आज जम्मू-कश्मीर की जो हालत है उसे देखने-समझने का यह नया नज़रिया है. इस विवाद में एक पक्ष 70 वर्षों से कश्मीर मसले को इस तरह देखता रहा है मानो वह पीर पंजाल की चट्टानों में गहरा खुदा यह संदेश हो कि यह तो बंटवारे का ‘अधूरा छूटा एक काम’ है. यह नज़रिया है उस पक्ष का, जिसका नाम पाकिस्तान है.
भारत इससे कभी सहमत नहीं हुआ— पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर पर अपने दावे पर ज़ोर देने के बावजूद. भारत का नज़रिया यह रहा है कि बंटवारा तो 1947 में पूरा हो गया. हम उससे आगे बढ़ चुके हैं, तुम भी आगे बढ़ जाओ. यह साफ-साफ कभी कहा नहीं गया मगर अंतर्निहित भाव यही रहा.
पाकिस्तान इससे असहमत रहा. 1950 वाले दशक में उसने अमेरिका के साथ सैन्य संधियां करके अपनी फौजी ताकत बढ़ाने की कोशिश की. 1960 वाले दशक में जब वह इसमें कामयाब हो गया तो उसने उस ‘अधूरे छूटे काम’ को पूरा करने यानी कश्मीर को जबरन हथियाने के लिए पूरी फौजी मुहिम छेड़ दी. 1970 वाले दशक में 1971 में वह अपने मुल्क के दो टुकड़े होने और मात खाने के बाद सुस्ताता रहा. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने उसका ध्यान पश्चिम की ओर, इस्लामी देशों खासकर अरबों की ओर मोड़ा और उम्मा में सुकून हासिल करने की कोशिश की. लेकिन ‘अधूरे काम’ को वह भूला नहीं. पाकिस्तानी हुक्मरान माकूल समय का इंतज़ार करने लगे.
माकूल समय उसे 1980 के दशक के आखिर में मिला. 1989-90 तक उसे लगने लगा कि उसके पास अब एक कारगर रणनीति तैयार है. इसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में सोवियत संघ को शिकस्त देने में किया जा चुका था. इसमें परमाणु छतरी भी हासिल थी. उस समय कश्मीर में जो बेमेल जंग शुरू की गई वह आज 30वें साल में पहुंच गई है. 1990 के दशक में (जब नरसिंह राव ने अलगाववाद को कुचल डाला था) इसमें थोड़ी सुस्ती आई थी. लेकिन भाड़े के विदेशी मुजाहिद्दीन सामने आ गए तब यह जंग व्यापक इस्लामी अलगाववाद की लहर पर सवार होकर फिर तेज हो गई थी. करगिल में घुसपैठ इसका अगला दांव था. भारत की ओर से करारे जवाब और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान का कोई वजन न होने के कारण यह दांव विफल रहा.
1999 में परवेज़ मुशर्रफ द्वारा तख्तापलट के बाद अलगाववाद पूरी तरह पाकिस्तानी जिहादियों के बूते फिर खुल कर हावी हो गया. जब यह अपने चरम पर पहुंच गया तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने शिखर वार्ता की पाकिस्तान की पेशकश कबूल कर ली. लेकिन मुशर्रफ ने आगरा की इस बैठक में अपने जो शाही तेवर दिखाए उसने धुर शांतिवादी पूर्व प्रधानमंत्री आइ. के. गुजराल को भी सन्न कर दिया. उन्होंने कहा कि मुशर्रफ तो ऐसे बरताव कर रहे हैं मानो वे किसी ‘पराजित देश’ के दौरे पर आए हैं.
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आगरा शिखर वार्ता विफल हो गई. 9/11 कांड के बाद पाकिस्तान का वजन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिर से बढ़ गया. कभी वह उपेक्षा के लायक सहयोगी और सिरदर्द माना जाता था मगर अब (बुश की नज़रों में) ‘अग्रणी साथी’ बन गया था.
कश्मीर में खूनखराबा अपने चरम पर पहुंच गया. क्या आप जानना चाहते हैं कि उस साल अमेरिका पर पाकिस्तान का दबदबा कितना गहरा हो गया था? जब कश्मीर में पहले फिदायीन हमले में प्रदेश विधानसभा पर बमबारी की गई, तो अमेरिकी विदेश मंत्री कॉलिन पोवेल ने इसे भारत सरकार की एक ‘इमारत’ पर हमला बताया था.
भारतीय संसद पर हमला, इसके बाद लगभग युद्ध के हालात, और फिर वाजपेयी तथा मनमोहन सिंह के दौर में शांति बहाली की जो लंबी प्रक्रिया चली वह सब करीब के इतिहास का ही हिस्सा है. अफसोस की बात यह है कि तब भी पाकिस्तान के हुक्मरान माकूल समय का ही इंतज़ार कर रहे थे. अमन बहाली की कोशिशों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना भी एक बेमेल युद्ध जैसा ही था. जब भी आइएसआइ को इल्हाम होता कि भारत को ‘काफी लंबी’ मोहलत दे दी गई है, तभी भारत पर कोई बड़ा हमला कर दिया जाता. कई ट्रेनों को बम का निशाना बनाया गया, कश्मीर में निरंतर हमलों के साथ भारत की दूसरी जगहों पर भी खूनखराबों को अंजाम दिया जाता रहा. और फिर 2008 में मुंबई में जनसंहार किया गया. यह सिलसिला अगले दशक में भी जारी रहा. हर बार कुछ देर की शांति के बाद भारत के जबड़े पर वार किया जाता रहा— गुरदासपुर, पठानकोट, पुलवामा…. गिनते जाइए!
भारत तरह-तरह से जवाब देता रहा— कश्मीर में अलगाववाद विरोधी मुहिम चलाकर, करगिल में स्थानीय स्तर पर युद्ध लड़कर, (संसद पर हमले के बाद) कूटनीतिक मुहिम चलाकर, या (26/11 कांड पर) रणनीतिक संयम बरत कर.
पहल हमेशा पाकिस्तान करता रहा. 70 सालों से वह इसी भ्रम को पाले रहा कि अगर वह भारत को लहूलुहान करता रहा तो आखिर एक दिन तो वह हार मान ही लेगा. पाकिस्तान ने 1965 के दुस्साहस के बाद कश्मीर को हासिल करने की उम्मीद छोड़ दी थी. लेकिन अपना मुंह बचाने, कुछ कर दिखाने की उम्मीद उसने नहीं छोड़ी.
1965 से पहले मुख्यतः ब्रिटिश दबाव के अंदर भुट्टो-स्वर्ण सिंह वार्ता में घाटी के चार जिलों में जमीन के कब्जे के सौदे से लेकर मुशर्रफ-वाजपेयी/मनमोहन दौर में सीमाओं को खुला बनाने और कश्मीर को स्वायत्तता देने के प्रयासों तक पाकिस्तान इसकी अपेक्षाओं को नियंत्रित करता रहा. उसे भरोसा रहा कि अंततः ‘कुछ’ तो हासिल होगा ही. कुछ ऐसा, जिसे वह बंटवारे का अधूरा छूटा काम मानता रहा.
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इसके उलट, इस साल 5 अगस्त को मोदी सरकार ने उस ‘काम’ को पूरा कर दिया. भारत का हर प्रधानमंत्री घड़ी को इसी दिशा में घुमाता रहा था. अनुच्छेद 370 और कश्मीर के विशेष दर्जे तथा स्वायत्तता के विचारों को इतने दशकों में जाने-अनजाने बेमानी कर दिया गया था. नरेंद्र मोदी ने उस पर मुहर लगा दी है. बेशक इससे उन्हें घरेलू राजनीति में काफी फायदा मिलेगा. लेकिन उन्होंने कभी यह तो दावा नहीं किया कि वे राजनीतिक नेता नहीं हैं! अब वह काम पूरा कर दिया गया है, तो अब आगे हम किधर जाएंगे?
1947 के बाद पहली बार पाकिस्तान को जुगत भिड़ानी होगी कि जब पहल उसके हाथ से छिन गई है तब वह क्या रणनीति अपनाए. भारत ने कश्मीर, या कि भारत के हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर के दर्जे को लेकर वार्ता के दरवाजे बंद कर दिए हैं. पाकिस्तान बेशक इसे जबरन अपने कब्जे में करने की कोशिश कर सकता है. लेकिन एक सम्पूर्ण युद्ध के अपने नतीजे होंगे. आतंकवाद अगर फिर उभरा तो उसका नई कसौटी के तहत मुक़ाबला किया जाएगा.
कश्मीर की सबसे पुरानी हकीकत यह है कि यह कभी भी न तो अंतरराष्ट्रीय मसला था और न आपसी द्विपक्षीय मसला था. इसमें द्विपक्षीय अगर कुछ था तो वह आपसी ढोंग था. पाकिस्तान के लिए वह ‘आज़ाद कश्मीर’ का कपटपूर्ण भ्रम था, मानो उसके लिए भारत या पाकिस्तान के अलावा ‘आज़ादी’ या कोई तीसरा विकल्प भी था. भारत के लिए यह कश्मीरी स्वायत्ता और विशेष दर्जे के प्रति एक नैतिकतापूर्ण, राजनीतिक तथा संवैधानिक वादे का अगंभीर किस्म का बहाना था. हमारे 13 में से किसी भी प्रधानमंत्री को इसमें कोई विश्वास था, जवाहरलाल नेहरू को भी नहीं. यह सब अब दफन हो चुका है.
इसलिए नई हकीकत मूलतः वही पुरानी वाली है, कि— दोनों देशों के बीच अब जमीन का कोई लेन-देन नहीं होने वाला, चाहे वे, भुट्टो के कहे मुताबिक एक हज़ार साल (जिसमें से अभी 72 ही बीते हैं) तक क्यों न लड़ते रहें. या एक-दूसरे पर एटम बम ही क्यों न गिरा दें. कश्मीर की भौगोलिक स्थिति अब कभी बदलने वाली नहीं है. पाकिस्तान की लाज बचाने के लिए दिखावे की कोई चीज़ भी अब संभव नहीं है.
पाकिस्तानी सत्तातंत्र में एक कठोर (मगर आत्मघाती रूप से ताकतवर) एक ऐसा तबका मौजूद है जो अभी भी ‘गजवा-ए-हिन्द’ की प्राचीन कल्पना में यकीन रखता है, जिसके मुताबिक उनकी अगुआई में इस्लामी ताक़तें ‘हिंदुस्तान के टुकड़े-टुकड़े करके उसे अपना ग़ुलाम’ बना लेंगी. इसी सपने को उन बेवकूफ़ों (वे कौन थे यह हम अभी तक नहीं जानते) ने आवाज़ दी थी जब उन्होंने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे….’ का नारा लगाया था. भारत के कोई टुकड़े नहीं होने वाले, और कश्मीर भी जहां का तहां रहने वाला है.
पाकिस्तान इस समीकरण से बाहर हो चुका है. तो अब आगे क्या होगा?
आप नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पसंद करें या न करें, सबसे पहले तो यह मान लीजिए कि 5 अगस्त को जो कुछ हुआ उसे पलटे जाने की संभावना को लोगों में ज़ीरो समर्थन हासिल है. कश्मीर की स्थिति पर भारत में व्यापक राजनीतिक और लोकप्रिय सहमति बन चुकी है. यह मान लेने के बाद तमाम अपराधबोध और आत्मनिंदा को खारिज कर दीजिए. चूंकि आप अपने संविधान की कसम खाते हैं, तो इसे अनुच्छेद 370 से नहीं अनुच्छेद 1 से पढ़ना शुरू कीजिए. अनुच्छेद 1 में भारत के राज्यों और भूभागों की सूची दी गई है, जिसमें जम्मू-कश्मीर 15वें नंबर पर मजबूती से दर्ज है. आप अनुच्छेद 1 से मुंह मोड़कर केवल एक अस्थायी अनुच्छेद 370 के लिए संविधान की कसम नहीं खा सकते.
इसके बाद जो बचा रहता है वह बहुत साफ और सरल है. जम्मू-कश्मीर में सभी नागरिक तथा मानव अधिकारों की बहाली के लिए, संचार व्यवस्था, आवाजाही, लोगों के इकट्ठा होने, शांतिपूर्ण विरोध करने, राजनीतिक गतिविधियां करने की छूट देने के लिए आवाज़ उठाइए और संघर्ष कीजिए. यही सबसे सही लड़ाई होगी.
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कश्मीरियों के संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए लड़िए, ताकि वे भी हम भारतीय नागरिकों की बराबरी में आ जाएं. कोई वजह नहीं है की उन्हें भी तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल या गुजरात के नागरिकों की तरह समान अधिकार न मिलें. यह तो हमेशा से मिलना चाहिए था, सिवाय तब जब पाकिस्तान के साथ ‘झगड़ा’ चल रहा था और अनिश्चय की स्थिति थी, या बंटवारा मुकम्मल नहीं हुआ था.
तीस सालों में 42 हज़ार जानें गंवाने के बाद कश्मीर में एक नया इतिहास शुरू हुआ है. हम चाहें तो इसे अब तक के इतिहास से बेहतर बना सकते हैं.
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