जम्मू: पिछले एक हफ्ते से सरला भट्ट की छोटी बहन अचानक गम के झटकों से जूझ रही हैं. कभी अनंतनाग में बिताए बागबानी के खेल-खुशियों भरे दिन याद आ जाते हैं, तो कभी सड़क के बीचोंबीच पड़ी उनकी लाश की भयानक तस्वीर—जिसे यातना देने के बाद छोड़ दिया गया था. उनके हाथ और गले पर सिगरेट से दागने के निशान थे.
वे आखिरी अलविदा तक नहीं कह पाई. बहन के अंतिम संस्कार में शामिल न हो पाना आज भी उन्हें याद आता है.
अपने दो मंजिला मकान के ड्राइंग रूम में बैठकर रुंधते गले से उन्होंने कहा, “मैं जम्मू में थी जब मुझे बहन की हत्या की खबर मिली. इसके बाद मुझे बस इतना याद है कि मैं दो हफ्ते तक अस्पताल के बिस्तर पर रही.”
और अब, वही गम फिर लौट आया है.
सरला भाट को अगवा कर, यातना देकर और गोली मारकर हत्या करने के लगभग 35 साल बाद, जम्मू-कश्मीर पुलिस की स्टेट इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी (SIA) ने उनका केस दोबारा खोल दिया है. यह सुनकर परिवार हैरान रह गया. अब तक तो उन्होंने इंसाफ की उम्मीद ही छोड़ दी थी.
भट्ट की हत्या कश्मीरी पंडितों के पलायन का अहम मोड़ थी. गोलियों से छलनी उनका शव श्रीनगर के डाउनटाउन में पड़ा मिला था, साथ ही एक पर्ची जिस पर लिखा था — ‘मुखबिर’. इस दृश्य ने पंडितों की बची-खुची उम्मीदों को भी तोड़ दिया था. जल्द ही, जो परिवार अब तक घाटी में थे, वे भी रात के अंधेरे में शहर छोड़ कर बाहर जाने लगे.

अब केस दोबारा खुलने की खबर ने कश्मीरी पंडित परिवारों में 90 के दशक की यादें ताज़ा कर दी हैं — ज़्यादातर अब जम्मू में बसे हैं, कुछ गिने-चुने ही घाटी में बचे हैं.
लेकिन उस समय उनकी मौत खबर भी मुश्किल से बनी. 19 अप्रैल 1990 के एक स्थानीय अखबार ने बस एक लाइन लिखी — “पूर्व मंत्री, नर्स को घाटी में गोली मारी गई.”
ये पुराने ज़ख़्म फिर से ज़िंदा हो गए हैं—खाने की मेज़ पर पड़ोसियों, दोस्तों और परिवारों की लक्षित हत्याओं की बातें, नरसंहार की यादें. जैसे 1998 का वंधामा, जब 23 पंडितों को एक कतार में खड़ा करके अंधेरे में गोलियां मारी गईं.
समय अब अलग है. भारत बदल चुका है. मोदी के दौर में कश्मीरी हिंदुओं के संघर्ष के लिए सहानुभूति और जगह ज़्यादा बनी है. द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में हिट होती हैं. पंडितों की आवाज़ सार्वजनिक चर्चा में ज़्यादा बुलंद है. अब इस त्रासदी को दबाकर रखने की बजाय मान्यता दी जा रही है, लेकिन इससे जांच एजेंसियों का काम आसान नहीं हो जाता.
SIA के लिए जिसने केस से जुड़े आठ ठिकानों पर छापे मारे हैं — जिनमें जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक का घर भी शामिल है—यह उनकी सबसे चुनौतीपूर्ण फाइलों में से है. कई संदिग्ध मर चुके हैं. सबूत बेहद कम हैं. गवाह भी अब लगभग नहीं बचे.
लेकिन पंडितों के लिए यह इंसाफ की एक दुर्लभ उम्मीद है.
हत्या के तुरंत बाद केस दर्ज हुआ था — आईपीसी की धारा 302 (हत्या की सज़ा), 120बी (आपराधिक साज़िश) और टाडा की धारा 3(2) (आतंकी गतिविधि की सज़ा) में, लेकिन इससे आगे कुछ नहीं बढ़ा.
SIA के एक वरिष्ठ अधिकारी ने श्रीनगर में दिप्रिंट को बताया, “90 के दशक में आतंकवाद चरम पर था. माहौल इतना भयावह था कि पुलिस और जांच अधिकारी इन केसों को लेने से डरते थे. कई मामलों में हमारे अफसरों को भी आतंकियों ने मार डाला. जब पंडित घाटी छोड़कर चले गए, हालात इतनी तेज़ी से बदले कि केस ठंडे बस्ते में चले गए.”
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने पंडितों की हत्याओं के केस दोबारा खोलने से इनकार कर दिया था, यह कहते हुए कि “सबूत आएंगे कहां से.” पंडितों के लिए यह एक और बंद दरवाज़ा था.
SIA के एक अधिकारी ने बताया, “इसके बाद समुदाय के संगठनों ने उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से गुहार लगाई. 2023 में सिन्हा ने जम्मू-कश्मीर पुलिस को 90 के दशक की हत्याओं की सूची बनाने का आदेश दिया—जिसके बाद अंततः भट्ट का केस दोबारा खोला गया.”
पंडितों के चले जाने के बाद हालात इतने बदल गए कि केस ठंडे बस्ते में चले गए
— SIA के एक वरिष्ठ अधिकारी
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कदमों का पीछा
भट्ट की लाश से मिला एक नोट जांच में अहम सबूत बन गया है. नोट में लिखा था, “इस लड़की को जेकेएलएफ ने मारा है क्योंकि यह सीआईडी की मुखबिर थी.”
नोट के अंत में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के आतंकियों के दो हस्ताक्षर थे, जिनमें उन्होंने हत्या की ज़िम्मेदारी ली थी. एसआईए ने भट्ट के सीआईडी को सूचना देने से किसी भी तरह के जुड़ाव के सबूत से इनकार किया है. उनकी मौत के समय वह श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ में नर्स थीं. एसआईए ने कहा कि यह हत्या 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाकर की गई हत्याओं की “प्रोटोकॉल” जैसी थी.
अब एसआईए पुराने ढंग की जांच पद्धतियों पर लौटी है. श्रीनगर में बड़े पैमाने पर छापे मारे जा रहे हैं—हाथ में वही नोट लेकर. अब वे हस्तलेख मिलान कर रहे हैं.
एक जांच अधिकारी ने कहा, “90 के दशक में न तो स्मार्टफोन थे, न लैपटॉप, न ही कोई डिजिटल साधन जिन्हें ज़ब्त किया जा सके. अब हम ज़ब्त किए गए दस्तावेज़ों का विशेषज्ञों से विश्लेषण करा रहे हैं.”

एसआईए भट्ट के सहयोगियों की संभावित भूमिका की भी जांच कर रही है, जिनमें उस समय के विभागाध्यक्ष अहद गुरू भी शामिल हैं. आशंका है कि उन्होंने शायद जेकेएलएफ आतंकियों को संस्थान में घुसने की सुविधा दी, जिससे अंततः भट्ट का अपहरण हुआ.
तीन दशक से ज़्यादा बीत जाने के बाद अब एसआईए प्रक्रियागत चूकों, बिगड़ी जांच और गायब फाइलों का बोझ उठा रही है. अप्रैल 1990 में भट्ट की हत्या के कुछ ही समय बाद, दो जेकेएलएफ आतंकी एक मुठभेड़ में मारे गए. उनके हथियार ज़ब्त हुए, लेकिन यह जांच कभी नहीं हुई कि क्या वही हथियार हत्या में इस्तेमाल हुए थे.
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “यहां तक कि नोट के हस्तलेख को भी कभी उन दस्तावेज़ों से नहीं मिलाया गया, जो सालों में जेकेएलएफ के ऑपरेटिव्स से बरामद हुए थे. इस हत्या में आठ जेकेएलएफ ऑपरेटिव्स शामिल थे जिनमें से एक पाकिस्तान में है, तीन मारे गए, एक जेल में है और दो ज़मानत पर बाहर हैं.”
एक और जेकेएलएफ आतंकी, नूर-उल-हक से मामले में पूछताछ की गई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट गायब हो गई है. अब एसआईए के पास सिर्फ मूल एफआईआर बची है जिसकी लिखावट समय के साथ धुंधली पड़ चुकी है और वह नोट, जिसकी फोटो अधिकारी अपने स्मार्टफोन में रखते हैं.
इस तरह एसआईए शुरुआत से फिर लौट आई है, पुराने सहयोगियों से बात कर रही है, अखबारों को खंगाल रही है और यहां तक कि सोशल मीडिया पोस्ट भी विश्लेषित कर रही है ताकि जितने भी टुकड़े मिलें, उन्हें जोड़कर भट्ट की हत्या की पूरी कहानी दोबारा गढ़ी जा सके.
जीती-जागती श्रद्धांजलि
जम्मू के एक कश्मीरी पंडित कैंप के छोटे और तंग अपार्टमेंट में सरला भट्ट के चाचा मोती लाल भट्ट के जर्जर लकड़ी के दरवाज़े पर अजीब-से मेहमान दस्तक दे रहे हैं.
कश्मीरी पंडित संगठनों से लेकर राजनीतिक नेता और मीडिया सभी उनसे बात करना चाहते हैं, समर्थन जताना चाहते हैं, लेकिन वह सबको झिड़क देते हैं और गुस्से में पूछते हैं, “अब जाकर आप सब जागे हैं? पिछले 35 साल कहां थे?”
जब वह दरवाज़ा उनके मुंह पर बंद कर देते हैं, तो पछतावे का बोझ उनके कंधों पर और भारी हो जाता है. छोटा और दुबला शरीर गम से और झुक जाता है.
मोती लाल आज भी अफसोस जताते हैं कि उन्होंने अपने भाई शंभू नाथ और उसकी बेटी सरला को अपने साथ जम्मू क्यों नहीं ले लिया. उन्हें याद है, कैसे उन्होंने अपने बड़े भाई को चरम उग्रवाद के दौरान कश्मीर छोड़ने के लिए मनाने की कोशिश की थी.
लेकिन बड़े भाई चाहते थे कि सरला श्रीनगर के SKIMS अस्पताल में अपना काम पूरा कर, सारी औपचारिकताएं निपटाकर लौटे.
11 अप्रैल 1990 को मोती लाल जम्मू चले गए, अनंतनाग के काज़ी बाग में बने अपने नए तीन मंज़िला घर को छोड़कर. उस घर में परिवार ने मुश्किल से दो महीने पहले ही कदम रखा था.
तीन दिन बाद, उन्हें भतीजी की मौत की खबर मिली और अगले छह महीने तक दोनों भाई, सरला के लिए इंसाफ की तलाश में दर-दर भटकते रहे.
उनकी उंगलियों के बीच ज़िद्द से दबाई हुई सिगरेट लिए हुए मोती लाल गरजे, “हम सचिवालय गए, पुलिस के पास गए, बड़े अधिकारियों तक पहुंचे. बस यही कहा गया कि केस उठाएंगे, लेकिन कभी उठाया नहीं.”
छत की ओर देखते हुए लंबा कश खींचकर उन्होंने भतीजी की लाश याद की गली में पड़ी हुई, उग्रवादियों की लाशों से बस कुछ मीटर दूर, जिन्हें मुठभेड़ में मारा गया था.
नम आंखों से उन्होंने कहा, “स्थानीय लोग आतंकियों की लाशें उठाकर अस्पताल ले गए, लेकिन मेरी बेटी को वहीं मरने के लिए छोड़ दिया.” सिगरेट कब की राख बन चुकी थी, पर वह अब भी उसे पकड़े बैठे थे, जैसे पता ही न हो.
उनके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान थी—“सरला बहुत चुलबुली थी, निडर थी और अपने वक्त से बहुत आगे रहती थी.”
अनंतनाग के सरकारी कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में ग्रेजुएट, सरला लोगों की सेवा करना चाहती थी. इसी चाहत ने उसे नर्सिंग में BSc करने के लिए प्रेरित किया. जल्द ही वह SKIMS में नर्स के रूप में काम करने लगी.
उनकी बहन ने याद किया, “उनका चेहरा गोल था, बाल छोटे और सीधे कटे हुए. उन्हें बागवानी का बहुत शौक था. अगर मुझसे गलती से उसका कोई पौधा मर जाता, तो वह मुझे डंडे लेकर दौड़ाती.” अब वह जम्मू के अपने घर में छोटा-सा बाग संभालती है, हर पौधे को बड़े प्यार से देखभाल करती हैं—सरला की याद में एक जीती-जागती श्रद्धांजलि.
अब जाकर आप सब जागे हैं? पिछले 35 साल कहां थे?
—सरला के चाचा मोती लाल भट्ट
बेइज़्ज़ती से भरा अंतिम संस्कार
जब सरला का शव घर लाया गया, तो मुख्य दरवाज़े पर एक हैंड ग्रेनेड फेंका गया — ऐसा “स्वागत” जिसे परिवार कभी भूल नहीं पाया. उन्हें कभी पता नहीं चला कि यह हमला किसने किया था.
सरला की छोटी बहन ने कहा, “कश्मीरी हिंदू और मुसलमान, दोनों ही हमारे घर पर शोक जताने आ रहे थे. यह जान पाना असंभव था कि इतना असंवेदनशील काम किसने किया होगा.”
उस पल से लेकर अंतिम संस्कार तक, परिवार ने खिड़कियां बंद रखीं और दरवाज़ों की कुंडियां कसकर लगाईं, उन्हें डर था कि कहीं फिर से हमला न हो जाए.
लेकिन, दाह संस्कार के अगले दिन जो हुआ, उसकी याद आज भी सरला की बहन को कंपा देती है. उन्होंने बताया कि जब उनके पिता और घर के अन्य लोग अस्थियां लेने गए, तो कुछ लोगों ने उन्हें रोक लिया और उनके हाथ से थैला छीनने की कोशिश की.
अपने पिता से सुनी को बात को याद करते हुए उन्होंने कहा, “उन्होंने धमकी दी और कहा कि तुम्हारी बेटी मुखबिर थी और 10 आतंकियों की मौत की ज़िम्मेदार भी वही थी.”
उसी रात, परिवार ने काज़ी बाग में अपना घर और कश्मीर छोड़ दिया और अब, हर साल 12 से 14 अप्रैल के बीच क्योंकि सरला की मौत की सही तारीख कभी पता नहीं चली उनकी बहन, भाई और माता-पिता उनकी याद में शोक मनाते हैं और गरीबों को दान देते हैं.
परिवार ने कहा कि सरला के शव के पोस्टमॉर्टम में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई थी, लेकिन उन्हें बर्बरता से यातनाएं दी गई थीं: उनकी कलाई और गर्दन पर सिगरेट से दाग दिए गए थे.
आसपास के लोग आतंकियों के शव अस्पताल ले गए, लेकिन मेरी बेटी को मरने के लिए छोड़ दिया
— सरला के चाचा मोती लाल भट्ट
सरला की हत्या ने उनके परिवार को तो तोड़ा ही, साथ ही समुदाय के अन्य लोगों में गहरा डर भी बैठा दिया.
रुबिन सप्रू ने कभी सरला को नहीं देखा था, लेकिन वे कश्मीर में उनके घर से महज़ 4 किलोमीटर दूर रहते थे. वे सिर्फ 14 साल के थे जब उनकी मौत की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई थी और आसपास के कश्मीरी पंडित अपने घरों में बंद हो गए थे.
उन्हें याद है कि शाम 7:30 बजे, जब स्थानीय रेडियो पर जो तब एकमात्र संचार का साधन था उनकी मौत की खबर सुनाई गई.
अब जम्मू में रह रहे सप्रू ने कहा, “सभी पंडितों ने घरों की बत्तियां बुझा दीं, परदे खींच दिए और रेडियो चालू कर लिया ताकि खबर सुन सकें. वो ऐसे दिन थे.”
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साधारण हत्या नहीं, लेकिन कोई चर्चा भी नहीं
भट्ट की हत्या की खबर अखबारों में ज़्यादा नहीं छपी, लेकिन कश्मीरी पत्रकार अहमद अली फैयाज़ ने सालों तक अलग-अलग मंचों पर उनके बारे में बात करना जारी रखा कभी टॉक शो में, कभी अपने लेखों में और अब, जब केस फिर से खोला गया है, तो सोशल मीडिया पर भी.
एक हालिया पोस्ट में फैयाज़ ने लिखा कि भट्ट की हत्या को उतनी अहमियत नहीं मिली जितनी टीका लाल टपलू (सितंबर 1989 में मारे गए), नीलकांत गंजू (नवंबर 1989), लस्सा कौल (फरवरी 1990) और सरवनंद कौल प्रेमी (मई 1990) की हत्याओं को मिली थी.
फैयाज़ ने दिप्रिंट से कहा, “तब सरला भट की हत्या को किसी हाई-प्रोफाइल मर्डर की तरह नहीं देखा गया.”
1990 के दशक में SKIMS कई उग्रवादी संगठनों का ठिकाना बना हुआ था.
उन्होंने कहा, “प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष खुले तौर पर खुद को उग्रवादी संगठनों से जोड़ते थे. दीवारों और गलियारों में गुरिल्ला समूहों के पोस्टर लगे रहते थे.”
सरला भट की हत्या उस समय हुई जब अब जेल में बंद JKLF नेता यासीन मलिक SKIMS में भर्ती थे. फैयाज़ ने याद किया कि मलिक एक तलाशी अभियान के दौरान तीसरी मंज़िल से कूदने पर घायल हो गए थे और खुद को आम नागरिक बताकर अस्पताल में भर्ती हुए थे.
फैयाज़ ने आगे कहा, “उग्रवादी SKIMS को ‘IMS’ कहते थे नाम से शेर-ए-कश्मीर हटाकर. नेशनल कॉन्फ्रेंस और शेख अब्दुल्ला के प्रति इतनी नफरत थी.”
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, यासीन मलिक के SKIMS में भर्ती रहने के दौरान अस्पताल के तब के विभागाध्यक्ष अहद गुरू को गिरफ्तार किया गया था और पूछताछ के बाद छोड़ा गया.
JKLF को शक हुआ कि गुरू की गिरफ्तारी की जानकारी अस्पताल से ही लीक हुई थी. अधिकारी ने कहा, “कहा जाता है कि सरला का नाम किसी नज़दीकी ने दिया, यह कहते हुए कि वह कश्मीरी पंडित थीं और इसलिए शक का दायरा उन पर आसानी से आ सकता था.”
12 अप्रैल की रात, जब सरला अस्पताल से हॉस्टल लौट रही थीं, उग्रवादियों ने उन्हें एक सफेद मारुति में अगवा कर लिया. दो-तीन दिन बाद, उनकी यातनाओं से भरी लाश एक एम्बुलेंस में लाकर सड़क पर फेंक दी गई. उनकी शर्ट की जेब में एक नोट भी रखा गया था.
पुलिस इस केस में यासीन मलिक और एक अन्य पूर्व उग्रवादी (जो अभी ज़मानत पर बाहर है) की भूमिका भी जांच रही है. पुलिस के मुताबिक आरोपियों में से एक इस समय पाकिस्तान में है.
2009 में अपने टॉक शो Face to Face with Ahmed Ali Fayyaz पर फैयाज़ ने JKLF के पूर्व डिप्टी कमांडर शोकत बक्शी का इंटरव्यू किया था. इस दौरान बक्शी ने सरला भट की हत्या पर अप्रत्यक्ष स्वीकारोक्ति दी.
फैयाज़ ने याद किया, “मैंने बक्शी से सरला की हत्या के बारे में पूछा. उन्होंने कहा कि हमारे बीच कुछ ‘ब्लैक शीप’ थे, जो पाकिस्तान से ट्रेनिंग लेकर आए थे, लेकिन मैंने उनसे कहा—ये घटनाएं JKLF ने खुद क्लेम की थीं, तो ज़िम्मेदारी आपकी है.”
उस दौर में फैयाज़ ने बताया, पूर्व उग्रवादी और अलगाववादी नेता अक्सर इंटरव्यू में आते थे, जबकि आज ऐसा कम ही होता है.
बेचैनी में जीना
भट्ट के केस के दोबारा खुलने के साथ ही सोशल मीडिया पर अफवाहों और गलत जानकारियों की लहर भी चल पड़ी, जिसमें सरला भट्ट की हत्या और गिर्जा टिक्कू की हत्या को लेकर भ्रम भी शामिल है. गिर्जा टिक्कू, एक और कश्मीरी पंडित महिला थीं, जिनके साथ गैंगरेप, हत्या और अंग-भंग हुआ था.
सरला के परिवार ने दिप्रिंट को बताया कि उनकी गलत तस्वीरें ऑनलाइन खूब फैलाई गईं. उनकी बहन ने कहा, “गलत तस्वीरें और गलत जानकारी देखकर हमें बहुत दुख और परेशानी हुई.”
एसकेआईएमएस में पढ़ाई के दौरान सरला हर हफ्ते अनंतनाग स्थित अपने घर आती थीं, लेकिन जिस हफ्ते उनकी हत्या हुई, उस हफ्ते वे घर नहीं आईं. कर्फ्यू और संचार साधन बंद होने के कारण परिवार को अंदेशा हो गया कि कुछ गड़बड़ है.
तब उनकी छोटी बहन 20 साल की थीं. तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी सरला ही सबकी ताकत थीं. आतंकवाद चरम पर था, फिर भी वे परिवार को यही कहती थीं कि कश्मीर छोड़कर मत जाओ.
उनके चचेरे भाई जो उस वक्त 9वीं क्लास में थे, याद करते हैं, “वो बहुत बहादुर थीं. कहती थीं—‘कश्मीर हमारी ज़मीन है. हमें कुछ नहीं होगा.”

सरकारी स्कूल के हेडमास्टर की बेटी, सरला को उनका चचेरा भाई आज भी एक आज़ाद ख्यालों वाली, निडर और अपने तरीके से जीने वाली लड़की के रूप में याद करता है. उनकी मौत ने परिवार को आज तक बेचैन कर रखा है. अब वे हर वक्त एक-दूसरे पर नज़र रखते हैं, बाहर निकलने से पहले अपनी लोकेशन साझा करते हैं और लगातार डर में जीते हैं.
उनकी छोटी बहन आज भी एक सवाल से परेशान रहती हैं: “तीन दिन तक मेरी बहन ने क्या सोचा होगा? क्या वो सब अकेले झेल रही थी? शायद वो थक गई होगी और हॉस्टल जाकर आराम करने की सोच रही होगी. क्या उसे पहले ही अंदेशा हो गया था कि कुछ गड़बड़ है?”
उनके पिता, जिनकी हाल ही में हार्ट सर्जरी हुई है, के लिए केस का फिर से खुलना एक पुराने ज़ख्म को कुरेदने जैसा था.
बहन ने कहा, “मैं और मेरा भाई, मां-बाबा के सामने सरला और केस की बात ज़्यादा नहीं करते.”
उनकी मां, जो इस सदमे से कभी उबर नहीं पाईं, आज भी हिंदी में ठीक से बात नहीं कर पातीं.
भाई ने कहा, “सरला की मम्मी सिर्फ कश्मीरी में ही बोल पाती हैं.”
जिस दिन केस फिर से खुला, उनके पिता शंभूनाथ ने पुरानी सारी फाइलें, पीले पड़ चुके अखबारों की कतरनें और सालों से जमा किए गए दस्तावेज़ फिर से खंगाले. उस रात वे सो नहीं पाए.
जम्मू के एक पड़ोसी ने कहा, “चाचा कई दिनों से बीमार हैं. वे तो अपनी रोज़ की सैर पर भी नहीं निकल रहे हैं.”
अनंतनाग के काज़ी बाग में अब भट्ट परिवार का घर एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार के पास है. वही नया बना घर जिसे वे मजबूरी में जम्मू भागते समय बेच गए थे. गलियां वही हैं, पड़ोसी वही हैं, मगर अब कोई सरला को याद नहीं करता या शायद, याद नहीं करना चाहता.
जो कभी कश्मीरी पंडितों का रौनक भरा मोहल्ला था, काज़ी बाग में आज एक भी पंडित परिवार नहीं बचा.
पिछले 35 सालों से न तो शंभूनाथ और न ही उनके भाई मोतीलाल ने कश्मीर में कदम रखा है.
मोतीलाल ने कहा, “हमने कश्मीर नहीं देखा और अब देखना भी नहीं चाहते. जिस दिन सरला मारी गई, उसी दिन हमारे लिए कश्मीर खत्म हो गया था.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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