इसकी शुरुआत सड़क पर एक टक्कर से हुई. कोशी प्रांत के वित्त मंत्री तथा गद्दी से हटाए गए प्रधानमंत्री खडग प्रसाद शर्मा ओली की पार्टी के नेता की कार 11 साल की एक बच्ची को टक्कर मार कर भाग गई लेकिन उसके ड्राइवर को बाद में गिरफ्तार कर लिया गया और 24 घंटे के अंदर रिहा भी कर दिया गया. ओली ने इसे एक मामूली दुर्घटना बताते हुए कहा कि हादसे के लिए मुआवजा दिया जाएगा. कुल मामला यह था.
हादसा दिन में हुआ. हादसे से घबराई हुई, जमीन से धीरे-धीरे उठकर खड़ी होती हुई और जान बचाने के लिए दौड़ती हुई उस बच्ची की तस्वीर सोशल मीडिया पर वाइरल हो गई. “Gen Z” (‘जेनरशन ज़ेड’) वाले विरोधियों ने इसे देखा. उन्होंने इस तस्वीर को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर साझा कर दिया और ओली समेत उनकी पार्टी के नेताओं को असंवेदनशील और आत्म-केंद्रित जमात के रूप में पेश किया. इससे कुछ दिन पहले ऐसी ही एक घटना इंडोनेशिया में हुई थी जब एक सरकारी वाहन ने एक डेलीवरी बॉय को कुचल दिया था, और सांसदों ने खुद को आवास भत्ते के रूप में हर माह 3,000 डॉलर की राशि मंजूर कर ली थी. इन दोनों घटनाओं के कारण देशभर में व्यापक विरोध प्रदर्शन फूट पड़ा था. इसे शांत करने के लिए राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो ने भत्ते वाले फैसले को वापस तो लिया लेकिन नुकसान तो हो ही चुका था.
नेपाल में भी ऐसा ही हुआ है. टेक्नोलॉजी-पसंद तथा अपनी अलग विश्व-दृष्टि रखने वाले नेपाली युवा नेपाल की तीनों प्रमुख पार्टियों—कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (सीपीएन)-यूएमएल, नेपाली काँग्रेस, और सीपीएन (माओवादी)—के बारे में अच्छी राय नहीं रखते. वे इन घटनाओं से गुस्से में थे, और इसे उन्होंने जाहिर कर दिया.
पार्टियों के पुराने नेताओं, उनके बेटे-बेटियों और पोते-पोतियों की विलासितापूर्ण जीवन शैली पर लोगों की वर्षों से तीखी नजर लगी थी. उनकी ख़र्चीली विदेश यात्राओं, नेपाल से बाहर के शिक्षण संस्थानों में उनके दाखिलों, और महंगे लक्ज़री ब्राण्डों के उनके प्रदर्शन को लोग देख रहे थे. ये नेता ऐसे थे जिन्हें अमीरी विरासत में नहीं मिली थी बल्कि वे राजनीति में उतरने के बाद अमीर हुए थे. ये सारी जानकारियां सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही थीं.
पत्रकारिता की पुरानी शैली में खबरनवीसों और पाठकों के बीच एक सीमा रेखा हुआ करती थी, मगर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर वह रेखा धुंधली हो गई है. कुछ पाइलट अगर वैमानिकी पर उम्दा ज्ञान दे रहे हैं, तो कुछ डॉक्टर मेडिकल साइंस में नए आविष्कारों पर लिख रहे हैं, और कुछ शेफ खानपान पर पॉडकास्ट बना रहे हैं. नेपाल में हाल में युवा कंटेट निर्माताओं की संख्या में अच्छी-ख़ासी वृद्धि हुई है. सो, सरकार ने जब सोशल मीडिया पर प्रतिबंध घोषित किया तो इसका उलटा नतीजा निकला.
प्रतीकात्मक विध्वंस
गहरी जड़ जमाए परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश उपरोक्त सड़क हादसे के बाद के तीन दिनों में अपने चरम पर पहुंच गया. सोमवार को यह काठमांडो, इटाहारी, और नारायणघाट में सड़कों पर फूट पड़ा. अपने यूनिफॉर्म में उतरे कॉलेज विद्यार्थियों समेत पूरे Gen Z ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. शाम होते-होते पुलिसिया कार्रवाई में 19 युवा मारे गए जिसमें निहत्थे लोगों के खिलाफ बेइंतिहा बल प्रयोग किया गया.
पार्टी के बड़े नेता अगर यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि युवाओं का गुस्सा अगले दिन तक शांत हो जाएगा, तो यह यह उम्मीद जल्दी ही टूट गई. हालात और बदतर ही हो गए. प्रदर्शनकारी पूरे देश में फैल गए, काठमांडो घाटी में उन्होंने हर उस चीज को निशाना बनाया जिन्हें तीन बड़ी पार्टियों से जुड़ा माना गया—पार्टी दफ्तरों, कारों, और निजी संपत्तियों को. पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउवा को बुढ़नीकांठा स्थित उनके घर से खींचकर बाहर निकाला गया. ओली ने दोपहर बाद प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन वे कहां लुप्त हो गए यह किसी को नहीं मालूम. यही स्थिति पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड की है.
चंद घंटों के अंदर ओली की पार्टी के मुख्यालय को घेर लेने वाले हजारों प्रदर्शनकारियों ने विजय जुलूस निकाला. लेकिन सुप्रीम कोर्ट, सिंह दरबार, सरकारी दफ्तरों, संसद परिसर पर हमले जारी रहे. सत्ता के प्रतीकों का यह सांकेतिक विध्वंस था. नेपाल 24 घंटे के अंदर बदल गया.
आगे क्या ?
अब, काठमांडो के युवा और लोकप्रिय मेयर बालेन शाह अंतरिम नेता बन सकते हैं. ओली के इस्तीफे के बाद भी तोड़फोड़ जारी रहने पर बालेन शाह ने प्रदर्शनकारियों को शांत हो जाने और सत्ता परिवर्तन में सहयोग करने की अपील की. उन्होंने लोगों से सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान न पहुंचाने की भी अपील की और घोषणा की कि अगला नेता युवा पीढ़ी में से ही होगा.
नेपाल की घटनाओं पर नजर रखने वालों के लिए कुछ बातें उपयोगी हो सकती हैं. वैसे, इस सबमें कोई भू-राजनीतिक खेल नहीं दिखता, हालांकि भारतीय मीडिया को इसमें ‘चीनी हाथ’ नजर आता है और साजिश की बू सूंघने वाले कुछ नेपाली जानकारों को इसमें ‘अमेरिकी हाथ’ नजर आता है. उनका तर्क है कि ओली के राज में चीन के टिकटॉक को तो चालू रखा गया जबकि अमेरिका के मेटा एप को बंद कर दिया गया. चीन समर्थक विशेषज्ञों का कहना है कि ओली चूंकि चीन के करीब थे इसलिए भारत उन्हें गद्दी पर नहीं देखना चाहता था. हकीकत यह है कि उन्होंने ओली को बहुत ज्यादा महत्व दे दिया था. इन सारी अटकलों का कोई आधार नहीं नजर आता.
वैसे, जमीन पर मुझे सीपीएन-यूएमएल पार्टी के मुख्यालय में जो नजर आया वह यही था कि अधिकतर प्रदर्शनकारी युवा हैं. नेपाली युवा बुद्धिमान हैं, आत्मविश्वास से भरे हैं और जिनके बयान हम अखबारों में रोज पढ़ते हैं उनके मुक़ाबले ये अपने भविष्य को लेकर कहीं ज्यादा चिंतित हैं. सारे सबूत यही कहते हैं कि नेपाल की जो पारंपरिक मीडिया है वह पुराने पार्टी नेताओं जितना ही पिछड़ी है.
ताजा घटनाक्रम यह गंभीर सबक सिखाता है कि युवा पीढ़ी की ताकत को कमतर न समझें, वह भविष्य को बूढ़ी जमात के मुक़ाबले बेहतर नजर से देखती है. 1990 के, और 2006 के जन आंदोलन के बाद से नेपाल को धोखा दे चुके शासक वर्ग से वह बुरी तरह निराश हो चुकी है.
अब दो स्थितियां बन सकती हैं. एक तो यह कि संविधान में जल्दी संशोधन किए जाएं ताकि परिवर्तन को आगे बढ़ाया जा सके. दूसरे, वर्तमान संविधान के अंदर ही परिवर्तन को अंजाम दिया जाए, हालांकि यह पहले के मुक़ाबले ज्यादा घालमेल भरा हो सकता है. लेकिन नये चुनाव करवाए गए तो वे संवैधानिकता को स्थापित करेंगे, राजनीतिक अराजकता और बड़े पैमाने पर संभावित हिंसा से बचाएंगे, और नागरिकों में नई उम्मीद जगाएंगे.
(अखिलेश उपाध्याय ‘काठमांडू पोस्ट’ के एडिटर-इन-चीफ रह चुके हैं और फिलहाल काठमांडू स्थित ‘थिंक टैंक’ ‘आईडीएस’ के सीनियर फेलो हैं. वे @akhileshU पर ट्वीट करते हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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