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Saturday, 19 July, 2025
होमफीचरपटना यूनिवर्सिटी में लॉटरी से भाई-भतीजावाद खत्म करने की कोशिश—लेकिन यह समस्या सिर्फ बिहार की नहीं है

पटना यूनिवर्सिटी में लॉटरी से भाई-भतीजावाद खत्म करने की कोशिश—लेकिन यह समस्या सिर्फ बिहार की नहीं है

कुछ लोग मानते हैं कि लॉटरी के ज़रिए प्रिंसिपल की नियुक्ति करना एक नया और प्रगतिशील कदम है, जो बिहार के हायर एजुकेशन को झकझोर सकता है — क्योंकि ये 1980 से ही धीमी पड़ी हुई है.

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पटना: सुहेली मेहता ने पटना यूनिवर्सिटी में होम साइंस पढ़ाते हुए कई दशक बिताए हैं. उनके पास ह्यूमन डेवलपमेंट में पीएचडी है और अकादमिक हलकों में यह उम्मीद थी कि उन्हें प्रतिष्ठित मगध महिला कॉलेज का प्रिंसिपल नियुक्त किया जाएगा. वह वहां वर्तमान में कार्यरत हैं और कभी वहां की छात्रा भी रही हैं. लेकिन 2 जुलाई को वाइस चांसलर के ऑफिस में निकाली गई एक लॉटरी ने उनका भविष्य तय कर दिया, जिससे वह हैरान रह गईं. उन्हें एक कॉमर्स कॉलेज—वाणिज्य महाविद्यालय—का प्रिंसिपल बनाया गया, जो उनके विषय से मेल नहीं खाता. उन्होंने यह पोस्ट सार्वजनिक रूप से ठुकरा दी.

“मैं शुरू से ही लॉटरी सिस्टम के खिलाफ थी. मैंने पटना हाई कोर्ट में भी इसके खिलाफ याचिका दायर की थी, लेकिन साथियों के दबाव में वह आगे नहीं बढ़ सकी,” मेहता ने दिप्रिंट से कहा. इस अपील में उनके साथ दो अन्य प्रोफेसर—शशि भूषण और श्यामल किशोर—भी शामिल थे.

इस विवादित फैसले को राज्यपाल और चांसलर आरिफ मोहम्मद खान ने मंजूरी दी थी. यह एक बड़े निर्देश का हिस्सा था जिसमें कहा गया था कि बिहार की सभी यूनिवर्सिटियों में प्रिंसिपलों की नियुक्ति लॉटरी सिस्टम से की जाएगी. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, राज्यपाल का कहना था कि यह कदम भाई-भतीजावाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार को खत्म करने और निष्पक्षता लाने के लिए उठाया गया। लेकिन इसके उलट, इस कदम ने पूरे राज्य में भ्रम और आलोचना को जन्म दे दिया है.

अब बिहार की यूनिवर्सिटियों में छात्र और शिक्षक इस प्रणाली को लेकर परेशान हैं, जो उन्हें मनमानी और अस्थिर लगती है—एक ऐसी उच्च शिक्षा व्यवस्था में, जो पहले से ही परीक्षा और परिणामों में देरी जैसे विवादों से जूझ रही है. शिक्षाविदों और छात्रों के बीच यह भावना है कि यूनिवर्सिटी राज्यपाल की कोई प्रयोगशाला नहीं है. हालांकि कुछ लोग इसे एक प्रगतिशील कदम भी मान रहे हैं, जिससे बिहार की जड़ हो चुकी शिक्षा व्यवस्था में कुछ बदलाव आ सकेगा.

पटना के एक कॉलेज का प्रशासनिक भवन | ज्योति यादव | दिप्रिंट

मेहता ने कहा, “यह हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रिंसिपल की पोस्ट अब लॉटरी से तय हो रही है.”

मार्च में चुने गए उम्मीदवारों के परिणाम घोषित किए गए थे। अगले महीने शिक्षा विभाग ने सूची को मंजूरी दी और राज्यपाल को भेज दिया. 16 मई को राज्यपाल ने अपने प्रधान सचिव के ज़रिए बिहार की 13 यूनिवर्सिटिज को एक पत्र भेजा, जिसमें प्रिंसिपलों की नियुक्ति के लिए लॉटरी प्रणाली लागू करने की जानकारी दी गई थी.

प्रोफेसर मेहता, प्रोफेसर शशि भूषण और प्रोफेसर श्यामल किशोर ने इस फैसले को पटना हाई कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया.

मेहता ने कहा, “हमें लगा कि हाई कोर्ट शायद स्टे दे देगा.”

“राज्यपाल से 16 जून तक जवाब मांगा गया था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. हमने पता किया तो मालूम हुआ कि वह उस वक्त दिल्ली में थे और हम उनसे मिल भी नहीं सके। अगली सुनवाई की तारीख 7 जुलाई तय हुई.”

इस बीच, एक प्रतिनिधि—प्रोफेसर और एमएलसी नवल किशोर यादव—ने चयनित प्रोफेसरों की ओर से राज्यपाल से मुलाकात की.

“वह अड़े हुए थे,” यादव ने दिप्रिंट को बताया. “उन्होंने कहा कि अगर प्रोफेसर हाई कोर्ट जा सकते हैं, तो वह सुप्रीम कोर्ट जाएंगे. उन्होंने बताया कि उन्हें प्रिंसिपलों की नियुक्ति में रिश्वत और भ्रष्टाचार की कई शिकायतें मिली थीं, इसलिए उन्होंने यह लॉटरी सिस्टम लागू किया,” यादव ने बताया. इस मुलाकात के बाद, मेहता और उनके साथियों ने चुपचाप अपनी याचिका वापस ले ली.

“आप सिस्टम के खिलाफ नहीं जा सकते,” मेहता ने कहा. उन्होंने लॉटरी पैनल में हिस्सा लेने का फैसला किया. 2 जुलाई को सुबह करीब 11:30 बजे वाइस चांसलर के ऑफिस में चार प्रोफेसर इकट्ठा हुए.

“हम इस कदम की मंशा पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन हमारे पास एक मानक मेरिट-कम-चॉइस प्रक्रिया पहले से मौजूद है जो तकनीकी और निष्पक्ष भी है,” मेहता ने कहा. उन्होंने यह भी जोड़ा कि जब उन्हें कोई और विकल्प दिया गया तो उन्हें ऐसा लगा जैसे UPSC की परीक्षा में टॉप करने के बावजूद उन्हें किसी सहयोगी सेवा में भेजा जा रहा हो, जबकि उन्होंने IAS चुनी थी.

नई प्रणाली के तहत बिहार की 13 यूनिवर्सिटिज़ में 115 प्रिंसिपल की नियुक्तियां की जाएंगी. पटना यूनिवर्सिटी की पांच कॉलेजों के लिए लॉटरी हो चुकी है, और अब यही प्रक्रिया राज्य की बाकी यूनिवर्सिटिज़ में लागू की जाएगी.

पटना कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल और हिंदी विभाग के पूर्व डीन प्रोफेसर तरुण कुमार ने कहा, “राजभवन अब शिक्षकों की नियुक्ति और तबादलों से लेकर प्रिंसिपल की पोस्टिंग तक में हस्तक्षेप कर रहा है. इससे वाइस चांसलर की हैसियत किसी विश्वविद्यालय के हेड क्लर्क यानी ‘बड़ा बाबू’ जैसी रह गई है.”

उन्होंने आगे पूछा, “राजभवन और विधानसभा जैसे संस्थानों में भ्रष्टाचार गहराई से व्याप्त है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम लॉटरी सिस्टम से इसे ठीक करने लगें. क्या इन संस्थानों में भी नियुक्तियां अब लॉटरी से होंगी?”

दिप्रिंट ने राज्यपाल से संपर्क करने की कोशिश की। उनके प्रधान सचिव रॉबर्ट एल. चोंग्थू को ईमेल और संदेश भेजे गए, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

सदमे की लहरें, गुस्सा

पिछले कई दशकों से बिहार के विश्वविद्यालय अपनी प्रासंगिकता और संस्थागत स्वायत्तता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जहां देशभर में स्नातक की पढ़ाई तीन साल में पूरी होती है, वहीं बिहार में यह अवधि अक्सर पांच या छह साल तक खिंच जाती है. राज्य के विश्वविद्यालयों के छात्र खुद को अक्सर मीम्स का हिस्सा पाते हैं.

पटना विश्वविद्यालय के छात्र नितिन कुमार ने कहा, “हम पेपर की घोषणा और रिजल्ट का इंतज़ार करते रहते हैं, ये एक पंगु व्यवस्था है.”

हाल ही में प्रिंसिपल की नियुक्ति लॉटरी के ज़रिए करने का फैसला, जिसमें उन्हें उनके विशेषज्ञता क्षेत्र से बाहर भेजा गया, ने ज़मीनी स्तर पर अव्यवस्था की भावना को और गहरा कर दिया है.

नितिन जैसे छात्रों का मानना है कि भ्रष्टाचार और जातिवाद राज्य की संस्थाओं में गहराई से मौजूद हैं. लेकिन इस तरह की रैंडम नियुक्तियां मौजूदा अराजकता को और बढ़ा देती हैं.

छात्र संघ की निर्वाचित सदस्य सौम्या श्रीवास्तव ने भी यही चिंताएं जताईं.

उन्होंने कहा, “अगर जिन कॉलेजों में विषय विशेष या जेंडर विशेष नेतृत्व की ज़रूरत है, वहां विशेषज्ञता न रखने वाले लोगों की नियुक्ति हो रही है, तो उन्हें रैंडम तरीक़े से क्यों चुना जा रहा है?”

पटना विश्वविद्यालय में साइंस, लॉ और कॉमर्स जैसे विषयों के लिए अलग-अलग कॉलेज हैं. उदाहरण के लिए, मगध महिला कॉलेज में अब तक एक भी स्थायी पुरुष प्राचार्य नहीं रहा है। एक बार संकट के समय प्रोफेसर उमेश मिश्रा को तीन-चार दिनों के लिए अस्थायी रूप से ज़िम्मेदारी दी गई थी, लेकिन हमेशा महिला ही इसका नेतृत्व करती रही हैं.

पायलट

मार्च इस साल, बिहार राज्य विश्वविद्यालय सेवा आयोग (BSUSC) ने लगभग 115 प्रोफेसरों की एक सूची तैयार की, जिन्हें राज्य भर के कॉलेजों में प्राचार्य बनने के लिए योग्य माना गया.

इससे उत्साह फैल गया और अकैडमिक जगत में उम्मीदें बढ़ गईं. शीर्ष स्थान पाने वाले उम्मीदवार उन संस्थानों में नेतृत्व की भूमिका निभाने की उम्मीद कर रहे थे, जहां वे लंबे समय से सेवा कर रहे थे और जिनमें से कई में वे खुद कभी छात्र भी रह चुके थे.

इन्हीं में से एक थीं सुहेली मेहता, जो इस लिस्ट में सबसे ऊपर थीं. राज्य के अकैडमिक हलकों में उनके संभावित चयन को योग्यता और उनके लंबे प्रोफेसरियल सफर की स्वाभाविक प्रगति के रूप में देखा जा रहा था. उन्होंने भी उस कॉलेज का नेतृत्व करने का सपना देखा था, जहां उन्होंने अपना अधिकतर करियर बिताया है.

लेकिन 2 जुलाई को यह उम्मीद एक चौंकाने वाले मोड़ पर पहुंच गई, जब उनका चयन और चार अन्य लोगों का चयन विशेषज्ञों के पैनल के बजाय लकी ड्रा (चिट्ठी निकालकर) से किया गया.

राजभवन की निगरानी में, और पूरी प्रक्रिया को वीडियो में रिकॉर्ड करते हुए, एक तीन-सदस्यीय समिति—जिसमें पटना विश्वविद्यालय के वीसी अजय कुमार सिंह, रजिस्ट्रार शालिनी और चांसलर के प्रतिनिधि रहमत जहां शामिल थे—विश्वविद्यालय परिसर में एक बॉक्स से चिट्ठियां निकालने के लिए एकत्र हुई.

हर चिट्ठी के साथ, चयनित उम्मीदवारों की किस्मत उस कॉलेज के लिए तय हो गई, जहां जाने की उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

बिहार के विभिन्न कॉलेजों के फैकल्टी सदस्यों के लिए, यह झटका सिर्फ इस बात का नहीं था कि मेहता को कहां भेजा गया, बल्कि इस नए सिस्टम से बनने वाली मिसाल को लेकर था. फैकल्टी रूम में माहौल तनावपूर्ण है, सभी अगली नियुक्तियों का इंतजार कर रहे हैं। अब ‘सिफारिश’ शायद कुछ के लिए काम न आए.

परंपरागत रूप से, बिहार के उच्च शिक्षा संस्थानों में नियुक्तियां एक तयशुदा प्रक्रिया के तहत होती थीं—विश्वविद्यालय आयोग परीक्षाओं और इंटरव्यू के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करता था, बिहार सरकार से मंजूरी मिलती थी, और कुलपति को असिस्टेंट प्रोफेसर व प्राचार्य की नियुक्ति का अधिकार होता था. इसके अतिरिक्त, राज्यपाल कार्यालय की ओर से एक प्रतिनिधि पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए नामित होता था.

लेकिन इस पुराने सिस्टम पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगते रहे हैं.

पटना यूनिवर्सिटी के कॉलेजों पर इसका असर

बिहार के सैकड़ों कॉलेजों को प्रभावित करने वाली इस नई लॉटरी आधारित नीति ने राज्य की शैक्षणिक व्यवस्था में हलचल मचा दी है. लेकिन सबसे ज़्यादा असंतोष पटना यूनिवर्सिटी के तहत आने वाले पांच प्रतिष्ठित कॉलेजों के प्रिंसिपल की नियुक्तियों को लेकर है.

“पटना कॉलेज अब भारत का सबसे पुराना कॉलेज है. बाकी के सात-आठ संस्थानों को तो यूनिवर्सिटी में अपग्रेड कर दिया गया है,” 65 वर्षीय प्रोफेसर तरुण कुमार ने कहा, जो पटना कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल और पटना यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के पूर्व डीन रह चुके हैं.

उन्होंने बताया कि पारंपरिक रूप से, पटना कॉलेज में प्रिंसिपल पद के लिए केवल सोशल साइंसेज़ या ह्यूमैनिटीज़ के वरिष्ठतम प्रोफेसरों पर विचार किया जाता था. यह परंपरा पचास सालों से चली आ रही थी. उन्होंने कहा, “एक समय पर थोड़ी ढील ज़रूर आई थी, लेकिन तब भी लॉटरी को कभी विकल्प नहीं माना गया.”

इस बार वह पुरानी परंपरा अचानक तोड़ दी गई. उत्तर प्रदेश के केमिस्ट्री प्रोफेसर अनिल कुमार को लॉटरी के ज़रिए 1863 में स्थापित पटना कॉलेज का प्रमुख नियुक्त किया गया.

यह पहली बार है जब किसी साइंस फैकल्टी को इस ऐतिहासिक आर्ट्स-केंद्रित संस्थान की कमान सौंपी गई है.

जय प्रकाश यूनिवर्सिटी, छपरा के इतिहास के प्रवक्ता नागेंद्र प्रसाद वर्मा को मगध महिला कॉलेज का प्राचार्य नियुक्त किया गया, जबकि प्रोफेसर मेहता यही कॉलेज नेतृत्व करना चाहती थीं.

2009 के बाद करीब पंद्रह साल तक पटना यूनिवर्सिटी जैसे ठहराव की हालत में चलती रही. आयोग की तरफ से की गई नियमित नियुक्तियों की सिफारिशें या तो अफसरशाही अड़चनों की वजह से रुक गईं या फिर कानूनी विवादों में उलझकर अटक गईं | ज्योति यादव | दिप्रिंट

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर बिहार यूनिवर्सिटी की होम साइंस फैकल्टी की अलका यादव को पटना साइंस कॉलेज की पहली महिला प्राचार्य बनाया गया, जो कॉलेज के लगभग सौ साल के इतिहास में पहली बार हुआ है.

2009 के बाद लगभग पंद्रह सालों तक, पटना यूनिवर्सिटी एक तरह की जमी-जमाई व्यवस्था से बाहर हो गई थी. नियमित आयोग द्वारा की जाने वाली नियुक्तियाँ या तो प्रशासनिक अड़चनों के कारण टलती रहीं या फिर कानूनी विवादों में उलझ गईं.

इस खालीपन के चलते, यूनिवर्सिटी के कुछ सबसे पुराने कॉलेजों — जैसे बीएन कॉलेज — को कार्यवाहक प्राचार्य चलाते रहे जिन्हें कभी औपचारिक रूप से पुष्टि नहीं मिली. बीएन कॉलेज, उदाहरण के तौर पर, लंबे समय से राज किशोर प्रसाद के नेतृत्व में रहा.

इस महीने की नियुक्तियों से लंबे समय से जारी अंतरिम नेतृत्व का दौर खत्म हुआ है.

बिहार से परे

दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर दिनेश सिंह ने कहा कि काबिल कॉलेज लीडर नियुक्त करने की चुनौती सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है, यह समस्या पूरे देश में फैली हुई है.

उन्होंने कहा, “यूनिवर्सिटी में नियुक्तियों से जुड़ी समस्याएं सिर्फ बिहार की नहीं हैं—मैंने इन्हें देश के कई संस्थानों में देखा है.”

भारत में पारंपरिक रूप से प्रिंसिपल की नियुक्ति दो चरणों में होती है. पहले, एक विस्तृत सिलेक्शन कमेटी योग्य उम्मीदवारों की छंटनी करती है. फिर, यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर की अगुआई में एक पैनल तीन नामों को अंतिम रूप देता है.

“एक कॉलेज तभी अच्छा चलता है जब उसका नेतृत्व सही व्यक्ति के हाथ में हो,” उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि कॉलेज की विश्वसनीयता उसके नेतृत्व पर निर्भर करती है.

हालांकि लॉटरी सिस्टम भ्रष्टाचार, सिफारिश और बाहरी दबाव को रोक सकता है, उन्होंने चेताया, “यह जरूरी नहीं कि लॉटरी से एक मजबूत शैक्षणिक लीडर सामने आए.”

सिंह ने राज्यपाल से अपील की कि वह कोई मजबूत विकल्प तलाशें—शायद देश भर से विश्वसनीय शैक्षणिक विशेषज्ञों को नामित कर एक स्वतंत्र पैनल बनाएं जो योग्य उम्मीदवारों की सिफारिश करे.

एक अन्य पूर्व वाइस चांसलर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि सामान्य परिस्थितियों में नियुक्तियों की सिफारिशें अक्सर जजों से लेकर राजनेताओं तक गोपनीय पत्रों के ज़रिए पहुंचाई जाती हैं.

उन्होंने कहा, “हमें इंतजार करना होगा कि यह नया सिस्टम बिहार के लिए काम करता है या नहीं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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