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Tuesday, 28 October, 2025
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‘हम भारत बनाते हैं, बिहार कौन बनाएगा?’ —छठ स्पेशल ट्रेन में सवार प्रवासियों की उदासी का सफर

यह बिहार का छठ महापर्व ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार—चुनाव—भी है. यह एक अहम पल है.

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पटना: 27 साल के मनोज चौधरी एक प्रवासी बिहारी मजदूर हैं, जिनका एक मिशन है. जब वे पुणे में अपने काम से निकले, तो उनका मिशन सिर्फ छठ पर्व और चुनावों के लिए अपने गांव (सहरसा ज़िले में) पहुंचना नहीं था, बल्कि भीड़भाड़ वाली छठ स्पेशल ट्रेन की कठिन यात्रा को झेलना भी था. इसका मतलब है दो दिन बिना सोए और बिना खाए खड़े रहना, और अपने सामान की ऐसे रक्षा करना जैसे जान से प्यारा हो. इन ट्रेनों में शौचालय जाना तो सोचना भी मुश्किल है.

प्रवासी मजदूरों से भरी ट्रेनों का यह हंगामा आज के समय में बिहार की पहचान बन चुका है. जब राज्य, 6 नवंबर को चुनाव में जाएगा, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के तीन कार्यकालों पर कई कठिन सवाल खड़े होंगे. उनमें सबसे कठिन सवाल यह है: बिहार के मजदूर पूरे देश में बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट बना रहे हैं, लेकिन उनका अपना राज्य अब भी गरीबी और पिछड़ेपन में फंसा हुआ है. बड़े शहरों में उन्हें बिहार की खराब छवि की वजह से भेदभाव झेलना पड़ता है.

हर साल इस समय घर लौटना मनोज चौधरी के लिए एक तरह का ‘ओलंपिक’ बन चुका है. वह तीन ट्रेनें बदलते हैं और एक बस लेते हैं ताकि अपनी पत्नी, बच्चों और मां के साथ छठ मना सकें. उनके पास सूटकेस या बैग नहीं होता. वे अपने कपड़े और कंबल एक बड़े नीले पानी के ड्रम में पैक करते हैं और उसे कंधे पर उठाकर ले जाते हैं. उस ड्रम में न तो कोई तोहफा होता है और न ही कोई खाने-पीने की चीज.

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मनोज चौधरी दानापुर स्टेशन पर पटना जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं. पुणे से सहरसा स्थित अपने गांव जाने के लिए तीन ट्रेनें और एक बस बदलनी पड़ती है | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

ट्रेन सुबह 11:30 बजे दानापुर स्टेशन पर पहुंचती है, नौ घंटे लेट. वहां से चौधरी पटना जंक्शन के लिए साझा ऑटो पकड़ते हैं ताकि सहरसा जाने वाली अगली ट्रेन मिल सके.

एक ठेकेदार के साथ राजमिस्त्री का काम करने वाले और रोज़ 700 रुपये कमाने वाले चौधरी ने कहा, “मैंने पिछले चार दिनों में बस दो बार खाना खाया है. मुश्किल से सो पाया, लेकिन सीट मिल गई, यह राहत थी. बहुतों को तो वह भी नहीं मिली. मैंने 30 घंटे तक पेशाब नहीं किया, क्योंकि वॉशरूम तक जाने की जगह नहीं थी. पर हर साल यही हाल होता है,”

जब उनके दोस्त खाने के लिए बाहर जाते हैं, तो वह उनका सामान संभालते हैं. जैसे ही वे लोग दाल-भात एक काले पॉलीथिन बैग में लेकर लौटते हैं, उनमें से एक उत्साह से चिल्लाता है: “राजगीर एक्सप्रेस आ गई!” चौधरी अपना ड्रमनुमा सामान उठाते हैं और सैकड़ों अन्य प्रवासी मजदूरों के साथ प्लेटफॉर्म नंबर 4 की ओर दौड़ पड़ते हैं.

वह हांफते हुए कहते हैं, “मुझे सीट बचानी है और सामान रखने की जगह ढूंढनी है, वरना अगले छह घंटे खड़ा रहना पड़ेगा.”

लोग ट्रेन के दरवाजों पर टूट पड़ते हैं, अपने बैग खिड़कियों से अंदर फेंकते हैं और उन्हीं से अंदर घुसने की कोशिश करते हैं. कुछ लोग तो इमरजेंसी खिड़की का शीशा तोड़कर चढ़ जाते हैं. ऐसी तस्वीरें हर साल सामने आती हैं, टीवी स्क्रीन और सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं.

हर साल केंद्र सरकार प्रवासी मजदूरों की वापसी आसान बनाने के बड़े-बड़े वादे करती है. इस साल रेलवे मंत्रालय ने छठ पूजा के लिए 12,000 स्पेशल ट्रेनें चलाईं. देशभर के 30 स्टेशनों पर घोषणाओं के बीच खास छठ गीत — “कांच ही बांस के बहंगिया” — भी बजाए गए. लेकिन हालात कुछ बेहतर नहीं हुए.

प्रवासी मजदूर देश के हर कोने से आते हैं — चेन्नई, बेंगलुरु, पुणे, दिल्ली — लेकिन सबकी तकलीफ़ एक जैसी है. पहले ट्रेन में चढ़ने के लिए घंटों धक्का-मुक्की, फिर सीट पाने के लिए लड़ाई.

इस साल सिर्फ बिहार का छठ महापर्व नहीं है, बल्कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव — चुनाव — भी है. यह आत्मचिंतन का पल है. प्रवासी मजदूर वोट डालने के बाद फिर राज्य छोड़ देंगे, इस कड़वी सच्चाई के साथ कि बिहार को अब भी भारत के बाकी हिस्सों से बहुत कुछ सीखना और पाना बाकी है. उन्होंने बेंगलुरु, हैदराबाद, दिल्ली, गुड़गांव, नोएडा, मुंबई और पुणे में ‘इंडिया स्टोरी’ को उभरते देखा और उसमें अपना योगदान दिया है, लेकिन बिहार में बहुत कम कंपनियां या फैक्टरियां आई हैं जो रोज़गार पैदा करें.

राजनीतिक नेता इस बार घाटों पर उनसे मिलने के वादे कर रहे हैं, लेकिन प्रवासी मजदूरों की तकलीफ़ें सालों से जस की तस हैं. दूर शहरों में मेहनत करते हुए वे बिहार को अपने मोबाइल स्क्रीन पर देखते हैं — छोटे वीडियो, व्यंग्य भरे क्लिप, मीम्स, रील्स और विज्ञापन — जो बार-बार वही सच्चाई दिखाते हैं.

“मैं 25 साल से बेंगलुरु में रह रहा हूं और हर साल ऐसे ही बिहार आता हूं. भीड़भरी ट्रेनें, न ढंग की शिक्षा न स्वास्थ्य सुविधाएं. पानी और बिजली थोड़ी बेहतर हुई हैं, पर बिहार को और बहुत कुछ चाहिए,” बेंगलुरु से बेगूसराय जा रहे चायवाले विजय शंकर ने कहा, जो अपनी बेटी के साथ यात्रा कर रहे हैं.

एक सहयात्री ने जवाब दिया, “क्या आपने देखा नहीं, बिहार में कितने पुल बन गए हैं? सड़कें हर जगह हैं. स्कूल और अस्पताल भी धीरे-धीरे बेहतर हो जाएंगे…”

शंकर तुरंत वेब सीरीज़ ‘पंचायत’ की एक लाइन बोलते हुए उसे काट देते हैं, और बाकी यात्री हंस पड़ते हैं: “यही तो दिक्कत है, सब कुछ बहुत धीरे-धीरे हो रहा है.”

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राजगीर एक्सप्रेस में विजय शंकर कहते हैं कि प्रवासी अभिशप्त जीवन जी रहे हैं: ‘लोग अब भी “बिहारी” को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं. सरकार इसे भी ठीक नहीं कर पाई’ | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

घर पर जगह नहीं है

हर बड़े शहर से बड़ी-बड़ी भीड़ में हताश बिहारी मजदूर ट्रेन में चढ़ने के लिए चिल्लाते हैं — “अंदर जाओ, मेरे लिए जगह बनाओ.” उन्हीं में से हैं विकास कुमार और उनका छोटा भाई अभिषेक, जिन्होंने बेंगलुरु से बिहार जाने वाली स्पेशल ट्रेन में चढ़ने के लिए नौ घंटे तक लाइन में खड़े रहकर इंतज़ार किया.

26 साल के विकास ने कहा, जो तीन दिन की थकाऊ यात्रा से बेहद थक चुका था, “हम शहर में एक कंपनी में मजदूर के तौर पर काम करते हैं. इलेक्ट्रॉनिक सामान, फ्रिज, वॉशिंग मशीन लोड और अनलोड करते हैं. छठ हमारे लिए सबसे बड़ा त्योहार है. बिहार में मेरी मां कई रीति-रिवाज निभाती हैं, लेकिन हमारा त्योहार तो यहीं से शुरू होता है — ट्रेन में जगह पाना और सामान के साथ सुरक्षित घर पहुंचना,”

उन्हें चोरी का डर भी रहता है. वह और उनका भाई बारी-बारी से सोते हैं ताकि उनका सामान कभी अकेला न रहे.

Chhath train
बेंगलुरु से बेगूसराय तक के लंबे सफ़र में मची अफरा-तफरी से बचने के लिए अभिषेक अपने फ़ोन पर स्क्रॉल कर रहे हैं. उनके बगल में बैठे उनके भाई विकास का डेटा तीन फ़िल्में देखने के बाद खत्म हो गया | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

22 साल के अभिषेक ने कहा, “पिछली बार मेरा बैग और फोन चोरी हो गया था. इसलिए इस बार मैंने तय किया है कि मैं नहीं सोऊंगा ताकि सामान की रखवाली कर सकूं. मैंने एक महीने की छुट्टी ली है. इसका पैसा नहीं मिलेगा, लेकिन छठ पर घर आना ज़रूरी था.”

बेंगलुरु में दोनों की महीने की कमाई 15,000 रुपये है, न बीमार होने पर छुट्टी मिलती है और न ही बोनस.

अभिषेक और विकास ने बेंगलुरु में अपनी नई ज़िंदगी बनाई है. काम बहुत कठिन है लेकिन वहां के हालात अच्छे हैं — बेहतर सड़कें, ऊंची इमारतें, अच्छे बोलने वाले लोग, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं. वे जब 15 और 20 साल के थे, तब काम के लिए बेंगलुरु आए थे, लेकिन उनके चाचा, जो वहां चाय बेचते हैं, ने कहा था कि वे बाद में पढ़ाई कर लेंगे.

अब तक ऐसा नहीं हुआ, लेकिन अब वे थोड़ी बहुत कन्नड़ बोलना सीख गए हैं. पहले बहुत मुश्किल होती थी — लोग उन्हें बुरा बर्ताव करते थे क्योंकि वे भाषा नहीं जानते थे. अब वे कुछ बुनियादी बातें कह सकते हैं — “नीवु हेगिद्दिरी? नीवु ऊटा मडुत्तिरा?” यानी “आप कैसे हैं? क्या आप खाना खाएंगे?”

विकास ने हंसते हुए कहा, “मुझे साउथ इंडियन फिल्में बहुत पसंद हैं. इस यात्रा में मैंने तीन फिल्में देख लीं. अब मेरा डाटा पैक खत्म हो गया है.”

विकास और अभिषेक की तरह ज़्यादातर यात्री अपने स्मार्टफोनों में खोए रहते हैं — ज़्यादातर चीनी कंपनियों के फोन जैसे ओप्पो, वीवो और रेडमी. लेकिन जैसे ही बाहर गंगा नदी दिखती है, सब खिड़की की ओर गर्दन निकालते हैं और हाथ जोड़ लेते हैं.

विकास ने कहा,“राजनीतिक विज्ञापनों में कहते हैं ‘रफ्तार पकड़ रहा है बिहार’, लेकिन ट्रेन की रफ्तार तो बहुत धीमी है. हर पार्टी वादा करती है पर निभाती कोई नहीं. अब तो मैं ऐसे रील्स और विज्ञापन स्किप कर देता हूं.”

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अभिषेक और उनके भाई ने 15 और 20 साल की उम्र में बेंगलुरु में काम करना शुरू किया था. अब दोनों थोड़ी-बहुत कन्नड़ बोलते हैं | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

बिहार जातीय सर्वे 2022-23 के अनुसार, राज्य के 2.65 करोड़ लोग प्रवासी मजदूर हैं, लेकिन ज़्यादातर का जीवन स्तर ऊपर नहीं उठा है. 2021 में ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज़’ की 36 बिहार गांवों में हुई एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि ज्यादातर प्रवासी मजदूर कम शिक्षा और कौशल के कारण कम वेतन वाली नौकरियों में फंसे रहते हैं. वे औसतन साल में 35,000 रुपये घर भेज पाते हैं (जबकि पूर्वी यूपी के परिवारों का औसत 55,000 रुपये है). इन परिवारों में 48 प्रतिशत के लिए यही छोटी रकम उनकी एकमात्र आय होती है. फिर भी, कुछ तो है.

अभिषेक ने कहा, “घर को पैसे की ज़रूरत थी, इसलिए हमें काम करना पड़ा. पहले बिहार में कोशिश की थी, लेकिन काम अनियमित था और लोग पैसे समय पर नहीं देते थे. मैं 12 घंटे काम करता था और महीने के 6,000 रुपये मिलते थे, वो भी देर से.”

“कोई भी अपना घर छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन पारिवारिक ज़िम्मेदारियां मजबूर कर देती हैं.”

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मनोज चौधरी और अन्य प्रवासी ड्रम और बोरियों में अपना भारी सामान लेकर पटना जाने वाली ट्रेन की ओर दौड़ते हुए | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

सफर में वोट

बिहार के राजनीतिक दल छठ के मौक़े पर लौट रहे प्रवासियों का स्वागत करने की बातें कर रहे हैं. राजगीर एक्सप्रेस में उनके लिए बनाए गए वीडियो फोन पर बजते रहते हैं — भाजपा का विज्ञापन जिसमें एथेनॉल फैक्ट्री का वादा है, तेजस्वी यादव नौकरियों की बात कर रहे हैं, और जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर गांव-गांव जाकर उनकी समस्याएं उठा रहे हैं.

कई लोग ये वीडियो और भाषण देखते हैं और फिर पार्टियों को कोसते हैं.

हज़ारों किलोमीटर दूर रहते हुए उनके लिए रील्स और वीडियो कॉल ही बिहार की राजनीति से जुड़ाव का जरिया हैं. परिवारों से उन्हें सुनने को मिलता है — “सड़कें बेहतर हुई हैं,” “बिजली सुधरी है,” “स्कूल और अस्पताल वैसे ही हैं जैसे छोड़े थे.”

मनोज चौधरी हर रात अपनी पत्नी से एक घंटे बात करते हैं. उनके बच्चे अब स्कूल जाते हैं, जबकि वे खुद कभी नहीं गए. लेकिन भीड़भाड़ वाली ट्रेन में उनकी निराशा गहरी है. आरजेडी प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी जैसे नेता प्रवासियों से वोट डालने तक रुकने की अपील कर रहे हैं, पर चौधरी को इन बातों पर भरोसा नहीं. उन्हें सब कुछ खोखला लगता है.

उन्होंने कहा, “अभी के हिसाब से तो हर पार्टी बेकार लगती है. मुझे नहीं पता यूट्यूब को कैसे पता चलता है कि मैं बिहार से हूं. बार-बार बिहार के विज्ञापन दिखाता है. लेकिन इनसे अब मैं प्रभावित नहीं होता. अगर वोट डालूंगा तो वही डालूंगा, जिसे हमारा गांव डालेगा. वैसे भी कोई हमारी मदद नहीं करता.”

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चेन्नई में मज़दूरी करने वाले सुरेश पासवान कहते हैं, ‘हमारे जैसे लोगों को गांवों में जाति के नाम पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है और बड़े शहरों में हमारे साथ बुरा व्यवहार किया जाता है क्योंकि हम बिहारी हैं.’ | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

लेकिन कुछ लोग अधिक दिलचस्पी से चुनावी खबरें और यूट्यूब वीडियो के कमेंट पढ़ते हैं.

“मैंने अपने फोन पर देखा है कि लोग कह रहे हैं मोदी जी ने प्रवासी मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया. हम जैसे लोगों को गांव में जाति के नाम पर भेदभाव झेलना पड़ता है, और बड़े शहरों में इसलिए कि हम बिहारी हैं. फिर भी हम जिंदा हैं. मैं ऐसी सरकार चाहता हूं जो मेरा जीवन बेहतर करे,” सुपौल ज़िले के सुरेश पासवान ने कहा, जो चेन्नई में मजदूर के तौर पर काम करते हैं. रिश्तेदारों के कॉल के अलावा उन्हें अपनी ज़्यादातर खबरें फेसबुक ऐप से मिलती हैं, जो उनके रेडमी स्मार्टफोन में है.

कुछ लोग, जैसे विजय शंकर, प्रशांत किशोर के प्रवासियों के मुद्दों पर ध्यान देने से प्रभावित हैं, लेकिन उन्हें संदेह है कि यह वोटों में बदलेगा.

उन्होंने कहा, “वह लोगों के मुद्दे उठाते हैं, अच्छी बातें करते हैं. वे कुछ गिने-चुने नेताओं में से हैं जो बाहर जाकर काम करने वालों की तकलीफ़ों की बात करते हैं, लेकिन सरकार में जगह नहीं बना पाएंगे — शायद अगले पांच साल में,”

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छठ पूजा के लिए ट्रेन में थके हुए यात्री. राजद प्रवासियों से 6-11 नवंबर को होने वाले चुनाव में वोट देने के लिए बिहार में ही रुकने का आग्रह कर रहा है | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

प्रवासी मजदूर बिहार के बाकी लोगों की तरह स्वास्थ्य, शिक्षा या सड़कों की बात कम करते हैं. उनकी असली समस्या है — बिहार में उद्योग और कंपनियों की कमी. वे बस इतना चाहते हैं कि उन्हें अपने घर के पास काम मिले. इसके लिए बिहार में ही नौकरियां बननी होंगी. महिलाओं के लिए 10,000 रुपये वाली योजना भी उन्हें आकर्षित नहीं करती.

“हम लोग शापित ज़िंदगी जी रहे हैं. आज भी ‘बिहारी’ को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. सरकार यह तक नहीं बदल पाई. हम साल में एक-दो बार आते हैं, देखते हैं सड़कें ठीक हुई हैं, बिजली आई है, लेकिन नौकरी कहां है, कंपनियां कहां हैं? मैं उसी पार्टी को वोट दूंगा जो मुझे यहीं नौकरी दिलाए,” शंकर ने कहा.

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छठ की भीड़। बिहार के लगभग 2.65 करोड़ लोग प्रवासी मज़दूर हैं, जिनमें से ज़्यादातर कम वेतन वाली नौकरियों में हैं और जिनकी आय बहुत कम है | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

भाजपा ने इस नाराजगी को भांप लिया है.

उसके एक विज्ञापन में एक नौजवान काम पर निकलता है. एक बुज़ुर्ग पड़ोसी पूछता है, “फिर जा रहे हो?” वह जवाब देता है, “नहीं, मैं बक्सर जा रहा हूं. भाजपा ने वहां एथेनॉल फैक्ट्री खोली है.” फिर टैगलाइन आती है — “रफ्तार पकड़ रहा है बिहार.” एक और विज्ञापन में एक बुजुर्ग महिला कहती है कि लाखों लोगों को सरकारी नौकरियां मिल रही हैं. लेकिन इन ट्रेनों में ठुंसे प्रवासी मजदूर इन बातों पर यकीन नहीं करते.

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पटना जाने वाली ट्रेन में एक हल्का-फुल्का पल. इस सीज़न का मज़ाक बिहार की बदलती रफ़्तार पर है, जैसा कि राजनीतिक विज्ञापनों में दावा किया जा रहा है | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

शंकर ने पूछा, “कई सालों तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गर्व से कहते थे कि प्रवासी बिहारी देश बना रहे हैं. बिहारी देश बना रहे हैं, लेकिन बिहार कौन बना रहा है?”

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पटना जाने वाली एक भीड़ भरी ट्रेन में छठ के गीत गाते एक बुज़ुर्ग व्यक्ति. वह बिहार के एक स्टेशन पर चढ़े। फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

कोई हीरो जैसा स्वागत नहीं

जब मनोज चौधरी हफ्तेभर की थकान भरी यात्रा के बाद रात देर से घर पहुंचते हैं, तो सबसे पहले घर के बुजुर्गों को प्रणाम करने की परंपरा निभाते हैं, जबकि उनकी पत्नी दूसरे कमरे में बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रही होती है. उनके दो बच्चे सो चुके होते हैं, और वे उन्हें नहीं जगाते.

“इतने दुबले हो गए हो, वहां खाना नहीं मिलता क्या?” — पत्नी उन्हें देखते ही कहती है.

चौधरी कई महीनों से घर से दूर थे. उनकी पत्नी ही घर और बच्चों की जिम्मेदारी संभालती है, जो कुछ पैसा वह पुणे से भेजते हैं, उसी से घर चलता है. चौधरी अपनी जेब से मुड़े-तुड़े नोट निकालते हैं और त्योहार के लिए मां को दे देते हैं. मां उनका सिर सहलाती हैं और कंधे पर सिर रखकर रो पड़ती हैं. वह अपनी पत्नी को पैसा नहीं देते, लेकिन वादा करते हैं कि अगले दिन उसे और बच्चों को खरीदारी के लिए ले जाएंगे.

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अभिषेक अपनी मां प्रतिमा देवी के साथ, बेगुसराय स्थित अपने घर पर | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

चौधरी कहते हैं, “अगर मैं मां के सामने पत्नी को पैसे दूं तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. लेकिन मैं उसे खरीदारी के लिए ले जाऊंगा और हरी साड़ी दिलाऊंगा — उसे हरा रंग बहुत पसंद है.”

बेगूसराय में, चार दिन की यात्रा के बाद अभिषेक और विकास राजगीर एक्सप्रेस से उतरते हैं, लेकिन स्टेशन पर उनका स्वागत करने कोई नहीं आता. उनकी मां पास ही बने एक मंजिला घर में इंतज़ार कर रही हैं, जिसे वे एक और परिवार के साथ साझा करते हैं. घर पर अब भी दीवाली की लाइटें लगी हैं, लेकिन छठ को खास बनाने की ज़िम्मेदारी भाइयों की ही है.

वे सो जाते हैं, लेकिन जैसे ही उठते हैं, मां कामों की लंबी सूची सुना देती हैं. छुट्टी के दौरान घर पर उनका इंतज़ार कर रहे कामों का कोई अंत नहीं लगता.

उन्हें अपनी बहन से मिलने जाना है और उसके लिए तोहफे खरीदने हैं, उस छोटी ज़मीन को देखना है जिसके लिए वे पैसे बचा रहे हैं, छठ के लिए मिठाई, साड़ी और फल खरीदने हैं, रिश्तेदारों से मिलना है, और मां को आलमारी और बिस्तर हटाने में मदद करनी है. और ये तो बस शुरुआत है.

“यही एक समय होता है जब मैं उन्हें देख पाता हूं. कभी अपनी मां के साथ समय बिताने का मौका नहीं मिला. इस बार भी रिश्तेदारों से मिलने इधर-उधर जाना पड़ेगा. मैं अपनी मां के लिए कुछ करना चाहता हूं, लेकिन क्या कर पाऊंगा?” — अभिषेक कहते हैं, जो 15 साल की उम्र से काम कर रहे हैं.

बेगूसराय स्थित अपने घर में अभिषेक अपने घर के कामों से थोड़ा आराम लेते हुए. एक कमरा ड्राइंग रूम, बेडरूम और गेस्ट रूम दोनों का काम करता है | फोटो: नूतन शर्मा | दिप्रिंट

दोनों भाइयों ने मान लिया है कि उन्हें कोई दुलार या खास व्यवहार नहीं मिलेगा. लेकिन उन्हें घर का खाना और अपने पुराने ठिकाने पसंद हैं.

विकास बताते हैं, “छठ के समय मम्मी रसोई में प्याज-लहसुन नहीं बनातीं. बाजार में एक चाट की दुकान है, हम हफ्ते में एक बार वहीं जाकर खाते हैं — क्योंकि कहीं और ऐसा स्वाद नहीं मिलता,”

अभिषेक के लिए उनकी थोड़ी सी बचत हर साल घर लौटने में ही खर्च हो जाती है, लेकिन अब घर लौटना भी एक जिम्मेदारी जैसा बन गया है.

“अपना गांव-शहर देखकर ऐसा लगता है जैसे मैं टाइम मशीन से आया हूं — जहां बहुत कुछ अब भी नहीं बदला,” वे झपकी लेने की तैयारी करते हुए कहते हैं.

“घर आकर भी हम लोग घर नहीं लौटते, जिम्मेदारी पूरी करने लौटते हैं.”

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