डॉनल्ड ट्रंप की भारत को लेकर की गई तमाम बयानबाजी के बीच यह याद रखना ज़रूरी है कि वह पहले अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं हैं जिन्होंने पाकिस्तान को भारत पर तरजीह दी हो. हम यह भूल जाते हैं कि जब पाकिस्तान ने खुले तौर पर कोल्ड वॉर के समय अमेरिका से गठबंधन किया था, तब अमेरिकी विदेश नीति को नई दिल्ली ने अक्सर भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक माना.
जब ज़रूरत थी, तब भी अमेरिका ने भारत का पक्ष नहीं लिया. 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर कई मोर्चों पर हमला किया और इसमें अमेरिका के दिए हुए टैंक (याद है पैटन टैंक?) और विमान (शक्तिशाली सेबर जेट) का इस्तेमाल किया, और व्हाइट हाउस चुपचाप देखता रहा.
1971 में, पाकिस्तान सेना द्वारा की जा रही बांग्लादेश में नरसंहार की दुनिया भर में आलोचना के बावजूद अमेरिका ने खुले तौर पर पाकिस्तान का समर्थन किया. एक समय ऐसा भी आया जब राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत को डराने के लिए सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेज दिया. यह पक्षपात इसलिए भी था क्योंकि पाकिस्तान ने अमेरिका और चीन के बीच डील कराने में मदद की थी, और आंशिक रूप से इसलिए भी क्योंकि निक्सन को भारतीयों और इंदिरा गांधी से व्यक्तिगत नफरत थी, जिनके लिए वह निजी बातचीत में अपशब्दों का इस्तेमाल करते थे.
बाद में, बिल क्लिंटन के पहले कार्यकाल में भी पाकिस्तान को भारत पर तरजीह दी गई क्योंकि उस समय दक्षिण एशिया मामलों की प्रभारी असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, रॉबिन राफेल, खुलकर पाकिस्तान समर्थक थीं. दरअसल, उनके पद छोड़ने के बाद खुद अमेरिकियों ने यह जांच शुरू की कि क्या वह पाकिस्तान की जासूस थीं.
तो ट्रंप भले ही अपने पूर्ववर्तियों से ज़्यादा मुखर हों और वह विदेश नीति की घोषणाएं कूटनीतिक चैनलों के बजाय ट्रूथ सोशल पर करते हों, लेकिन हम पहले भी इस दौर से गुजर चुके हैं. हां, उन्होंने अब तय कर लिया है कि उन्हें पाकिस्तान बहुत पसंद है, जो कि विशाल और ज़्यादातर काल्पनिक तेल भंडार वाला देश है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था को वह मरी हुई बताते हैं. लेकिन अगर आप निक्सन और हेनरी किसिंजर की रिकॉर्ड की गई बातचीत सुनें तो आपको समझ आएगा कि 1971 में भारत न सिर्फ अमेरिकी विदेश नीति के उद्देश्य में फिट नहीं बैठता था, बल्कि निक्सन को भारत और भारतीयों से नफरत थी. ट्रंप ने जो भी कहा हो, वह उस स्तर की नफरत तक नहीं पहुंचा है.
तो फिर भारत ट्रंप के रुख से इतना हैरान क्यों है? हम इतने चौंक क्यों गए हैं? क्या हमने पहले भी इस्लामाबाद-वॉशिंगटन के प्रेम संबंध को नहीं झेला है? और क्या हम यह तीन साल और नहीं झेल सकते जब तक ट्रंप सत्ता में हैं?
ट्रंप के आहत फैनबॉयज़
हम इतने परेशान क्यों हैं इसका सिर्फ एक कारण है: भारत के मौजूदा शासकों और उनके समर्थकों के भीतर इतनी कड़वी निराशा है कि वह एक तरह से विश्वासघात जैसा महसूस होती है.
और हमने ट्रंप से ज़्यादा उम्मीद क्यों की? क्योंकि संघ और उसके समर्थकों ने ट्रंप को गले लगाया और ऐसा बर्ताव किया जैसे वह उन्हीं में से एक हों. उन्होंने ट्रंप के लिए जन्मदिन की पार्टियां कीं, जब वह भारत आए तो उन्हें ज़बरदस्त स्वागत दिया और उनके दोबारा राष्ट्रपति बनने की प्रार्थनाएं कीं.
ट्रंप के लिए यह प्रेम सिर्फ एक वजह से था. जब वह पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए प्रचार कर रहे थे, तब उन्होंने कहा था कि अमेरिका में सभी मुसलमानों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगना चाहिए. संघ परिवार और उसके समर्थकों के लिए यह शानदार खबर थी: आखिरकार, अमेरिका में कोई बड़ा नेता ऐसा बोल रहा था जो उन्हें पसंद आया. अगर वह इतने मुस्लिम-विरोधी हैं, तो ज़रूर अच्छे आदमी होंगे, है न?
इसी एक बयान से अमेरिका की ओर भारत से प्रेम की धारा बहने लगी. संघ समर्थकों को लगा कि दुनिया को ट्रंप की ज़रूरत है, क्योंकि वह मुसलमानों को सही से समझते हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई भी करते हैं. चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने वीडियो में कहा था, “आई लव दि हिंदूज़.” यह एक तरह से शादी की अंगूठी बन गई, जिससे भारत के दक्षिणपंथ और ट्रंप के बीच रिश्ते पक्के हो गए.
लेकिन ट्रंप कभी भी सबसे वफादार प्रेमी नहीं रहे. सत्ता में आने के बाद उन्होंने मुस्लिम दुनिया को फिर से खोजा और सऊदी अरब जाकर वहां के नेताओं के साथ तलवार नृत्य किया. मुस्लिम-विरोधी बयानबाज़ी धीरे-धीरे गायब हो गई.
फिर भी, संघ के वफादार समर्थक उनकी सत्ता में वापसी का इंतजार करते रहे. वे शायद इतने समझदार नहीं थे कि देख पाते कि ट्रंप कभी भी सिर्फ एक मुद्दे वाले राष्ट्रपति नहीं थे. मुस्लिम-विरोधी बयानबाज़ी की अपनी जगह थी, लेकिन वह एक दशक पुरानी बात थी. अब नए लक्ष्य सामने थे. सच्चाई यह थी कि ट्रंप और उनके भारतीय फैन क्लब का आपस में कोई मेल नहीं था.
दुर्भाग्य से, उनके भारतीय दक्षिणपंथी प्रशंसक यह कभी नहीं समझ पाए. इसके बजाय, उन्होंने अपनी कल्पना में अमेरिकी राजनीति का एक अलग मॉडल बना लिया जिसमें हिंदू सब कुछ चला रहे होंगे और भारत को इसका फायदा मिलेगा.
भारत के दक्षिणपंथ के लिए सबक
विवेक रामास्वामी को हिंदू समुदाय की बड़ी उम्मीद माना गया. जब ट्रंप ने उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं दी, तो उनके भारतीय समर्थकों ने अपना ध्यान जेडी वेंस की ओर मोड़ा, क्योंकि उनकी पत्नी हिंदू हैं. एफबीआई डायरेक्टर कश पटेल गुजराती हैं, इसलिए उनसे भी उम्मीदें जुड़ी थीं. नेशनल इंटेलिजेंस डायरेक्टर तुलसी गैबर्ड, जो भारतीय नहीं हैं लेकिन हिंदू मान्यताओं को मानती हैं, वह भी उम्मीद की एक वजह बनीं.
इन सभी लोगों की पहचान अमेरिकी है और उनका मौजूदा कद ट्रंप की वजह से है. जाहिर है, वे अमेरिका के हित में ही काम करेंगे (भारत के नहीं) और ट्रंप का समर्थन करेंगे. लेकिन हिंदू राष्ट्रवादी कल्पना में इन्हें हिंदुत्व के मजबूत स्तंभों की तरह देखा गया जो वॉशिंगटन डीसी में एक मानसिक ‘अखंड भारत’ बनाएंगे.
अब यही संघ परिवार समर्थकों का वर्ग है जिसे ट्रंप से सबसे ज़्यादा धोखा महसूस हो रहा है. वे एक्स (ट्विटर) पर गुस्से भरे पोस्ट कर रहे हैं और ट्रंप को भला-बुरा कह रहे हैं. उन्हें यकीन नहीं हो रहा कि जिन प्रभावशाली अमेरिकी हिंदुओं को वे पूजते थे, उनमें से कोई भी भारत के पक्ष में नहीं बोला.
इससे भी बड़ी निराशा नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप के रिश्ते से है, जिससे भारत को मदद मिलने की उम्मीद थी. वर्षों से भाजपा-समर्थक टीवी मीडिया यह कहता रहा कि मोदी और ट्रंप दुनिया के दो सबसे महान नेता हैं – एक सुपरमैन-बैटमैन की जोड़ी जो भारत के दुश्मनों को हरा देगी. लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा, इसलिए अब वही एंकर ट्रंप को कोस रहे हैं और अमेरिका पर हमला कर रहे हैं.
मुझे नहीं लगता कि भारत-अमेरिका संबंध इतने बिगड़ गए हैं कि सुधर नहीं सकते. दोनों देशों के बीच सहमतियां, असहमतियों से कहीं ज़्यादा हैं. ट्रंप को संभालने के तरीके हैं, भले ही इस साल हमारी विदेश नीति पाकिस्तानियों के मुकाबले कमजोर दिखी हो. अभी भी इस गतिरोध से निकलने के रास्ते मौजूद हैं और शायद हम उन्हें ढूंढ़ लेंगे.
लेकिन ट्रंप के दक्षिणपंथी भारतीय समर्थकों के लिए एक सबक ज़रूर है – सिर्फ इसलिए किसी विदेशी नेता से मेल न खोजो क्योंकि आपको लगता है कि उसकी नफरत आपकी नफरत से मिलती-जुलती है. विदेशों में रहने वाले हिंदुओं से यह उम्मीद मत रखो कि वे तुम्हारी सोच के हिसाब से हिंदू हित को प्राथमिकता देंगे. वे हमेशा अपने देश को पहले रखेंगे. (और उन्हें ऐसा ही करना चाहिए.)
और आखिर में – विदेशी नेताओं के लिए फैनबॉय मत बनो. यह न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि खुद को निराशा के लिए तैयार करने जैसा भी है.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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