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Thursday, 14 August, 2025
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ट्रंप के पाकिस्तान प्रेम के पीछे वजह है — मामला खाड़ी की सुरक्षा का है

तुर्की और मिस्र की तरह, पाकिस्तान भी उन चुनिंदा देशों में है जिनके पास खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा में मदद करने के लिए जनशक्ति और ढांचा मौजूद है, खासकर जब ट्रंप का अमेरिका अपनी सैन्य मौजूदगी कम कर रहा है.

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“उसके दोस्त भी उसे पसंद नहीं करते थे,” एक जीवनीकार ने बाद में याद किया—उसका दिमाग शीत युद्ध के डर और भ्रम से इस तरह जकड़ा था कि वह दुनिया में हिंसा का एक न खत्म होने वाला सिलसिला पैदा करता रहा. 1954 की एक सुबह, अमेरिका के विदेश मंत्री अपने दफ्तर में बैठे थे—जिसे प्यार से फॉगी बॉटम कहा जाता है और कॉलमनिस्ट वॉल्टर लिपमैन को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि पाकिस्तान के साथ आपसी रक्षा समझौता क्यों ज़रूरी है. जॉन फॉस्टर डलेस ने कहा, “एशिया में असली लड़ाके सिर्फ पाकिस्तानी हैं. इसीलिए हमें उन्हें गठबंधन में चाहिए. हम गोरखाओं के बिना कभी नहीं रह सकते.”

लिपमैन ने धीरे से टोका—“फॉस्टर, गोरखा पाकिस्तानी नहीं, भारतीय हैं.”

“खैर,” डलेस ने हकीकत से बेपरवाह होकर जवाब दिया, “शायद वे पाकिस्तानी न हों, लेकिन वे मुसलमान हैं.”

लिपमैन ने फिर कहा, “नहीं, मुझे डर है वे मुसलमान भी नहीं हैं.”, लेकिन मशहूर पत्रकार की बात बेकार गई.

पिछले कई हफ्तों से, दुनिया भर के रणनीतिक मामलों के जानकार यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पाकिस्तान के जनरलों के साथ इतना नज़दीकी रिश्ता क्यों बना रहे हैं—जो पिछले सत्तर साल में सबसे लंबा और गंभीर प्रयास है. कुछ वजहों में शामिल हैं—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मई के चार दिन के युद्ध के अंत पर ट्रंप के बयान को खारिज करना, कश्मीर मुद्दे पर उनकी बार-बार मध्यस्थता की पेशकश को भारत का ठुकराना और सीधी-सादी नस्लभेद की सोच.

ये सब वजहें हो सकती हैं, लेकिन एक और बड़ी वजह है जिस पर भारत को खास ध्यान देना चाहिए. दशकों से, अमेरिका ने मध्य पूर्व में अपने ठिकानों पर हज़ारों सैनिक तैनात रखे हैं, ताकि वहां से दुनिया के बाज़ारों में ऊर्जा की आपूर्ति सुरक्षित रहे.

पहले कार्यकाल से ही ट्रंप चाहते हैं कि मध्य पूर्व के देश अपनी सुरक्षा के लिए खुद की सेनाएं तैनात करें. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिकी सैनिकों को अब भविष्य की बड़ी ताकतों के बीच होने वाले युद्धों की तैयारी करनी चाहिए. ट्रंप के कुछ सलाहकार कहते हैं कि इसका सबसे अहम हिस्सा रियाद, सऊदी अरब में फैला एक विशाल सैन्य मुख्यालय है, जहां एक पाकिस्तानी जनरल उस सेना की कमान संभालता है जो अभी तक बनी ही नहीं है.


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एक पुराना, नया शीत युद्ध

43 देशों की इस्लामिक मिलिट्री काउंटर-टेररिज़्म फोर्स (IMCTC) जिसकी कमान 2016 से पाकिस्तान के पूर्व आर्मी चीफ जनरल राहील शरीफ के पास है, उसका महत्व इस कहानी से जुड़ा है कि किस तरह अमेरिका मध्य पूर्व की सबसे बड़ी ताक़त बन गया. 1938 में सऊदी अरब में विशाल तेल-गैस भंडार मिलने के बाद अमेरिका ने वहां की ऊर्जा ढांचे में भारी निवेश किया. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उस ढांचे की सुरक्षा के लिए अमेरिका ने ईरान, ओमान और सऊदी अरब में सैन्य ठिकाने बनाए.

शीत युद्ध शुरू होने से पहले ही अमेरिकी नेताओं को पता था कि इसका मतलब क्या है. 1944 में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डीलानो रूज़वेल्ट ने एक ब्रिटिश राजनयिक से कहा, “पर्शियन (ईरान का) तेल तुम्हारा है, हम इराक और कुवैत का तेल बांटते हैं और सऊदी अरब का तेल हमारा है.”

अमेरिका अपने पहले 100 साल के इतिहास में विदेशी सैन्य संघर्षों से दूर रहने का समर्थक रहा था, लेकिन इतिहासकार जॉन गैडिस लिखते हैं कि बिना औपचारिक साम्राज्य बनाए, अमेरिका एक साम्राज्य का मालिक बन बैठा.

अमेरिकी राजनयिकों को भी इस साम्राज्य के मायने साफ समझ आ गए थे. 1946 में मास्को से भेजे एक मशहूर राजनयिक संदेश में जॉर्ज केनन ने लिखा कि सोवियत संघ खुद को पूंजीवादी देशों से घिरे एक दुश्मन घेरे में देखता है, लेकिन सोवियत अपेक्षाकृत कमजोर थे और उनके पास बड़े साम्राज्यवादी मंसूबे नहीं थे. इसलिए केनन ने कहा, “यह समस्या हमारे काबू में है और इसे किसी बड़े सैन्य संघर्ष के बिना हल किया जा सकता है.”

अब डिक्लासीफाइड CIA दस्तावेज़ बताते हैं कि पाकिस्तान को इस रोकथाम रणनीति में शामिल करने के नतीजों पर अमेरिका ने डलेस के “गोरखा” वाले बयान से कहीं ज्यादा गंभीरता से सोचा था. 1949 के अंत में, भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर टी.एस. संजीवी ने CIA से संपर्क किया, ताकि तेलंगाना में वामपंथी विद्रोह को रोकने में मदद ली जा सके. इन मुलाकातों ने केनन को यह यकीन दिलाया, इतिहासकार पॉल मैग्गार के अनुसार, कि अमेरिका को “भारत की सीमाओं से बाहर देखना होगा और बाहरी खतरों पर नीति को प्रभावित करना होगा.”

1950 के शुरुआती वर्षों में, भारत ने शीत युद्ध में किसी पक्ष का समर्थन करने से इनकार किया, जिससे अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ गठबंधन पर और गंभीरता से विचार करना शुरू किया.
पाकिस्तान का असर मध्य पूर्व में धर्म, बड़ी सेना और तीन अहम क्षेत्रों से लगी सीमाओं के कारण था, ईरान (सोवियत विस्तार का संभावित निशाना), सोवियत समर्थक चीन, और अफगानिस्तान.

CIA के एक आकलन ने चेतावनी दी कि पाकिस्तान को सैन्य मदद देने से भारत का यह शक पक्का होगा कि एशिया की असली समस्या कम्युनिस्ट क्रांति का खतरा नहीं, बल्कि “पश्चिम के सैन्यवादी देशों की अनुचित नीतियां” हैं, लेकिन अगर पाकिस्तान को सैन्य मदद से वंचित किया गया, तो देश चलाने वाले अभिजात वर्ग कमजोर होंगे और “कट्टरपंथी धार्मिक ताकतें” मजबूत होंगी, जो पश्चिम से करीबी रिश्तों का विरोध करती हैं और कश्मीर पर ज्यादा आक्रामक नीति चाहती हैं.

बंधन जो जोड़ते हैं

शुरुआत से ही पाकिस्तान के पास एक ऐसी बढ़त थी जो सिर्फ ताक़त के संतुलन की गणनाओं से आगे थी. जैसे आज ट्रंप करते हैं, वैसे ही अमेरिकी नेता पाकिस्तान के बेहद पश्चिमीकरण और पूंजीवाद समर्थक नेताओं की तुलना भारत के वैचारिक रूप से विरोधी और कभी-कभी सांस्कृतिक रूप से सीमित नेताओं से करते थे.

1955 में पाकिस्तान में अमेरिका के राजदूत होरेस हिल्ड्रेथ ने डलेस को लिखा कि वे जनरल इस्कंदर मिर्ज़ा को प्रोटोकॉल तोड़कर राजकीय यात्रा पर बुलाएं. चिट्ठी से साफ था कि हिल्ड्रेथ पर उनके दामाद हुमायूं मिर्ज़ा (जनरल इस्कंदर के बेटे, जो उस समय हार्वर्ड में पढ़ रहे थे) का प्रभाव था.

इसके विपरीत, भारत के नेता अपने साम्राज्यवाद विरोधी विचारों को खुलकर रखते थे और अमेरिका के तुर्की व मिस्र के साथ सुरक्षा समझौतों की आलोचना करते थे, ऐसे मुद्दे जिनमें वाशिंगटन को लगता था कि नई दिल्ली का कोई रणनीतिक हित नहीं है. वॉशिंगटन में बढ़ता कम्युनिस्ट विरोधी माहौल 1954 में और पक्का हो गया, जब जिनेवा समझौते से वियतनाम का विभाजन हुआ. राष्ट्रपति ड्वाइट आइज़नहावर और डलेस को लगा कि इस समझौते ने एशिया को कम्युनिज़्म के लिए और संवेदनशील बना दिया है.

इसीलिए 1954 में अमेरिका और पाकिस्तान ने पारस्परिक रक्षा सहायता समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे सैन्य मदद के दरवाज़े खुल गए. इसके साथ ही, इस्लामाबाद दक्षिण-पूर्व एशिया संधि संगठन (SEATO) का हिस्सा बन गया, जिसमें अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस और थाईलैंड शामिल थे. इसे यूरोप के NATO की तर्ज़ पर बनाया गया था.

हालांकि, इतिहासकार डेमियन फेंटन बताते हैं कि पाकिस्तान द्वारा इस गठबंधन को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिशें हमेशा सफल नहीं रहीं. ज़्यादातर SEATO कमांडर पाकिस्तान के इन दावों को नज़रअंदाज़ करते थे कि पश्चिमी पाकिस्तान को इस तरह लैस होना चाहिए कि वह अफगानिस्तान और पूर्वी ईरान से आने वाले सोवियत के आठ और अफगानिस्तान के चार डिविज़न के हमलों का सामना कर सके, साथ ही चीन के शिनजियांग पहाड़ों से आने वाले PLA के दो डिविज़न के हमलों से भी निपट सके. ब्रिटेन खास तौर पर कहता था कि सोवियत संघ से असली ख़तरा पाकिस्तान को नहीं, बल्कि मध्य पूर्व के तेल क्षेत्रों को है.

फिर भी, इस रिश्ते से पाकिस्तान को असली फ़ायदे मिले, 1954 से 1961 के बीच पाकिस्तान एयर फ़ोर्स को 130 F-86F सेबर जेट फ़ाइटर, 24 मार्टिन B-57 जेट बॉम्बर मिले और वह NATO के बाहर पहला देश बन गया जिसे लॉकहीड F-104A स्टारफाइटर (एक हाई-एल्टीट्यूड इंटरसेप्टर) दिया गया.

मध्य पूर्व की ओर

1973 के युद्ध के बाद प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार ने SEATO से नाता तोड़ लिया और चीन के साथ गहरे संबंध बनाने शुरू कर दिए, लेकिन कुछ परिस्थितियों ने इस्लामाबाद को पश्चिमी देशों के लिए एक अहम सहयोगी बनाए रखा. 1970 से ही सैन्य शासक जनरल याह्या ख़ान ने अमेरिका और चीन के बीच संपर्क स्थापित कराए थे, जब चीन ने सोवियत संघ से दूरी बना ली थी. इस रिश्ते ने पाकिस्तान को असली रणनीतिक अहमियत दी. फिर 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के बाद जनरल मुहम्मद ज़िया-उल-हक की सरकार इस्लामी विद्रोहियों तक हथियार और प्रशिक्षण पहुंचाने का मुख्य रास्ता बन गई.

SEATO के अंतिम वर्षों में एक और रणनीतिक धुरी भी बनी, जैसा कि विद्वान मार्विन वाइनबाम और अब्दुल्ला खुर्रम बताते हैं. 1960 के मध्य से, जब सऊदी अरब की राजशाही को डर था कि मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासिर की अरब राष्ट्रवादी सरकार यमन में अपने सहयोगियों को मदद देगी, तब सऊदी अरब ने प्रशिक्षण और समर्थन के लिए पाकिस्तान का रुख किया.

हालांकि, सऊदी अरब को पाकिस्तान और ईरान की राजशाही के रिश्तों पर शक था, जो 1958 में अमेरिकी नेतृत्व वाले CENTO सैन्य समझौते से औपचारिक हुए थे, लेकिन घटनाओं ने दोनों देशों को करीब ला दिया.

1969 में पाकिस्तानी पायलटों ने रॉयल सऊदी एयर फ़ोर्स के पहले फाइटर जेट उड़ाए, जिन्हें दक्षिण यमन के हमले को रोकने में इस्तेमाल किया गया. एक पाकिस्तानी बटालियन को सऊदी-यमन सीमा पर भी तैनात किया गया. 1990 में, कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद पाकिस्तान ने 5,000 सैनिक सऊदी अरब भेजे.

यही रिश्ता अब ट्रंप की पाकिस्तान रणनीति का केंद्र है. मध्य पूर्व की रक्षा के लिए अमेरिकी बेस नेटवर्क, जो दर्जन से ज़्यादा देशों में सीधी मौजूदगी, नौ स्थायी ठिकाने और नौसैनिक संसाधन शामिल करता है, उसकी लागत निकालना आसान नहीं है. अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि यह सालाना 73 अरब से 100 अरब डॉलर (2017 के मूल्य में) के बीच है, यानी अमेरिकी रक्षा बजट का कम से कम 15%.

आर्थर हरमन ने 2014 में अनुमान लगाया था कि “क्षेत्र के शिपिंग लेन, जिसमें स्ट्रेट ऑफ होरमुज़ भी शामिल है, उसको टैंकर यातायात के लिए खुला रखना पेंटागन को औसतन 50 अरब डॉलर सालाना पड़ता है और इसके बदले हमें वहां की जनता की स्थायी दुश्मनी मिलती है.”

जैसा कि विशेषज्ञ जोनाथन स्टीवेंसन का कहना है कि हालांकि, आगे के ठिकाने बनाए रखने के कई तर्क हैं, जैसे सऊदी अरब जैसे देशों को यह भरोसा दिलाना कि उन्हें परमाणु हथियार लेने की ज़रूरत नहीं है और मज़बूत मिसाइल-रोधी सुरक्षा देना, लेकिन आर्थिक दबाव लगातार बढ़ रहे हैं.

तुर्की और मिस्र की तरह, पाकिस्तान भी उन कुछ देशों में है जिनके पास मानव संसाधन और ढांचा है, जो अमेरिका की सैन्य मौजूदगी घटने पर भी फारस की खाड़ी की सुरक्षा में मदद कर सकते हैं. पाकिस्तान की सेना अमेरिका की ज़रूरत के कई काम—बेस लॉजिस्टिक्स, पोर्ट सुरक्षा, गार्ड ड्यूटी—काफी कम लागत में कर सकती है और IMCTC के तहत लंबे समय तक आतंकवाद-रोधी अभियानों में पाकिस्तानी सैनिकों को लगाने की वास्तविक लागत, अमेरिकी जानें गंवाने से कहीं कम है.

फील्ड मार्शल आसिम मुनीर ने दिखा दिया है कि वे बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन उनकी “कीमत” क्या होगी, यह अभी देखना बाकी है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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