चलिए ज़रा सोचते हैं. बांग्लादेश का एक व्यक्ति गैर-कानूनी तरीके से भारत आता है. वे दिल्ली पहुंचता है और भले ही उसे बहुत थोड़ी हिंदी आती है और वह सड़क के बोर्ड नहीं पढ़ पाता, उसे 18-व्हीलर ट्रक चलाने की नौकरी मिल जाती है.
या तो लापरवाही से या फिर संकेत न समझ पाने की वजह से वह हाईवे पर अवैध यू-टर्न ले लेता है. उसका लंबा ट्रक सड़क के दूसरी तरफ की सारी लेन ब्लॉक कर देता है. अब वहां से गुज़र रहे ड्राइवर, जो साफ रास्ता मिलने की उम्मीद कर रहे थे, अचानक इस रुकावट से टकरा जाते हैं.
एक गाड़ी को रोकने का वक्त नहीं मिलता और वह ट्रक से टकरा जाती है. उसमें बैठे तीन लोगों की मौत हो जाती है.
ट्रक ड्राइवर भागने की कोशिश करता है, लेकिन पकड़ा जाता है. मालूम चलता है कि वह गैर-कानूनी तरीके से देश में था और पुलिस के सारे टेस्ट भाषा से लेकर ड्राइविंग तक में फेल रहा था. उसके पास न तो देश में रहने का अधिकार है और न ही ट्रक चलाने का लाइसेंस.
हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी?
जवाब आसान है.
हम नाराज़ होंगे, गुस्सा करेंगे और चाहेंगे कि उस ड्राइवर को सख्त से सख्त सज़ा मिले.
अब कल्पना छोड़कर हकीकत में आइए. जगह बदल लीजिए—भारत की जगह अमेरिका. ड्राइवर की पहचान बदल लीजिए—बांग्लादेशी की जगह भारतीय और स्थानीय भाषा बदल लीजिए—हिंदी की जगह अंग्रेज़ी.
अब ये केस हरजिंदर सिंह का है. 28 साल का एक भारतीय, जो गैर-कानूनी तरीके से अमेरिका पहुंचा. उसने ट्रक चलाया जिससे तीन लोगों की जान चली गई. गिरफ्तारी के बाद वह अंग्रेज़ी और ट्रैफिक संकेत समझने वाले टेस्ट में फेल हो गया.
क्या आपको हैरानी है कि अमेरिका के लोग इतने गुस्से में हैं? कि वह पूछ रहे हैं कि वह गैर-कानूनी तरीके से अमेरिका कैसे आया? उसे लाइसेंस कैसे मिला, जबकि वह इस काम के लिए बिल्कुल भी योग्य नहीं था?
मुझे कोई हैरानी नहीं और शायद आपको भी नहीं होगी.
लेकिन जो मुझे हैरान करता है, वह है — उत्तर अमेरिका की भारतीय मूल की कम्युनिटी में कुछ लोग सिंह का समर्थन कर रहे हैं. उनका कहना है—‘बेचारा लड़का’. यही तर्क पंजाब तक गूंज गया है, जहां नेताओं ने भारत सरकार से कहा है कि वह सिंह की मदद करे. एक बार फिर ‘बेचारा लड़का’ वाली सोच.
इसी बीच, जब सिंह के पक्ष में अभियान चल रहे हैं, तो दो और एजेंडे सामने आए हैं.
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दो एजेंडे
अमेरिका में एक अवैध प्रवासी द्वारा तीन लोगों की मौत का कारण बनना, मौजूदा एंटी-इमिग्रेशन माहौल में स्वाभाविक रूप से बड़ा मुद्दा बनना ही था और जितना ज़्यादा हरजिंदर को अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों का समर्थन मिला, उतना ही ज़्यादा प्रवासियों और उनके समर्थकों के खिलाफ गुस्सा बढ़ा. (इसके अलावा यहां एक घरेलू राजनीतिक लड़ाई भी चल रही है: कैलिफोर्निया, जिसने हरजिंदर को ट्रक चलाने की अनुमति दी, उसका शासन गेविन न्यूसम के हाथों में है, जो राष्ट्रपति ट्रंप के विरोधी डेमोक्रेटिक पार्टी से हैं.)
भारत में दूसरा एजेंडा है. हमें पक्का पता है कि हरजिंदर अमेरिका में अवैध रूप से था, लेकिन यह भी माना जाता है कि वह वहां टिक पाया क्योंकि उसने दावा किया कि अगर वह भारत लौटा तो उसे परेशानी झेलनी पड़ेगी. यह भी कहा गया कि उसका इशारा इस तरफ था कि भारत में सिखों के साथ बुरा व्यवहार होता है. यह भी आरोप लगाया गया कि उसने प्रो-खालिस्तानी तत्वों द्वारा आयोजित रैलियों और सभाओं में हिस्सा लिया.
इस वजह से कई भारतीय उसे ऐसे व्यक्ति की तरह देखते हैं जिसने अमेरिका में रुकने के लिए भारत को बदनाम किया और ‘भारत सिखों के साथ भेदभाव करता है’ जैसे झूठे एजेंडे का सहारा लिया. अब जब वह मुश्किल में है, तो मदद के लिए वही ‘बुरे भारतीयों’ के पास आया है.
अगर आप इस व्याख्या से सहमत हैं (जो, ईमानदारी से कहें तो, अभी पूरी तरह साबित नहीं हुई है), तो पंजाब के नेताओं की यह मांग भी समझ आती है कि हमारे विदेश मंत्रालय को हरजिंदर के पक्ष में हस्तक्षेप करना चाहिए. नेताओं को पता है कि उनकी मांग तर्कसंगत नहीं है और उन्हें परवाह भी नहीं कि यह पूरी होगी या नहीं, लेकिन वह दुनिया भर के सिखों के समर्थक होने का सर्टिफिकेट लेना चाहते हैं.
मैं ‘वह खालिस्तानी है’ वाली दलील पर ज़्यादा समय नहीं गंवाना चाहता क्योंकि अगर यह सच है तो हरजिंदर के लिए कोई केस ही नहीं बचता. अगर उसने सिखों पर अत्याचार का कार्ड खेलकर वहां रुकने की कोशिश की है, तो उसे भारत से कुछ भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. हमें अपनी सहानुभूति या संसाधन ऐसे व्यक्ति पर कभी खर्च नहीं करने चाहिए. शायद उसके लिए बेहतर होगा कि वह गुरपतवंत सिंह पन्नू से मदद मांगे.
किस भारतीय की मदद हो?
यहां एक बड़ा सवाल है—जब विदेशों में रहने वाले भारतीय अपराध के मामलों में फंसते हैं, तो भारत सरकार को कितना दखल देना चाहिए?
सबसे पहले तो एक बुनियादी फर्क समझना ज़रूरी है. जो भारतीय भारत में रहते हैं और यहीं टैक्स देते हैं, उन्हें यह उम्मीद करने का अधिकार है कि अगर वे विदेश यात्रा पर अपराध के आरोप में फंस जाएं तो भारत सरकार कुछ हद तक उनकी मदद करेगी. मदद कितनी मिलेगी, यह हर मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा.
लेकिन जो भारतीय स्थायी रूप से विदेशी देशों में बस गए हैं, उनके पास भारत सरकार से वैसे अधिकार नहीं होते. अगर आप किसी और देश में रहने का चुनाव करते हैं, तो वहां के कानून और न्याय प्रणाली का सम्मान करना चाहिए. मुश्किल आने पर भारत से रोने-धोने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.
यह सीधी-सी बात है, लेकिन इसमें कुछ धुंधले क्षेत्र भी हैं. अगर किसी देश में न्यायिक प्रणाली निष्पक्ष नहीं है, या अगर किसी भारतीय को राजनीतिक या धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है, तो हां, भारत सरकार को उसमें रुचि लेनी पड़ सकती है.
मध्य-पूर्व के देशों में काम करने गए भारतीयों का मामला थोड़ा अलग है. वह वहां स्थायी निवासी नहीं हैं और वैध वर्क वीज़ा पर गए होते हैं. अगर उनके साथ अन्याय होता है, तो भारत सरकार का दखल देना ज़रूरी हो जाता है.
लेकिन पश्चिमी देशों में बसने वाले प्रवासियों के मामले में भारत को आधिकारिक तौर पर दखल देने की ज़रूरत बहुत कम पड़ती है और जहां तक अवैध प्रवासियों का सवाल है—भारत को उनसे हाथ खींच लेना चाहिए. उन्होंने जानते-बूझते कानून तोड़े, सीमा पार की और अवैध तरीके से देश में घुसे.
सिंह उसी आखिरी श्रेणी में है. चाहे उसने भारत लौटने पर पीड़ा होने का झूठा दावा किया हो या न किया हो, सच्चाई यह है कि वह अवैध प्रवासी है और उसकी लापरवाही से हुई दुर्घटना में तीन निर्दोष लोगों की मौत हो गई.
वह पीड़ित नहीं हैं. वह एक बालिग व्यक्ति हैं, जिसने अमेरिकी इमिग्रेशन सिस्टम की कमजोरियों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया. नतीजा—तीन जानें चली गईं.
हमें अमेरिकी अदालतों को ही तय करने देना चाहिए कि उसके साथ क्या किया जाए. इसका भारत से कोई लेना-देना नहीं है.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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