 49 साल है, यूरोप और रूस में उम्र को लेकर इतना सख्त नहीं होते. वहां दरवाज़े बंद नहीं करते.”
विज्ञापन देने वाली एजेंसी ने उनका बायोडाटा स्वीकार कर लिया और नवंबर में रूसी कंपनियों द्वारा कराए जाने वाले 20 दिन के ट्रेनिंग कोर्स की पेशकश की. फीस थी दो लाख रुपये. कुरैशी ने दोस्तों से उधार लेकर यह रकम जुटाई. उन्हें उम्मीद है कि मॉस्को में वादा किया गया एक लाख रुपये मासिक वेतन इस खर्च को वसूल कर देगा. सऊदी में, जहां वे पहले काम करते थे, उन्हें करीब 40,000 रुपये महीने मिलते थे, पर कंपनी बंद हो गई और नौकरी खत्म हो गई.
कुरैशी जैसे मज़दूरों की ज़िंदगी वीज़ा, कॉन्ट्रैक्ट और मनी ट्रांसफर के बीच उलझी है, लेकिन अब मज़दूरों का पलायन का सपना पारंपरिक खाड़ी रास्तों से आगे बढ़ चुका है. जापान, ग्रीस और रूस जैसे देशों में जनसंख्या घटने और कामकाजी उम्र के लोगों की कमी से जूझने के कारण, भारतीय मज़दूर अब दुनिया के नए कोनों में ब्लू-कॉलर जॉब्स की जगह भरने लगे हैं. सरकारी नीतियां और भर्ती एजेंसियों का बढ़ता नेटवर्क इसे और आसान बना रहे हैं.
पुणे स्थित बीसीएम ग्रुप के संस्थापक श्रीकांत इंगले ने कहा, “अब मांग इज़राइल, पोलैंड, ग्रीस, जापान और यहां तक कि रूस तक से आ रही है.” उनकी एजेंसी लातविया, क्रोएशिया और रोमानिया जैसे देशों में स्टाफिंग नेटवर्क रखती है. उन्होंने कहा, “कोविड से पहले हम ज़्यादातर आईटी प्रोफेशनल्स को विदेश भेजते थे, लेकिन उसके बाद ग्लोबल मार्केट का रुख बदल गया. ब्लू-कॉलर जॉब्स की मांग तेज़ी से बढ़ी, और टेक हायरिंग धीमी पड़ गई. हमें खुद को बदलना पड़ा.”

सरकार भी इस रफ्तार से कदम मिला रही है. मई में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि इटली, स्पेन, ऑस्ट्रिया और ग्रीस जैसे देशों ने “भारत के मानव संसाधन पूल से कामगार लेने में दिलचस्पी दिखाई है.” पिछले साल, विदेश मंत्रालय ने इज़राइल, ताइवान, मलेशिया, डेनमार्क और ब्रिटेन के साथ इमिग्रेशन और गतिशीलता साझेदारी समझौते किए, जो पहले जर्मनी, इटली, फ्रांस और ऑस्ट्रिया के साथ हुई व्यवस्थाओं में जुड़ गए. जुलाई 2025 की एक रिपोर्ट में मंत्रालय ने कहा कि “क्रोएशिया, फिनलैंड, ग्रीस, गुयाना, रूस और स्विट्ज़रलैंड के साथ बातचीत में उल्लेखनीय प्रगति हुई है.” इस साल की शुरुआत में जापान के साथ मानव संसाधन विनिमय समझौता भी हुआ है.
जब इंटरव्यू लेने वाले ने मेरा नाम और आने का कारण पूछा, तो मैंने अंग्रेज़ी में जवाब दिया. बीच-बीच में रुका, लेकिन आत्मविश्वास था. कांपते हुए बाहर निकला, पर कुछ ही देर में वीज़ा हाथ में था
— मोहम्मद शाहबान, ग्रीस जाने वाले टाइल मिस्त्री
जापान की 2025 योजना के तहत अगले पांच साल में 50,000 कुशल भारतीयों को ट्रेनिंग और प्लेसमेंट प्रोग्राम्स के ज़रिए बुलाने की योजना है. ग्रीस भारत सरकार और लाइसेंस प्राप्त एजेंसियों के साथ मिलकर निर्माण, कृषि और हॉस्पिटैलेटी सेक्टर के लिए कामगारों को भर्ती कर रहा है. रूस ने अपने 2025 के 2,34,900 विदेशी कामगार कोटे में से 71,817 स्लॉट भारतीयों के लिए आरक्षित रखे हैं, भले ही उसका श्रम मंत्रालय “बड़े पैमाने पर भर्ती” से इनकार करता हो. द्विपक्षीय समझौते के तहत जुलाई में 6,730 भारतीय इज़राइल के निर्माण क्षेत्र में शामिल हुए, इसके अलावा 6,400 से अधिक प्राइवेट चैनल्स के ज़रिए गए. जर्मनी, जिसे हर साल लगभग दो लाख निर्माण मज़दूरों की कमी झेलनी पड़ती है, उसने भी भारतीय कुशल श्रम में रुचि दिखाई है.
विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2020 से जून 2025 के बीच निर्माण और श्रम-प्रधान कामों में 16 लाख से अधिक भारतीयों को विदेश में काम करने की अनुमति मिली. हालांकि, यह संख्या केवल ECR (Emigration Check Required) देशों की है — यानी मुख्य रूप से खाड़ी देशों की, जहां सरकारी मंज़ूरी ज़रूरी होती है. रूस, इज़राइल और ग्रीस जैसे नए देशों में जाने वाले मज़दूर non-ECR या ECRN पासपोर्ट पर जाते हैं, इसलिए सरकारी रिकॉर्ड में नहीं दिखते.

वित्त वर्ष 2025 में भारत को 135 अरब डॉलर की रिकॉर्ड रकम विदेशों से भेजे गए पैसों (remittances) के रूप में मिली — जबकि मैक्सिको (68 अरब डॉलर) और चीन (48 अरब डॉलर) दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे. ब्लू-कॉलर जॉब्स इस कमाई का बड़ा हिस्सा हैं. भारतीय मज़दूर विदेशों में हाइवे, एयरपोर्ट, फैक्ट्री, होटल, घर और कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स बना रहे हैं और अपनी कमाई से अपने गांवों की अर्थव्यवस्था चला रहे हैं.
लेकिन मुकाबला कड़ा है. पाकिस्तान, बांग्लादेश, फिलीपींस, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के मज़दूर भी प्रतिस्पर्धा में हैं.
टारमैक टेक्निकल मैनपावर सर्विसेज़ के संस्थापक मोहम्मद आलम मिर्ज़ा ने कहा, “कंबोडिया और चीन जैसे देशों के मज़दूर करीब 20 प्रतिशत महंगे पड़ते हैं, लेकिन वे ज़्यादा कुशल और अनुशासित होते हैं.”
अब भारतीय मज़दूरों जैसे अबिद कुरैशी को प्रशिक्षित करने के लिए संगठित एजेंसियों का नेटवर्क भी बढ़ रहा है.
कुरैशी ने कहा, “रूसी खुद हमें एल्युमिनियम खिड़कियां और ग्लास इंस्टालेशन का काम सिखाएंगे. नए मटेरियल होंगे, लेकिन औज़ार वही रहेंगे और काम मुश्किल नहीं है.”
कुरैशी का बायोडाटा हरे और सफेद रंग का है, जो उन्होंने दस साल पहले माइक्रोसॉफ्ट वर्ड सीखने के बाद बनाया था. सबसे ऊपर बड़े अक्षरों में उनका नाम लिखा है, उसके नीचे लिखा है “वेयरहाउस वर्कर”. नीचे उन भाषाओं की सूची है जो उन्होंने सीखी हैं — अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू और अरबी — जिनमें से कई उन्होंने क्लासरूम में नहीं, बल्कि निर्माण स्थलों पर काम करते हुए सीखी हैं. बायोडाटा के साथ उनके पासपोर्ट की स्कैन कॉपी और 12वीं की मार्कशीट की फोटोकॉपी लगी है.
अपने “About” सेक्शन में उन्होंने टाइप किया है: “Self-motivated, ambitious, and hardworking, with zeal for professional progress and career advancement through determination.”
(“स्व-प्रेरित, महत्वाकांक्षी और मेहनती — जो दृढ़ निश्चय के साथ पेशेवर तरक्की और करियर में आगे बढ़ने का जुनून रखता है.”)
गोंडा से ग्रीस तक
दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के पालम की एक तंग गली में एक चार मंज़िला सलेटी रंग की इमारत खड़ी है — बिल्कुल साधारण दिखने वाली. पर इसके भीतर हज़ारों भारतीय सपनों का बोझ छिपा है. यही है डायनमिक स्टाफिंग सर्विसेज़ (डीएसएस) — एक भर्ती एजेंसी जो इलेक्ट्रीशियन, मशीन ऑपरेटर, वेयरहाउस वर्कर, फोर्कलिफ्ट ऑपरेटर, ऑटोमोबाइल मैकेनिक, यहां तक कि कसाई और बेकरी वर्कर तक को ग्रीस, इज़राइल और रोमानिया जैसे देशों में भेजती है.
रिसेप्शन पर मुस्कुराते हुए पुरुषों और महिलाओं के पोस्टर लगे हैं — किसी के सिर पर हेलमेट है, तो कोई मेडिकल ड्रेस में है. हर पोस्टर पर एक ही टैगलाइन छपी है:
“Are you looking for a job overseas?” (क्या आप विदेश में नौकरी की तलाश में हैं?)
कमरे में कॉफी, नई स्टेशनरी और पसीने की मिली-जुली गंध फैली है. माहौल तनाव भरा है.

करीब 15 आदमी कमरे में बैठे हैं, अपनी ज़िंदगी के दस्तावेज़ों से भरे पुराने चावल के बोरे थामे हुए — आधार कार्ड, लैमिनेटेड स्कूल सर्टिफिकेट, बायोडाटा, पासपोर्ट. ज़्यादातर उम्मीदवार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के छोटे कस्बों से आते हैं, जहां बेरोज़गारी का बोझ भारी है और हर रुपया मायने रखता है. उनकी शर्टें इस्त्री की हुई हैं, लेकिन चप्पलें और जूते धूल और घिसावट से भरे हैं. कईयों के गले में गमछा भी है.
एजेंसी यहां अलग-अलग कोर्स कराती है — टेक्निकल स्किल अपग्रेडेशन से लेकर कल्चरल अडॉप्टेशन तक.
रिसेप्शन से आगे एक कमरे में भाषा प्रशिक्षण चल रहा है. सफेद बोर्ड पर तीन शब्द लिखे हैं:
Too heavy — पॉय व्यारी (poy vyari)
Soft — मलाकोस (malakós)
Hard — स्कलीरा (sklirá)
लकड़ी की बेंचों पर बैठे ग्यारह पुरुष इन ग्रीक शब्दों को धीरे-धीरे दोहराते रहते हैं. भाषा की ट्रेनिंग देश के हिसाब से बैच में होती है. कभी-कभी कंपनियां इन क्लासों का खर्च उठाते हैं और कभी मज़दूर खुद.
दूसरी लाइन में बैठे हैं 35 वर्षीय मोहम्मद शाहबान जो कि गोंडा (लखनऊ से 150 किमी दूर) के रहने वाले हैं. जब उनकी बारी आती है, वे खड़े होकर बोलते हैं — “मे लेने मोहम्मद शाहबान.” “Me léne Mohammad Shahban.”
वे सावधानी से बोलते हैं, ठहर-ठहर कर, लेकिन गर्व से. क्लास में मुस्कान फैल जाती है. वे खुद भी हंसते हैं — खुद पर थोड़ा हैरान. अब वह ग्रीक बोल रहे हैं.

एक दशक से ज़्यादा समय तक शाहबान ने टाइल मिस्त्री का काम किया — ज़्यादातर फॉल्स सीलिंग पर. फिर एक दोस्त के फोन कॉल ने उनकी ज़िंदगी की दिशा बदल दी. डीएसएस के ज़रिए वह अब चार महीने से विदेश जाने की तैयारी में जुटे हैं. उन्होंने मेडिकल टेस्ट, इंटरव्यू, स्किल एग्ज़ाम दिए हैं और अब ग्रीक व अंग्रेज़ी सीख रहे हैं. अब बस कुछ ही दिनों में उनकी फ्लाइट है.
हमारा लक्ष्य है कि मज़दूर वहां पहुंचते ही स्किल्ड, डिजिटल रूप से जागरूक और नए माहौल में काम के लिए तैयार हों
— प्रशांसा, डीएसएस में इंग्लिश-लैंग्वेज ट्रेनर
शाहबान ने मुस्कुराते हुए कहा, “मुझे बी ग्रेड मिला. मैं जाने के लिए तैयार हूं.”
हर सुबह वह फिर क्लास में आते हैं, ग्रीक वाक्य, सुरक्षा निर्देश और अभिवादन दोहराते हैं. उनका मानना है कि यह “मुश्किल है”, लेकिन वे सीख रहे हैं.
अपने एम्बेसी इंटरव्यू के लिए शाहबान ने गांव के बाज़ार से 450 रुपये में नई शर्ट और पैंट खरीदी. चार साल पुराने जूतों को खूब चमकाया, एक छोटी सी दुआ माँगी और अंदर चले गए.
उन्होंने कहा, “जब इंटरव्यू लेने वाले ने मेरा नाम और आने का कारण पूछा, तो मैंने अंग्रेज़ी में जवाब दिया. बीच-बीच में रुका, लेकिन आत्मविश्वास था. कांपते हुए बाहर निकला, पर थोड़ी ही देर में वीज़ा हाथ में था.”
मज़दूरों को कैसे दी जाती है ट्रेनिंग?
तेल अवीव के किसी कंस्ट्रक्शन साइट या एथेंस के किसी होटल में काम करने वाले हर भारतीय मज़दूर के पीछे एक बड़ी और संगठित भर्ती और ट्रेनिंग की व्यवस्था होती है.
डायनमिक स्टाफिंग सर्विसेज़ में, जैसे ज़्यादातर ऐसी एजेंसियों में होता है, पूरी प्रक्रिया कई महीनों में पूरी होती है.
जब कोई विदेशी कंपनी मज़दूरों की मांग करती है — आमतौर पर एक बार में 200 से 300 लोगों की तो एजेंसी की टीम छोटे कस्बों और गांवों में खबर फैलाती है. इसके लिए वे ठेकेदारों, स्थानीय एजेंटों, व्हाट्सएप ग्रुप्स और मज़दूर चौक या चाय की दुकानों पर लगाए गए पोस्टरों का सहारा लेते हैं. आवेदनों को एक डेटाबेस में दर्ज किया जाता है और योग्य उम्मीदवारों को टेस्ट और इंटरव्यू के लिए बुलाया जाता है.

जांच की प्रक्रिया काफी बारीक होती है. डीएसएस उन कुछ भारतीय एजेंसियों में से है जिनके अपने ट्रेड सेंटर्स हैं, जहां मज़दूरों की स्किल्स जैसे वेल्डिंग, टाइलिंग या इलेक्ट्रिकल वायरिंग को सुपरवाइज़र की निगरानी में परखा जाता है.
राजमिस्त्री दीवारें बनाते हैं, इलेक्ट्रीशियन वायर जोड़ते हैं और वेल्डर धातु की चादरों को जोड़ते हैं. हर एक को A, B या C ग्रेड दिया जाता है ताकि उसकी तैयारी का स्तर तय हो सके.
उम्मीदवार चुन लिए जाने के बाद क्लाइंट कंपनियां वीज़ा रिक्वेस्ट भेजती हैं. इसके बाद एजेंसी ट्रेनिंग की ज़िम्मेदारी संभालती है. यह तीन हिस्सों में बंटी होती है — भाषा प्रशिक्षण, स्किल अपग्रेडेशन और डिजिटल लिटरेसी.
अब सिविल इंजीनियरिंग, बिल्डिंग, रोड, इंफ्रास्ट्रक्चर और मैन्युफैक्चरिंग जैसे क्षेत्रों में नौकरियों के मौके बढ़े हैं, लेकिन जितनी नौकरियां बढ़ी हैं, उतने ही मज़दूर भी तैयार हो गए हैं
— वरुण खोसला, प्रबंध निदेशक, डायनमिक स्टाफिंग सर्विसेज़
स्किल ट्रेनिंग में एजेंसी उम्मीदवारों की पेशेवर क्षमताएं निखारती है — चाहे वे राजमिस्त्री हों, इलेक्ट्रीशियन या बढ़ई. सत्रों में सुरक्षा, अनुशासन, कार्यस्थल का व्यवहार और शिष्टाचार सिखाया जाता है.
डिजिटल ट्रेनिंग में ChatGPT, Google Maps, Translate, Gemini AI जैसे टूल्स और स्मार्टफोन ऐप्स का उपयोग सिखाया जाता है ताकि मज़दूर बुनियादी काम खुद कर सकें.
पालम शाखा में 13 ट्रेनर हैं — या तो वे उस भाषा के native speaker हैं, या फिर भारतीय जो कई साल उस देश में काम कर चुके हैं.
इंग्लिश ट्रैनर प्रशांसा ने कहा, “हमारा लक्ष्य है कि मज़दूर वहां पहुंचते ही स्किल्ड, डिजिटल रूप से जागरूक और पहले दिन से काम के लिए तैयार हों.”

उड़ान की तैयारी
पालम सेंटर में जब मज़दूर धीरे-धीरे अपनी कुर्सियों पर बैठने लगते हैं, तो प्रशांसा अपनी सुबह की इंग्लिश क्लास स्टार्ट करती हैं — व्याकरण से नहीं, बल्कि एक सवाल से: “कल रात क्रिकेट कमेंट्री सुनी?”
IELTS की पूर्व प्रशिक्षक प्रशांसा के लिए यह महज़ बातचीत नहीं, बल्कि सिखाने की रणनीति है. वे छात्रों से कहती हैं कि YouTube और पॉडकास्ट सुनें, भले ही सब कुछ समझ न आए.
उन्होंने कहा, “पहले आपके कान सीखते हैं.” क्रिकेट कमेंट्री उनका “गुप्त हथियार” है.
उन्होंने आगे कहा, “दक्षिण एशिया के मज़दूर खेलों के शौकीन होते हैं, तो मैं उसका फायदा उठाती हूं, जब वे तेज़ और जोश भरी अंग्रेज़ी सुनते हैं, तो उसमें लय और आत्मविश्वास आता है.”

उनकी क्लासेस में सिर्फ़ ज़रूरी बातें सिखाई जाती हैं — औज़ार कैसे मांगें, दिशा कैसे बताएं या सुपरवाइज़र से कैसे बात करें. कोई “screwdriver” का उच्चारण गड़बड़ करता है, तो पूरी क्लास हंस पड़ती है.
जब मज़दूर नए देशों में जाने की तैयारी करते हैं, तो उन्हें वहां की संस्कृति, मौसम और सामाजिक नियमों से परिचित कराया जाता है. मोटिवेशनल टॉक्स और ओरिएंटेशन सेशन उनके कल्चर शॉक को कम करते हैं.
इसके साथ ही एजेंसी कागज़ी कार्यवाही संभालती है — मेडिकल टेस्ट, पुलिस वेरिफिकेशन, पासपोर्ट और वीज़ा डाक्यूमेंटेशन. डीएसएस दूतावासों से संपर्क करती है, इंटरव्यू तय करती है और टिकट की व्यवस्था करती है.
मैं यहां (इज़राइल में) दो महीने में उतना कमा लेता हूं जितना भारत में एक साल में नहीं कमा पाता था. अगर पांच साल और काम कर लूं, तो मेरी बेटी अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ सकती है — शायद IAS अफसर बन जाए
— गोविंद स्वामी, खिड़की फिट करने वाले मज़दूर, तेल अवीव
एजेंसियों के लिए यह लॉजिस्टिक्स, बिज़नेस और ह्यूमन मैनेजमेंट का तेज़ संतुलन है और बदलते वैश्विक भर्ती बाज़ार के साथ कदम मिलाना भी.
खोसला बताते हैं, “पहले Archirodon या Hyundai जैसी कंपनियां खुद भारत आकर भर्ती करती थीं. अब सिविल इंजीनियरिंग, बिल्डिंग, रोड, इंफ्रास्ट्रक्चर और मैन्युफैक्चरिंग जैसे क्षेत्रों में मौके बहुत बढ़े हैं. पर जितनी नौकरियां बढ़ीं, उतने ही मज़दूर भी तैयार हो गए हैं.”
एजेंसी की शुरुआत 47 साल पहले मुंबई में वरुण खोसला के पिता ने की थी. आज इसके 16 देशों में 23 दफ्तर हैं और अब तक छह लाख से ज़्यादा मज़दूरों को विदेश भेजा जा चुका है.

हर साल लगभग 16,000 से 18,000 लोग डीएसएस के ज़रिए विदेश जाते हैं. वरुण खोसला के मुताबिक, अब भी खाड़ी देश सबसे बड़ा हिस्सा लेते हैं, लेकिन अब एजेंसी 30 से ज़्यादा देशों में मज़दूर भेजती है.
वह गर्व से अपने पिता, स्वर्गीय मेजर (रिटायर्ड) एस.पी. खोसला का ज़िक्र करते हैं, जिन्होंने 1983 के Emigration Act के मसौदे में सरकार के साथ काम किया था — यह कानून विदेश जाने वाले भारतीय मज़दूरों की सुरक्षा के लिए बना था. एस.पी. खोसला ने देशभर के भर्ती एजेंटों का प्रतिनिधित्व करते हुए ऐसा ढांचा तैयार करने में मदद की जो मज़दूरों की भलाई को प्राथमिकता देता था और इस उद्योग को ज़्यादा पारदर्शी और वैध बनाता था.
वरुण ने कहा, “यह एक ऐसा बिजनेस है जो नीतियों और सस्ते श्रम की वैश्विक मांग — दोनों से आकार लेता है.”

कौन-सी नौकरियां असली हैं?
पिछले कुछ महीनों में इंस्टाग्राम और फेसबुक पर नीले-लाल रंग के चमकदार विज्ञापनों की बाढ़ आ गई है — जिनमें लिखा होता है: “जरूरी! रूस के लिए कामगार चाहिए!”
ये विज्ञापन पांच साल के वीज़ा, डायरेक्ट सिलेक्शन, फ्री रहना-खाना और सुनहरे वेतन का वादा करते हैं — जो अक्सर सच्चे नहीं लगते. रेलवे ट्रैक फिटर, मिस्त्री, फैक्ट्री हेल्पर जैसी नौकरियों के लिए बुलावा दिया जाता है. हर नए उम्मीदवार का स्वागत है.
इन पोस्टरों पर ज़्यादातर तस्वीरें AI से बनी होती हैं, जिनमें विदेशी मजदूर निर्माण स्थल पर काम करते दिखते हैं.
कमेंट सेक्शन सवालों से भरा होता है — “क्या यह सुरक्षित है?”, “कौन-सी भाषा सीखनी होगी?”, “प्रोसेस क्या है?”, “कैसे अप्लाई करें?”

लेकिन इन पोस्टों में अक्सर किसी कंपनी का नाम नहीं होता. जब दिप्रिंट ने दिए गए नंबरों पर कॉल की, किसी ने जवाब नहीं दिया या कॉल बैक नहीं किया.
एक इंस्टाग्राम विज्ञापन में, जो रूस में वेयरहाउस और ड्राइवरों के लिए था, किसी ने कमेंट किया: “भाई तुम्हारा पैसा फंस जाएगा, ये लोग चोर हैं… मेरे पास सबूत है.”
इन चमकदार विज्ञापनों के पीछे अक्सर एक गहरी सच्चाई छिपी होती है.
बीसीएम ग्रुप के सह-संस्थापक श्रीकांत इंगले ने कहा कि ऐसे कई सोशल मीडिया विज्ञापन धोखाधड़ी होते हैं, जो छोटे शहरों के कामगारों को निशाना बनाते हैं. उन्होंने कहा, “वे अक्सर 10-15 लाख वसूलकर गायब हो जाते हैं.”
विदेश मंत्रालय के eMigrate पोर्टल पर 3,500 से ज़्यादा बिना लाइसेंस वाले एजेंटों और कंपनियों की सूची है, जिनके पते और शिकायतें दर्ज हैं.
पहले जब कुछ गलत होता था तो शिकायत करने की कोई जगह नहीं होती थी. अब अगर कोई दिक्कत है, तो ऑफिस, रिसीट और फोन नंबर मौजूद हैं
— सौरभ, श्रीलंका जाने वाले कंस्ट्रक्शन वर्कर
असल समस्या यह है कि केवल ECR सिस्टम वाले मजदूर ही सही तरह से ट्रैक किए जाते हैं — लगभग 48 लाख रजिस्ट्रेशन, जिनमें बढ़ई, इलेक्ट्रिशियन, रसोइया और निर्माण मजदूर शामिल हैं. बाकी अर्ध-कुशल मजदूर अब भी अनौपचारिक चैनलों से विदेश जाते हैं, जहां धोखाधड़ी के मामले ज़्यादा हैं.
डीएसएस के भर्ती कार्यालय में इंतज़ार कर रहे कई लोग बताते हैं कि कैसे कुछ “फ्रीलांस एजेंट” फीस लेकर भाग गए या लोगों को टूरिस्ट वीज़ा पर भेज दिया जिससे उनकी ज़िंदगी और मुश्किल हो गई.
भारत में कुछ लोग ब्लू-कॉलर जॉब्स के बहाने रूस भेजे गए और वहां यूक्रेन युद्ध के बीच रूसी सेना में भर्ती कर दिए गए. सितंबर में, MEA प्रवक्ता रंधीर जायसवाल ने ऐसे भर्ती के “खतरों” की चेतावनी दी और कहा कि भारत ने मॉस्को से सभी भारतीयों की रिहाई की मांग की है.

हालांकि, अब पंजीकृत भर्ती एजेंसियों की संख्या भी बढ़ रही है. 2014 में MEA की सूची में 1,347 एजेंसियां थीं; 2024 तक यह बढ़कर 1,988 हो गईं. ये एजेंसियां ज़्यादा पारदर्शी हैं, विदेशी क्लाइंट्स से तालमेल रखती हैं और मजदूरों को सपोर्ट देती हैं.
गोपालगंज के 34 वर्षीय सौरभ, जो पहले दुबई और कतर में काम कर चुके हैं, अब डीएसएस के ज़रिए श्रीलंका में पाइपिंग जॉब पर जा रहे हैं — 47,000 महीने की सैलरी पर.
उन्होंने कहा, “अब अगर कोई दिक्कत होती है, तो शिकायत के लिए दफ्तर, रिसीट और नंबर होता है.”
BCM के इंगले का कहना है कि वे ब्लू-कॉलर भर्ती की गड़बड़ियों के बीच एक ईमानदार विकल्प बनना चाहते हैं. उन्होंने कहा, “हम सिर्फ लाइसेंस्ड प्रोसेस पर चलते हैं — सीवी, स्किल टेस्ट, इंटरव्यू, वीज़ा, कोई शॉर्टकट नहीं. हमारे लोग मेहनती हैं, सीखने को तैयार हैं. दुनिया को उनकी ज़रूरत है और उन्हें काम की. बस पुल सही बनाना है — धोखा बंद होना चाहिए.”
2009 में शुरू हुआ BCM, पुणे स्थित कंपनी है, जो IT और non-IT दोनों सेक्टर में काम करती है. यह रूस, रोमानिया, हंगरी, क्रोएशिया, सर्बिया और स्लोवाकिया जैसे देशों में वेल्डर, फिटर, CNC ऑपरेटर, और कंस्ट्रक्शन वर्कर भेजती है.
यूट्यूब से मदद
औपचारिक एजेंसियों के बाहर भी फ्रीलांसर और कंसल्टेंट्स का एक नेटवर्क है, जो देशों के पार काम करता है. ऐसे ही एक व्यक्ति हैं शहबाज़ अहमद, जो बैंकॉक के एक छोटे कमरे से अपना काम चलाते हैं.
वे मुख्य रूप से ब्लू-कॉलर जॉब्स चाहने वालों को रूस, खाड़ी देशों और यूरोप के छोटे देशों के एजेंटों से जोड़ते हैं.
वे कहते हैं — “अमेरिका या कनाडा वाला खेल अलग है.”
पहले ओमान में एक प्राइवेट कंपनी में काम कर चुके शहबाज़ अब सरकार से मैनपावर लाइसेंस लेने की तैयारी कर रहे हैं. साथ ही वे ‘Shahbaz Wandurlust’ नाम से यूट्यूब चैनल चलाते हैं, जिसके 1.4 लाख फॉलोअर्स हैं. वह वहां जॉब अपडेट्स और डॉक्यूमेंटेशन की जानकारी साझा करते हैं.
वे हंसते हुए बताते हैं, “जब कोई ब्लू-कॉलर कामगार नौकरी ढूंढता है, तो सबसे पहले YouTube पर जाता है.”
लोग सोचते हैं कि वे यूरोप में एक लाख रुपए महीना कमाएंगे — यह तभी मुमकिन है जब वे बेहद कुशल हों
— शहबाज़ अहमद, माइग्रेशन कंसल्टेंट और यूट्यूबर
हाल के वीडियो में उन्होंने रूस में फूड वेयरहाउस की नौकरियां, कज़ाखस्तान में फैक्ट्री हेल्पर, और माल्टा में सुपरमार्केट जॉब्स दिखाए हैं. किसी ने कमेंट किया: “मैंने BSc फूड किया है.”

एक और वीडियो में उन्होंने इज़रायइल के ग्रीनहाउस जॉब्स के बारे में बताया — उन्होंने कहा, “केवल खेती का अनुभव रखने वाले ही अप्लाई करें.” उनका दावा है कि सैलरी करीब तीन लाख रुपये होगी.
उनके पास ज़्यादातर कॉल ग्रामीण या छोटे शहरों से आते हैं, “असल फर्क स्किल में है. मिस्त्री, बढ़ई, फैब्रिकेटर को अच्छी कमाई होती है; हेल्पर्स को नहीं. लोग बस सैलरी पूछते हैं — काम, कॉन्ट्रैक्ट या शर्तों की परवाह नहीं करते.”
बढ़ता इमिग्रेशन
1980-90 के दशक में भारतीय कामगारों की पहली बड़ी इमिग्रेशन लहर खाड़ी देशों की ओर थी. केरल के मजदूर दुबई और रियाद में गगनचुंबी इमारतें बना रहे थे.
बाद में उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के लोग भी उनसे जुड़ गए और खाड़ी भारत के कामगार वर्ग की जीवनरेखा बन गया.

लेकिन अब हालात बदल रहे हैं. खाड़ी की अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है और नई मंज़िलें खुल रही हैं.
अब यह लहरें नहीं, छोटे-छोटे बहाव चल रहे हैं — जो मार्केट, वीज़ा नियम और मांग के हिसाब से दिशा बदलते हैं.
जहां सरकार अनुमति देती है, लोग वहीं जाएंगे
— मुहम्मद आलम मिर्ज़ा, टार्मैक टेक्निकल मैनपावर सर्विसेज
रूस अब इस नए दौर की बड़ी मंज़िल बन गया है. 2030 तक रूस में 31 लाख कामगारों की कमी होने का अनुमान है और वह अब CIS देशों (जैसे कज़ाखस्तान, उज्बेकिस्तान) से आगे बढ़कर भारत की ओर देख रहा है. Gateway House की अक्टूबर 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत अब रूस के लिए सबसे तेज़ी से बढ़ता नॉन-CIS लेबर सोर्स है.
रिपोर्ट में लिखा है, “अब दिल्ली-मॉस्को फ्लाइट्स में सिर्फ स्टूडेंट्स या टूरिस्ट नहीं, बल्कि वेल्डर, सैलून वर्कर और बिल्डर भी सफर करते दिखते हैं.”
लेकिन वहां मौसम कठोर है, भाषा बड़ी बाधा है और युद्ध का असर भी. इंगले ने कहा, “वीपीएन ब्लॉक हैं, इसलिए नौकरी के पोर्टल या कंपनियों से बात करना मुश्किल है.”
खोसला ने कहा, “हम इंतज़ार कर रहे हैं कि बैन हटें ताकि रूस के लिए हायरिंग बढ़ाई जा सके.”
दोनों देशों में भर्ती आसान बनाने के लिए नीतिगत कदम उठाए जा रहे हैं. जुलाई में रूस ने कोटा-आधारित प्रवासी कामगारों के लिए भाषा परीक्षा की अनिवार्यता हटाई और वर्क परमिट प्रक्रिया सरल की. वहीं भारत कज़ान और येकातेरिनबर्ग में नए वाणिज्य दूतावास खोलने की तैयारी कर रहा है.
ग्रीस भी अब भारत से कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और निर्माण क्षेत्र के लिए मजदूर बुला रहा है. स्थानीय लोग इन कामों में रुचि नहीं लेते, लेकिन भारतीयों के लिए यूरोप की कोई भी जगह “एक सीढ़ी ऊपर” है.

इज़राइल में भी भारतीय कामगारों की मांग बढ़ी है क्योंकि अक्टूबर 2023 के हमास हमले के बाद वहां 80,000 फिलिस्तीनी कामगारों पर बैन लगा दिया गया.
यहां दो महीने में मैं उतना कमा लेता हूं जितना भारत में एक साल में भी नहीं
— गोविंद स्वामी, खिड़की फिटर, तेल अवीव
वे पहले खाड़ी और फिर तिरुपुर (तमिलनाडु) में काम करते थे. अब वे ब्लूप्रिंट पढ़ सकते हैं, नए मटेरियल हैंडल कर सकते हैं, किसी भी साइट में ढल सकते हैं.
उन्होंने कहा, “अगर पांच साल और काम कर लूं, तो मेरी बेटी अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ सकेगी — शायद IAS अफसर बने.”
उनका अगला गोल है — रूस, पोलैंड, रोमानिया.
उन्होंने कहा, “हम जैसे प्रवासी मजदूरों ने गर्म रेत, धूप और अब सीमेंट का सामना किया है…अगली मंज़िल ठंडे देशों की है.”
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