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Saturday, 19 July, 2025
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राधिका की हत्या सिर्फ गुस्सैल पिता की कहानी नहीं, बेटियों की कमाई आज भी समाज के लिए बोझ क्यों है

सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने हत्या को सही ठहराया, कभी ‘दूसरी कहानी’ की बात कहकर, तो कभी यह कहकर कि राधिका किसी मुस्लिम युवक के साथ थी. इससे एक पिता की हिंसा को सामान्य और बेटी की मौत को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है.

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राधिका यादव, 25 साल की एक टेनिस खिलाड़ी थीं, जिन्हें उनके पिता ने गुरुग्राम में गोली मार दी. गुरुग्राम एक ऐसा शहर है जहां शहरी चमक-धमक और ग्रामीण सोच के बीच अक्सर टकराव देखने को मिलता है. ऐसा क्या हुआ कि एक पिता अपनी ही बेटी के खिलाफ इतना हिंसक हो गया? पूरी सच्चाई अब तक साफ नहीं है और अखबारों की सुर्खियों में तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं—हर थ्योरी इस भयानक घटना को समझाने की कोशिश कर रही है, जो एक साथ अविश्वसनीय भी लगती है और बेहद सच्ची भी.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, राधिका की टेनिस करियर एक चोट की वजह से खत्म हो गया था. इसके बाद उनके पिता दीपक ने इलाज पर काफी पैसा खर्च किया, जब खेल का रास्ता बंद हो गया, तो राधिका ने कोचिंग देना शुरू कर दिया. शुरू में यह एक पिता की अपनी बेटी को सपोर्ट करने की कोशिश लगी, लेकिन धीरे-धीरे मामला कुछ और हो गया.

दीपक को लंबे समय से समाज के ताने सुनने पड़ रहे थे कि उनका घर बेटी की कमाई से चल रहा है, कि वह खुद बेटी की सफलता पर निर्भर हैं. ये बातें उन्हें अंदर ही अंदर खा रही थीं. उन्होंने राधिका से कई बार कहा कि वह अकेडमी में काम करना बंद कर दे, लेकिन राधिका नहीं मानीं. थाना प्रभारी विनोद कुमार ने कहा, “वह (दीपक) लोगों की बातों से परेशान था. उसने बेटी को कई बार कहा कि अकेडमी में काम न करे, लेकिन वह नहीं मानी. वह और बर्दाश्त नहीं कर पाया.”

राधिका यादव एक ऐसी बेटी थीं जो सफल थीं और अपने दम पर कुछ बनना चाहती थीं. उन्होंने उस सोच को चुनौती दी जो लड़कियों को सिर्फ घर तक सीमित रखना चाहती है. यह सिर्फ एक पिता द्वारा की गई हत्या नहीं है—यह उस सोच का आईना है जो आज भी मानती है कि बेटी की कमाई से घर चलाना ‘शर्म’ की बात है. सोचिए, अगर राधिका की जगह बेटा होता, क्या तब भी लोग ताने देते? शायद नहीं.

यह मानसिकता सिर्फ गांवों तक सीमित नहीं है, यह शहरों में भी गहराई से मौजूद है. राधिका के साथ जो हुआ वह दुखद है, लेकिन यह किसी एक घर या परिवार की समस्या नहीं है—यह उस बड़े सामाजिक सोच की तस्वीर है जिसमें महिलाओं की आज़ादी और उनकी कमाई को अब भी शक की नज़र से देखा जाता है.


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भारत की कड़वी सच्चाई

जहां एक तरफ महिलाओं के प्रति नफरत साफ दिखाई देती है, वहीं एक और गहरी और असहज करने वाली सच्चाई है — भारत में कई माता-पिता अपने बच्चों को एक अलग व्यक्ति की तरह नहीं देखते, बल्कि उन्हें अपनी पहचान और उम्मीदों का विस्तार मानते हैं. बच्चों पर कई सख्त उम्मीदें थोपी जाती हैं — जैसे कौन-सा करियर चुनना है, किससे शादी करनी है — ताकि समाज में माता-पिता की ‘इज्ज़त’ बनी रहे. जब बच्चे इन उम्मीदों के खिलाफ जाते हैं, तो इसका अंजाम बहुत गंभीर हो सकता है और बेटियों के मामले में यह दबाव महिलाओं के प्रति भेदभाव के साथ मिलकर और भी खतरनाक बन जाता है.

यह सिर्फ करियर या जीवनसाथी चुनने की बात नहीं है — सवाल यह है कि क्या आपको अपनी मर्ज़ी से जीने की इजाज़त है या नहीं. हमारे समाज की यह सोच एक सहारा देने वाले परिवार को भी एक दमघोंटू और हावी करने वाली व्यवस्था में बदल देती है. महिलाओं के लिए तो आत्मनिर्भर होना एक ‘बगावत’ जैसा माना जाता है — जिसकी सज़ा भी अक्सर बड़ी कठोर होती है.

इस दुखद घटना का एक और दर्दनाक पहलू है सोशल मीडिया पर कुछ लोगों की प्रतिक्रियाएं. कुछ लोग इस भयानक हत्या को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं. कोई कहता है हमें ‘कहानी का दूसरा पहलू’ नहीं पता, कोई यह अफवाह फैला रहा है कि राधिका का रिश्ता किसी मुस्लिम युवक से था, जैसे कि ये वजह उसकी हत्या को जायज़ बना देती हो. इस तरह की बातें उस खतरनाक सोच को उजागर करती हैं, जो एक पिता की हिंसा को सही मानती है, और हत्या को साम्प्रदायिक चश्मे से देखने लगती है.

राधिका की हत्या इस बात का गवाह है कि पितृसत्ता आज भी हमारे समाज को जकड़े हुए है. एक महिला की ‘कीमत’ इस बात से तय की जाती है कि वह समाज की उम्मीदों पर कितना खरी उतरती है, जब किसी मासूम महिला के साथ ऐसी हिंसा को कभी धर्म, कभी झूठी ‘इज्ज़त’ के नाम पर सही ठहराया जाता है, तो यह बता देता है कि बहुत से लोग आज भी महिलाओं को अपनी ‘जायदाद’ समझते हैं और अगर वह उनके बनाए दायरे से बाहर निकले, तो उन्हें ‘हटा देना’ जायज़ मानते हैं.

यह कोई अकेली घटना नहीं है. यह उस दर्दनाक सच्चाई का हिस्सा है, जो देशभर में बार-बार दोहराई जाती है. जब तक महिलाओं को अपनी मर्ज़ी से जीने वाला, अपने फैसले लेने वाला इंसान नहीं माना जाएगा, तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी और उनके साथ-साथ आते रहेंगे वही घिसे-पिटे बहाने, जो हर बार हिंसा को ढकने की कोशिश करते हैं.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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