नई दिल्ली: जब पिछले हफ्ते जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की लाल ईंटों वाली दीवारों पर शाम का सन्नाटा पसरा, तो कैंपस ने एक ऐसा नज़ारा देखा जो पहले असंभव माना जाता था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी समारोह से कुछ दिन पहले, दर्जनों स्वयंसेवकों ने ड्रम, ट्रम्पेट और टकराती हुई झांझों के साथ कैंपस में मार्च किया. कई लोग पारंपरिक शाखा लाठी भी लिए हुए थे.
कुछ महिलाएं फुटपाथ पर खड़ी थीं और इस सभी पुरुषों की परेड पर फूल बिखेर रही थीं. केसरिया झंडा गर्व से लहरा रहा था उस कैंपस में, जिसे हाल तक, दक्षिणपंथियों ने “लेफ्ट विचारधारा का गढ़” बताया था.

जहां दस साल पहले तक “आज़ादी” के नारे लगते थे, अब वहां “नमस्ते सदावत्सले मातृभूमे”—आरएसएस का प्रार्थना मंत्र जिसका अर्थ है “हे पवित्र मातृभूमि, मैं हमेशा तुम्हें नमन करता हूं”—गूंजता है. पिछले कुछ साल में विश्वविद्यालय ने नाटकीय रूप से बदलाव देखा है, ऐसा एक जोशीले न्यूज़ एंकर ने जेएनयू की कुलपति और स्वयं एक स्वयंसेविका, शांति श्री धुलीपुड़ी पंडित से अगले दिन बातचीत में कहा.
उन्होंने टूटी-फूटी हिंदी में जवाब दिया, “यहां पहले सिर्फ वामपंथियों की कहानी चलती थी. दूसरों को उन्होंने कभी अनुमति नहीं दी.”
कुलपति ने वामपंथी पार्टियों का उल्लेख करते हुए कहा, अगर आरोप हैं कि आज जेएनयू का कैंपस बीजेपी-आरएसएस कार्यालय का विस्तार जैसा लगता है, तो यह सिर्फ इसलिए है कि कुछ साल पहले तक यह “वामपंथियों का कार्यालय, सीपीआई-सीपीआई-एम का कार्यालय” जैसा लगता था.

1969 में भारत के पहले प्रधानमंत्री की याद में स्थापित जेएनयू लंबे समय तक देश में लेफ्ट विचारधारा की सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रभुत्व का प्रतीक रही है. सीताराम येचुरी से प्रकाश करात, प्रभात पट्टनायक से उत्पा पट्टनायक और जयति घोष तक, देश के आर्थिक और राजनीतिक वामपंथ के कुछ प्रमुख प्रकाश स्तंभ जेएनयू से आए हैं, जिससे यह देखा जा सकता है कि विश्वविद्यालय ने सक्रिय रूप से और विशेष रूप से वामपंथी बौद्धिकता को बढ़ावा दिया.
हालांकि, ऐसा इसे बनाते समय नहीं सोचा गया था.
1965 के संसद के शीतकालीन सत्र में, नेहरू की मृत्यु के एक साल बाद, यह चर्चा हुई कि जेएनयू किस प्रकार का विश्वविद्यालय होना चाहिए. अपने नाम के अनुरूप वैचारिक संगति के लिए, यह तय किया गया कि विश्वविद्यालय उन आदर्शों का प्रतिनिधित्व करे जिन पर जवाहरलाल नेहरू स्वयं चलते थे—धर्मनिरपेक्षता और विश्व नागरिकता, सामाजिक न्याय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण, अंतरराष्ट्रीय मामलों में रुचि और विश्व शांति के प्रति प्रतिबद्धता.
लेकिन आलोचनात्मकता इन सभी पर हावी होनी थी.
तब के शिक्षा मंत्री एम.सी. चागला ने संसद में जोश से कहा कि आलोचनात्मकता, यानी बहस और संवाद, विश्वविद्यालय की अंतर्निहित संस्कृति होनी चाहिए. धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय, “वो सिद्धांत जिनसे पूरा देश सहमत है”, भी कठोर नहीं किए जा सकते, उन्होंने कह और भविष्य के छात्रों और शिक्षकों से अपील की कि वे इन आदर्शों की भी आलोचना करें, जबकि वे इन पर प्रतिबद्ध रहें.
शायद यह आलोचनात्मक भावना ही थी जिसने जेएनयू की राजनीति को कांग्रेस से दूर रखा और अक्सर इसका सबसे मुखर आलोचक बना दिया.
क्या विश्वविद्यालय का सत्ता-विरोधी चरित्र इसकी ताकत थी, या जैसा कि कई दक्षिणपंथी विचारक शिकायत करते हैं, यह हर नई पीढ़ी के साथ बढ़ता हुआ एक अनिवार्य फैशन था? क्या जेएनयू वास्तव में एक वैचारिक मोनोलिथ था, जहां केवल वामपंथ के विचार ही पनप सकते थे?
और आखिरकार, जेएनयू की असाधारणता को ऐतिहासिक, संस्थागत और राजनीतिक रूप से कैसे समझा जाए, यह सवाल उन लोगों द्वारा भी माना गया जिन्होंने 2014 से पहले दशकों तक विश्वविद्यालय की राजनीति के किनारे पर खुद को पाया—वह साल जब बीजेपी ने केंद्र में निर्णायक रूप से सत्ता हासिल की.
‘पूरी तरह नई तरह की यूनिवर्सिटी’
2020 में, जेएनयू की स्थापना के 50 साल बाद और “स्टेट-फंड वाले विद्रोह का प्रतीक” होने के आरोप के चार साल बाद, विश्वविद्यालय के कुछ प्रमुख शिक्षाविदों ने JNU Stories: The First 50 Years नामक एक किताब प्रकाशित की.
किताब के अध्यायों के नाम—The Classroom, Philosophy at Night, Learning Outside the Classroom, An Accidental Education, Sweet Chai and Restless Thinking—जेएनयू की असाधारणता के बारे में आम धारणाओं को मजबूत करते प्रतीत होते हैं.
जेएनयू में राजनीति, राजनीतिक दर्शन और सिद्धांत के सवाल रोजमर्रा की चिंता का हिस्सा हैं, जैसा कि भारतीय राजनीतिक दर्शन के प्रख्यात विद्वान सुदीप्ता कविराज ने किताब में लिखा है, हर रात जेएनयू के मेस और ढाबे जादुई रूप से “विचारों के अजीब एम्फीथिएटर” में बदल जाते हैं.
इस प्रक्रिया में, छात्र जीवन के सामान्य विचार अक्सर पलट जाते हैं. जटिल राजनीतिक सिद्धांत के सवाल केवल कक्षाओं में ही नहीं, बल्कि छात्रों के खाली समय को भी ज़िंदा कर देते हैं.
यहां तक कि कैंपस की दीवारें भी केवल राजनीतिक दर्शक नहीं हैं.
‘Left and Right Hindus of the world unite, you have everything to lose but your caste,’ ‘Whose wealth, whose commons, whose games? Unaccounted drain of public money, displacement and destruction of livelihoods of Delhi’s poor, denial of wages. Commonwealth or Cruel Games?’, ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’, ‘Art should disturb the comfortable and comfort the disturbed’—जेएनयू की ये सर्वव्यापी भित्ति चित्र इसकी जीवंत राजनीतिक ज़िंदगी में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं. हर गर्मी की छुट्टी में छात्र चांदनी चौक में जाकर रंग, ब्रश और कागज ख़रीदते हैं, जैसे कोई अनुष्ठान हो.
पांच दशक पीछे जाएं, तो समझ आता है कि यह सब संयोग नहीं है. जेएनयू की असाधारणता इसकी स्थापना में लिखी गई थी.
1950 के दशक तक, दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंख्या के दबाव से फटने ही वाली थी. राष्ट्रीय राजधानी की एकमात्र यूनिवर्सिटी, यह नई राष्ट्र की शैक्षिक आकांक्षाओं को पूरा करने में संघर्ष कर रही थी. अवसंरचना टूट रही थी, फैकल्टी और फंड पर्याप्त नहीं थे और छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही थी.
1963 में, चागला ने नेहरू के पास एक योजना लेकर गए. उन्होंने कहा, विश्वविद्यालय को साउथ दिल्ली में नया कैंपस चाहिए. नेहरू ने सहमति दी, फिर, चागला ने अगले सवाल के साथ कुछ हिचकिचाहट दिखाई. उन्होंने नेहरू से कहा कि नए कैंपस का नाम “जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय” रखा जाना चाहिए. नेहरू गुस्से में आए.
चागला ने वर्षों बाद आत्मकथा में नेहरू को याद करते हुए लिखा, “तुम जानते हो कि ज़िंदा व्यक्तियों के लिए स्मारक बनाने के बारे में मेरी क्या राय है, यह पूरी तरह गलत है. ज़िंदा व्यक्तियों की कोई मूर्तियां नहीं बनाई जानी चाहिए और न ही संस्थाओं का नाम उनके नाम पर रखा जाना चाहिए.” नेहरू ने सुझाव दिया कि विश्वविद्यालय का नाम “रायसीना यूनिवर्सिटी” रखा जाए.
मई 1964 तक नेहरू का निधन हो गया. अब नए कैंपस का नाम उनके नाम पर ही नहीं रखा जा सकता था, बल्कि इसे उनके स्मारक के रूप में भी योग्य होना चाहिए था. यह अब दिल्ली विश्वविद्यालय का केवल एक विस्तार नहीं हो सकता था. इसे एक पूरी तरह नया और सबसे महत्वपूर्ण, एक पूरी तरह नया प्रकार का विश्वविद्यालय होना था.
अगले कुछ साल तक, देश के प्रमुख शिक्षाविद, परोपकारी, उद्योगपति और विधायक सभी मिलकर विचार करते रहे कि जेएनयू किस प्रकार का विश्वविद्यालय होना चाहिए. पहली ईंट रखे जाने से पहले ही, विश्वविद्यालय को नवोदित राष्ट्र की बौद्धिक जिंदगी का आधार बनने का भाग्य मिल चुका था.
1964 में स्थापित जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड (JNMF) के ट्रस्टी रहे दिवंगत जेआरडी टाटा का मानना था कि विश्वविद्यालय को फ्रांसीसी “Grand Ecoles” की तरह बनाया जाए—संस्थान जो नेपोलियन बोनापार्ट के समय से सार्वजनिक सेवा के लिए प्रतिभाशाली लोगों को तैयार करते थे, जहां केवल सबसे मेधावी दिमाग ही प्रवेश कर सकते थे.
टाटा ने लिखा, “यह ज़रूरी है, कि सामान्यता की सूखी जमीन में कहीं-कहीं उत्कृष्टता का नखलिस्तान हो.”
गांधीवादी शिक्षाविद और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य जी. रामचंद्रन ने संसद में कहा था, विश्वविद्यालय किसी अन्य जैसा नहीं होना चाहिए था, यह छात्रों का होना चाहिए था, प्रोफेसरों का नहीं—एक छात्र गणराज्य, जहां छात्रों को पाठ्यक्रम, सिलेबस और विश्वविद्यालय के पूरे काम और जीवन के निर्माण में पूर्ण अधिकार हों.
छात्रों का चयन और मूल्यांकन कैसे होगा? वे किस पृष्ठभूमि से आएंगे? फैकल्टी को पदोन्नति कैसे मिलेगी—मेरिट या वरिष्ठता के आधार पर? छात्रों और फैकल्टी के बीच पदानुक्रम कैसा होगा? नेहरू के राज्य नियोजन के प्रति आदर के रूप में, महीनों तक सरकारी समितियों, संसद और यहां तक कि फोर्ड फाउंडेशन ने जेएनयू की स्थापना के सिद्धांतों और प्रशासनिक कार्यप्रणाली के हर छोटे-बड़े विवरण पर चर्चा की.

यहां तक कि विश्वविद्यालय की वास्तुकला और परिदृश्य भी असाधारण विस्तार से सोचा गया था, जो एक अपेक्षाकृत निरक्षर, नवोदित गणराज्य के लिए दुर्लभ था.
विश्वविद्यालय के कैंपस डिज़ाइन मैनुअल में कहा गया है, “मानसून नालों के सूखे चैनल, खड्ड और घाटियां, मिट्टी के कटाव से बनी संरचनाएं, बेकार खदानें, अवशिष्ट पहाड़ी, खड्ड वाले मैदानों पर बिखरे पत्थर, लहराती घाटियां और उपत्यकाएं—यह सब प्रकृति द्वारा प्रदान किया गया है.”
हॉस्टल भवन—ब्रह्मपुत्र, गंगा, गोदावरी, कावेरी—भारतीय नदियों के नाम पर रखे गए, जो राष्ट्रीय एकता का प्रतीक थे. लंबी, जंगल जैसी सड़कें और खुरदरी चट्टानें, जहां छात्र अब भी बेपरवाह घूमते हैं, संयोग नहीं थीं.
यूके के ससेक्स विश्वविद्यालय के आर्किटेक्ट सर बेसिल स्पेंस ने इन “वेस्ट स्पेसेस” का जोरदार समर्थन किया, “जहां दोस्त चल सकते हैं और बात कर सकते हैं, नवीनतम सेमिनार या अंतिम शोध, या विशेष व्याख्यान पर चर्चा कर सकते हैं.”
जैसा कि नीलाद्री भट्टाचार्य और जानकी नायर ने JNU Stories के परिचय में लिखा है, स्पेंस के लिए, जेएनयू की ये “वेस्ट स्पेसेस” इसे “सिर्फ इमारतों के समूह से उच्च शिक्षा के स्थल” में बदल देंगी.
लेफ्ट टर्निंग
1975 में, प्रकाश करात 27 साल के युवा नेता थे, जो स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की छात्र शाखा के नेता थे.
उन्होंने उसी साल Social Scientist, मार्क्सवादी अकादमिक पत्रिका में लिखा, “जेएनयू को ऊपरी वर्ग के छात्रों का विशेष क्षेत्र बनने देने के बजाय, जो ‘राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय’ को बढ़ावा देने के बहाने छिपा हो, SFI ने 1971 में एक लोकतांत्रिक छात्र संघ की स्थापना के साथ शुरुआत की.”
उन्होंने आगे लिखा, “तब से, संघ द्वारा शुरू किए गए सभी संघर्ष (SFI आरंभ से ही इसका प्रमुख हिस्सा रहा) मुख्य रूप से शासक वर्ग के उन प्रयासों को विफल करने के लिए थे, जो जेएनयू को कांग्रेस के छद्म-क्रांतिकारी ब्रांड के प्रचार का वैचारिक केंद्र बनाने की कोशिश कर रहे थे.”
विश्वविद्यालय की स्थापना के कुछ ही वर्षों में, उस कांग्रेस सरकार, जिसने विश्वविद्यालय बनाया था, ने छात्रों के संघ के लिए “छद्म-क्रांतिकारी” का प्रतीक बनना शुरू कर दिया। यह कैसे हुआ? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि किससे पूछा जाए.
सुरजित मजुमदार, अर्थशास्त्री और जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन (JNUTA) के पूर्व अध्यक्ष और SFI के सदस्य ने कहा, “हमें उस राष्ट्रीय संदर्भ को देखना होगा जिसमें जेएनयू जन्मा और शुरुआती सालों में इसकी राजनीति विकसित हुई.”
उन्होंने समझाया, “यह 1960 के दशक के अंत का समय था, एक उपनिवेश विरोधी समय, देश में राजनीतिक उथल-पुथल का समय. नेहरू चले गए थे, स्वतंत्रता के उत्साही दिन बीत रहे थे, कांग्रेस की हेजेमनी टूट रही थी और समानता की ओर उभार था.”

मजुमदार ने कहा, “समाजवाद बढ़ रहा था, (तत्कालीन प्रधानमंत्री) इंदिरा गांधी ने अभी-अभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और प्रिविपर्स हटा दिए थे. फिर भी, ज़मीन पर समाजवाद को वास्तव में लागू न कर पाने के कारण कांग्रेस के खिलाफ विरोध पैदा हो रहा था. देश भर में छात्र संगठन उभर रहे थे. यही राष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भ था जिसमें जेएनयू की राजनीति आकार लेने लगी. यह सब विश्वविद्यालय के निर्माण में भी झलकता है.”
उन्होंने कहा, जेएनयू के छात्र संघ के लिए, जिसे किसी अन्य विश्वविद्यालय की तरह विश्वविद्यालय के नियम से नहीं बल्कि छात्रों ने खुद बनाया था, लेफ्ट टर्निंग शायद तब एक स्वाभाविक राजनीतिक परिणाम था. मजुमदार के लिए, जेएनयू की राजनीति और अकादमिक उत्कृष्टता संयोग नहीं हैं. एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता.
यह निश्चित रूप से प्रमोद कुमार की जेएनयू कहानी में सच नहीं था.
कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर और आरएसएस छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सदस्य हैं, जिन्होंने 1980-90 के दशक में जेएनयू में पढ़ाई की और 2016 में अपने अल्मा मेटर में रजिस्ट्रार के रूप में लौटे. उनके लिए, जेएनयू का लेफ्ट टर्निंग विश्वविद्यालय द्वारा अपने शुरुआती वर्षों में अपनाई गई वैचारिक रूप से प्रेरित चुन-चुन रणनीति का परिणाम था.
कुमार ने कहा, “नूरुल हसन, जो 1970 के दशक में शिक्षा मंत्री रहे, सीपीएम से थे और जेएनयू में सभी नियुक्तियां उनके विवेक पर होती थीं. उन्होंने इस समय विश्वविद्यालय को अपने साथियों से भर दिया.”
असल में, हसन हमेशा कांग्रेस के सदस्य रहे, लेकिन उनके कथित CPM सदस्यता को समझना महत्वपूर्ण है कि जेएनयू के चारों ओर कैसे नैरेटिव बनाए जाते हैं.
उन्होंने कहा, “1970 के दशक में, लेफ्ट की विचारधारा का विश्वविद्यालय में बिना रोक-टोक विकास हुआ.”
कैंपस की लगातार विरोध संस्कृति और कभी-कभी फार्मूला-बद्ध मार्क्सवाद, क्लास के अंदर और बाहर, दूसरों को भी अलग कर देता था.
नाम न छापने की शर्त पर अर्थशास्त्र की एक प्रोफेसर ने कहा, अक्सर छात्रों द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन अकादमिक गतिविधियों में बड़ी बाधा थे.
उन्होंने कहा, “वह क्लास नहीं जाते थे और लगातार विरोध आयोजित करते रहते थे. यह एक झंझट था क्योंकि यह केवल विरोध के लिए विरोध था. मेरे जैसे किसी के लिए, जिन्होंने अकादमिक को केवल कॉर्पोरेट नौकरी के लिए माध्यम नहीं बल्कि बौद्धिक उन्नति के रूप में देखा, यह एक बाधा थी.”
JNU Stories में राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव, जो 1981-82 में विश्वविद्यालय में छात्र थे, लिखते हैं कि यह प्रभुत्वशाली लेफ्ट अकादमिक संस्थान ही था जिसने उनमें सत्ता-विरोधी प्रवृत्ति को जन्म दिया.
वे लिखते हैं, “कई समकालीनों के विपरीत, मैं सोवियत संघ की प्रशंसा या भारतीय कम्युनिस्टों की प्रथाओं की सराहना नहीं कर सकता था.”

जब उन्होंने नक्सलियों के आदर्शवाद की सराहना की, उनके तरीके, सिद्धांत और तरीके उन्हें नैतिक और बौद्धिक रूप से ठंडा छोड़ गए. इसके अलावा, उस समय जेएनयू में गांधी का उपहास करना फैशन था. यादव के पास इसके लिए सब्र नहीं था.
फिर भी, लेफ्ट पॉलिटिक्स के बाहर राजनीति को तलाशने की जगह बनी क्योंकि जेएनयू में ही यादव ने समाजवादी जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया की बौद्धिक विरासत को कुछ हद तक खोजा.
कविराज ने किताब में अपने निबंध में तर्क दिया, इसके अलावा, उस समय के अधिकांश छात्र और प्रोफेसर औपचारिक लेफ्ट की विचारधारा से संबद्ध नहीं थे.
उन्होंने लिखा, “यह सच नहीं है कि जेएनयू की अधिकांश फैकल्टी वामपंथी थी: स्पष्ट निष्ठा वाले या विभिन्न राजनीतिक विचारों वाले विद्वान निश्चित रूप से लेफ्ट के सदस्य से अधिक संख्या में थे,लेफ्ट के सदस्य आम तौर पर ज्यादा मुखर थे और उनके पास विभिन्न लेफ्ट-प्रभुत्व वाले छात्र राजनीति के कारण बड़ी छात्र संख्या थी.”
जेएनयू की एक वर्तमान फैकल्टी सदस्य ने इस बात को आगे बढ़ाया.
उन्होंने कहा, “खासकर पिछले कुछ साल में, लोगों ने जेएनयू को किसी अलग द्वीप की तरह समझना शुरू कर दिया, जो अपनी राजनीतिक यात्रा पर है, हमेशा किसी कम्युनिस्ट समय-कुंड में फंसा हुआ है.”
उन्होंने कहा, “ऐसा कभी नहीं था, जैसा अब स्पष्ट हो चुका है. 1970 के दशक के अधिकांश हिस्से में छात्र राजनीति लेफ्ट के झुकाव वाली थी और यह जेएनयू में भी दिखा. जैसे ही राष्ट्रीय राजनीति ने 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में अलग मार्ग लिया, जेएनयू में लेफ्ट का अजेय होने का मिथक भी टूटने लगा.”
मंडल और मंदिर
दिल्ली विश्वविद्यालय के औरोबिंदो कॉलेज के केमिस्ट्री लैब में बैठे कुमार ने कहा, “1980 के दशक में, हम सब जेएनयू में काफिर माने जाते थे.”
उन्होंने मज़ाक में कहा, “अगर आपने किसी को बताया कि आप ABVP से हैं, तो जेएनयू में आपको गर्लफ्रेंड नहीं मिल सकती थी. यहां चरम वैचारिक अलगाव था. ABVP मौजूद थी, लेकिन सब चुपचाप था.”
उन्होंने कहा, “फैकल्टी सक्रिय रूप से वैचारिक आधार पर भेदभाव करती थी, जो छात्र लेफ्ट की विचारधारा की आलोचना करते थे, उन्हें एडमिशन नहीं मिलता था और अगर किसी तरह दाखिला मिल भी जाता, तो उनका इवैल्यूएशन बहुत खराब किया जाता…गुमनामी हमारी सबसे प्रभावी ढाल थी.”
लेकिन उनके अनुसार, लेफ्ट का सर्वोच्च शासन 1980 के दशक के अंत तक दरारें दिखाने लगा.
उन्होंने कहा, “तीन चीज़ें हुईं. एक, भारत में कम्युनिस्टों ने चीनी राज्य और उसके अत्याचारों का समर्थन किया, यहां तक कि छात्रों पर भी, जब टियानआनमेंन स्क्वायर में छात्र-नेतृत्व वाली लोकतंत्र समर्थक agitation हुई. दो, कम्युनिस्टों ने मंडल आरक्षण (अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए) का समर्थन किया, जिससे उनके कई पहले समर्थक उनसे दूर हो गए और तीन, (बीजेपी नेता एल.के.आडवाणी) की रथ यात्रा ने कई छात्रों को आकर्षित करना शुरू किया, जिन्हें अब लगा कि कोई उनके धार्मिक विश्वासों के लिए आवाज़ उठाएगा.”
लेफ्ट के “तैरते समर्थक” दूर जाने लगे और विकल्प तलाशने लगे. कुमार ने कहा, “यही वह समय था जब ABVP असली रूप में उभरी. हमें तुरंत पता चल गया कि हमारे जड़ जेएनयू में मजबूत हो रही हैं.”
यह हमारे लिए बहुत उत्साही समय था, वे आंखों में चमक के साथ याद करते हैं. उन्होंने हंसते हुए कहा, “हमने सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अरुण शौरी, आरिफ मोहम्मद खान, उमा भारती को कैंपस में बुलाकर बातचीत कराई. राम जन्मभूमि आंदोलन, कश्मीर, गांधी आदि पर चर्चाएं चुनावी बिंदु बन गई…हमने जेएनयू को क्रेमलिन से दिल्ली वापस लाया.”
अगर 1980 का दशक वह समय था जब ABVP की जड़ें जेएनयू में पकड़ रही थीं. कुमार ने ज़ोर दिया, तो 1996 तक यह पूरी तरह विकसित पेड़ बन चुकी थी. उसने छात्र संघ चुनाव में चार केंद्रीय पैनल सीटों में से तीन जीती—एक ऐसी घटना जो अविश्वसनीय थी और ऐसा लगता है कि इसे कैंपस के कई दक्षिणपंथी आलोचकों ने दबा दिया, जो इसे ठीक से याद नहीं कर पाते.
कुमार ने कहा, “यही वह चुनाव था जब SFI और AISA (CPI-ML की छात्र शाखा) अलग-अलग लड़े. वो हमारी जीत से इतने चौंक गए कि तब से हर चुनाव में वे हमेशा एक साथ लड़ते रहे.”
लेफ्ट का अजेय गठबंधन कई साल तक ABVP के लिए बाधा बना रहा. 2000 के अपवाद को छोड़कर, जब ABVP ने पहली और अंतिम बार JNUSU अध्यक्ष पद जीता, संगठन लगातार हारता रहा. एक गहराई से खंडित और वैचारिक रूप से विभाजित लेफ्ट जेएनयू की राजनीति पर हावी रहा.

इसी बीच, 1990 और शुरुआती 2000 के दशक ने सामान्य मध्यवर्गीय भारतीयों को बाज़ारों, समृद्धि और आकांक्षाओं की एक नया आकर्षक दुनिया से परिचित कराया. इस आकांक्षी वर्ग के लिए, जेएनयू एक रहस्यमय अकादमिक द्वीप बन गया, एक ऐसा केंद्र जहां झोलेवाली बौद्धिकता के लिए बौद्धिकता और एक्टिविज्म के लिए एक्टिविज्म में खोए हुए थे.
इन वर्षों में विश्वविद्यालय भविष्य के भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) और भारतीय पुलिस सेवा (IPS) अधिकारियों के लिए प्रतीक्षालय के रूप में भी कार्य करता रहा, जो खुद को अस्पष्ट पाठ्यक्रमों में नामांकित करते थे, जबकि वे UPSC परीक्षा की तैयारी कर रहे थे.
एक नई, सूचना प्रौद्योगिकी और एमबीए-प्रेमी मध्यवर्गीय भारत की कल्पना की सीमाओं पर, जेएनयू अब दुर्लभ रूप से मजाक का विषय बन गया था. फिर भी, यह सामूहिक घृणा का विषय बनने से बहुत दूर था, और न ही यह देशद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे का प्रतीक बन पाया. देश का सर्वश्रेष्ठ सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय वह खिताब पाने के लिए अगले 20 साल तक इंतज़ार करता रहा.
एक युद्धभूमि
जेएनयू में, 9 फरवरी 2016 को विश्वविद्यालय की अपनी ही BC-AD विभाजन की तरह माना जाता है. आमतौर पर कहे जाने वाला वाक्य, “सब कुछ 9 फरवरी 2016 के बाद बदल गया.”
यह संसद हमले के दोषी अफज़ल गुरु की फांसी की तीसरी वर्षगांठ थी. कुछ छात्र कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए. इसमें कोई असामान्य बात नहीं थी, लेकिन उस रात, टीवी कैमरे कैंपस में दिखाई दिए.
वीडियो क्लिप भी सामने आए, जिनमें कथित तौर पर देशद्रोही नारे लगाए जा रहे थे. कुछ ही दिनों बाद, छात्र नेताओं, जिनमें तत्कालीन JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उमर खालिद शामिल थे, को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया.
राष्ट्रीय मीडिया जेएनयू पर उसी तरह टूट पड़ा जैसे 2010 की फिल्म पीपली लाइव में काल्पनिक गांव पीपली पर टूट पड़ा था. एक रात में, विश्वविद्यालय घेराबंदी वाले किले में बदल गया. टेलीविजन स्क्रीन पर विश्वविद्यालय के “देशविरोधी” चरित्र, यौन स्वतंत्रता और “टैक्सपेयर के पैसे” पर इसके परजीवी असर को लेकर सांस थामे बहसें दिखाई गईं.
जेएनयू अब सिर्फ एक विश्वविद्यालय नहीं रहा. यह उन लोगों के लिए उर्वर भूमि बन गया, जो बौद्धिक छल से भारत को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे—भारत की तुकड़े-तुकड़े गैंग का घर.
चार साल बाद, 5 जनवरी 2020 को शारीरिक हमला हुआ. कुछ छात्र फीस वृद्धि और नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. लाठी, डंडा और पत्थर से सुसज्जित नकाबपोश भीड़ ने कैंपस पर हमला किया. कथित तौर पर इंटरनेट और बिजली भी बंद कर दी गई थी. विरोध कर रहे छात्रों, जिनमें तत्कालीन JNUSU अध्यक्ष ऐशे घोष और फैकल्टी सदस्य शामिल थे, पर शारीरिक हमले किए गए, जिससे दर्जनों को कट, फ्रैक्चर और गंभीर चोटें आईं. पुलिस खड़ी रही.
एक नया जेएनयू
चमकती हुई गुलाबी और बैंगनी कॉटन साड़ी जिस पर सुनहरा बॉर्डर है, मेज पर रखे अयोध्या के राम मंदिर की तस्वीर की ओर इशारा करते हुए बंदना झा ने कहा, “आप पूछते हैं कि पिछले 10 सालों में जेएनयू कैसे बदल गया? यही तरीका है जिससे यह बदला है.”
उन्होंने कहा, “दस साल पहले, किसी जेएनयू फैकल्टी के लिए अपने हिंदू धर्म को इतनी खुले तौर पर मानना असंभव होता.”
झा अप्रैल 2024 से विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इंडियन लैंग्वेजेज़ (CIL) में प्रोफेसर हैं. उन्होंने जेएनयू के हिंदी विभाग से 2001 में ग्रेजुएशन करने के लगभग 23 साल बाद लौटकर पढ़ाना शुरू किया.

झा जो एबीवीरी कार्यकर्ताभी हैं, ने दावा किया, “तब से जेएनयू में बहुत अंतर आ गया है. इस कैंपस और इसकी सोच में शायद ही कुछ भारतीय था.”
अब सब बदल गया है…वे खुशी से घोषणा करती हैं, जैसे ही वह 2025 का विश्वविद्यालय कैलेंडर दिखाती हैं और इसके पन्नों में झांकती हैं.
कैलेंडर में सेंटर फॉर हिंदू स्टडीज़, सवित्रीबाई फुले और अहिल्याबाई होलकर का “नारी शक्ति” कैप्शन, छत्रपति शिवाजी महाराज सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड स्ट्रैटेजिक स्टडीज़, और विद्यारण्य इंस्टिट्यूट ऑफ नॉलेज एंड एडवांस्ड स्टडीज़ (VIKAS) के चित्र हैं, जो ज्ञान प्रणालियों को “सनातनी और धार्मिक परंपराओं में जड़े दृष्टिकोण” के साथ उपनिवेशवाद मुक्त करने का दावा करता है.
फैकल्टी द्वारा प्रोत्साहित किए जाने वाले शोध विषयों में भी बड़ा बदलाव आया है.
उन्होंने कहा, “मेरे डिपार्टमेंट में, मैं पंचकन्या की नारीवाद, कल्याण पत्रिका के 100 साल, अद्वैत आश्रम, और अन्य विषयों पर पीएचडी का निर्देशन कर रही हूं. यह सब पहले असंभव था.”
“पंचकन्या” हिंदू महाकाव्यों रामायण और महाभारत की पांच महिलाओं—द्रौपदी, अहल्या, मंदोदरी, कुंती और तारा—का समूह है.
उन्होंने कहा, “जब मैं यहां छात्र थी, तो भारत के बारे में उन्हें केवल यही पढ़ाया जाता था कि इसकी सभ्यता जाति व्यवस्था से भरी हुई थी. यह नहीं सिखाया जाता कि जाति व्यवस्था की आलोचना भारत की संस्कृति में ही मौजूद थी.”
अब हम सब बदल रहे हैं, वह साहसपूर्वक कहती हैं, “यहां तक कि पुराने शिक्षक भी बदल रहे हैं—जस राजा, तस प्रजा.”
शिखा स्वराज, एक ABVP कार्यकर्ता, जो इस साल के JNUSU चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए खड़ी थीं, इससे सहमत हैं, लेकिन केवल यह नहीं कि विश्वविद्यालय के पुराने, लेफ्ट झुकाव वाले प्रोफेसर बदल रहे हैं, वे सेवानिवृत्त भी हो रहे हैं, वह कुछ राहत के साथ वे कहती हैं.
स्वराज जिनका पीएचडी विषय ‘यूएस-इज़राइल रणनीतिक सहयोग और भारत के लिए इसका प्रभाव’ है, ने कहा, अब जेएनयू में आने वाले छात्रों का प्रकार भी अलग है.
2018 में, जेएनयू प्रवेश परीक्षा का प्रारूप निबंध-प्रकार से MCQ-प्रकार में बदल गया.
उन्होंने दावा किया, “तब से, वे (फैकल्टी) छात्रों को वैचारिक झुकाव के आधार पर अलग नहीं कर पा रहे हैं. अब जो छात्र जेएनयू आ रहे हैं, उनके पास स्पष्ट लक्ष्य है—पढ़ाई-लिखाई और नौकरी. उन्हें पता है कि राजनीति उन्हें कहीं नहीं ले जाएगी.”
छात्रों की अकादमिक प्राथमिकताओं में दिखाई देने वाले बदलाव के और भी कारण हैं.
2018 में, जेएनयू ने अपनी स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग (SoE) स्थापित की. 2019 में, अटल बिहारी वाजपेयी स्कूल ऑफ मैनेजमेंट और एंटरप्रेन्योरशिप आई. 2018 में, विश्वविद्यालय ने पहली बार छात्रों और शिक्षकों के लिए अनिवार्य उपस्थिति लागू की—एक ऐसा कदम जिसे विश्वविद्यालय की स्थापना के शुरुआती वर्षों में जानबूझकर नहीं अपनाया गया था क्योंकि इसे बालकनी बनाने वाला और शोध व पढ़ाई की भावना के विपरीत माना गया था.

नाम न छापने की शर्त पर एक प्रोफेसर ने कहा, “विश्वविद्यालय अब सामाजिक विज्ञान अनुसंधान विश्वविद्यालय नहीं रहा. कुछ साल पहले तक, एमफिल और पीएचडी डिग्री में विभाजित, 60 प्रतिशत छात्र अनुसंधान स्कॉलर थे. अब, वे केवल 20-30 प्रतिशत हैं. पहले, एमफिल प्रोग्राम खत्म कर दिया गया और फिर किसी प्रोफेसर द्वारा निगरानी किए जाने वाले पीएचडी छात्रों की संख्या 20-25 से घटाकर केवल आठ कर दी गई.”
इस बीच, ABVP बढ़ती स्थिति में है. इस साल के चुनावों में, इसने लगभग एक दशक बाद केंद्रीय पैनल पद जीता और दो अन्य कम मार्जिन से हारे. इसमें 42 काउंसलर सीटों में से 23 सीटें भी शामिल थीं, जिनमें से दो स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस (SSS) में थीं, जो लंबे समय तक मार्क्सवादी प्रोफेसर और छात्रों का केंद्र रही हैं.
प्रोफेसर ने कहा, “पहले, मान्यता है, शिक्षकों में उन छात्रों के प्रति पक्षपात था जो बीजेपी-आरएसएस विचारधारा को मानते थे, लेकिन अकादमिक पर पूरी तरह हमला कभी नहीं हुआ.”
उन्होंने कहा, “दिक्कत यह है कि औपचारिक लेफ्ट की मुखरता के कारण, जेएनयू ने दशकों तक दक्षिणपंथ की पीड़ा और ‘अन्यता’ की भावनाओं का प्रतिनिधित्व किया. इसी कारण, जेएनयू जीतना उनके लिए कुछ राज्य चुनाव जीतने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण रहा. यह ऐसा है जैसे उस संस्थान को जीत लिया गया जिसने दशकों तक उनके बौद्धिक हाशिये और अपमान का प्रतिनिधित्व किया.”
उन्होंने अफसोस जताया, इस प्रक्रिया में खोया हुआ कुछ भी वैचारिक लड़ाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है.
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