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Tuesday, 15 July, 2025
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अमित शाह अभी रिटायर नहीं हो रहे, लेकिन वे RSS की पसंद का नड्डा के उत्तराधिकारी नहीं चाहेंगे

अगर भाजपा अध्यक्ष आरएसएस की पसंद से बनता है, तो यह अमित शाह की पार्टी पर पकड़ को कमजोर करेगा.

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रिटायरमेंट की योजना ने पिछले हफ्ते काफी उत्सुकता पैदा की. अहमदाबाद में महिला किसानों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “मैंने तय कर लिया है कि जब भी रिटायर होऊंगा, शेष जीवन वेद, उपनिषद और प्राकृतिक खेती के लिए समर्पित करूंगा…”

शाह आमतौर पर सार्वजनिक रूप से निजी बातें साझा नहीं करते, सिवाय कुछ खास मौकों के—जैसे जब उन्होंने अपनी नातिनों के साथ शतरंज खेलते हुए एक तस्वीर पोस्ट की थी. कुछ साल पहले एक बातचीत के दौरान, मैंने उनसे पूछा था कि उन्हें किस तरह का संगीत पसंद है. किसी जानने वाले ने बताया था कि उन्हें संगीत पसंद है. लेकिन शाह ने सवाल को काट दिया और कहा, “आप जान कर क्या करोगे?” उस समय वह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे.

तो फिर उन्होंने अहमदाबाद में महिला किसानों के बीच रिटायरमेंट की योजना क्यों साझा की? अगर आप उनका पूरा भाषण सुनें, तो वह कम से कम अगले एक दशक तक सत्ता में रहने की आशा रखते हैं. उन्होंने कहा कि सहकारिता मंत्रालय ऐसा ढांचा तैयार कर रहा है जिससे “8 से 10 साल” में प्राकृतिक खेती से उगा गेहूं निर्यात होगा और मुनाफा सीधे महिलाओं के बैंक खातों में पहुंचेगा.

जो उन्होंने कहा उसमें कुछ भी असामान्य नहीं था. अहमदाबाद के उनके भाषण से सिर्फ इतना ही समझा जा सकता है कि वह ‘मरते दम तक राजनीति’ करने वाले नेताओं में नहीं हैं, जैसा कि उनकी पार्टी में कई लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चाहते हैं. अमित शाह की एक रिटायरमेंट योजना है—चाहे वह 75 साल की उम्र की सीमा हो या कुछ और. यही अहमदाबाद के भाषण से एकमात्र तार्किक निष्कर्ष निकाला जा सकता है.

यह बात अभी भी राजनीतिक गलियारों में गूंज रही है. लोग हैरान हैं कि देश का दूसरा सबसे ताकतवर व्यक्ति रिटायरमेंट के बारे में सोच भी कैसे रहा है और वह भी सार्वजनिक रूप से.

अमित शाह अच्छी तरह जानते हैं कि उनके हर शब्द की लाखों तरह से व्याख्या की जाएगी. तीन साल पहले, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने राजनीति के “100 प्रतिशत सत्ता केंद्रित” हो जाने पर अफसोस जताया था और कहा था, “मैं बहुत सोचता हूं कि राजनीति कब छोड़नी चाहिए. राजनीति के अलावा भी जीवन में कई अहम चीजें हैं.” उस समय वह 65 साल के थे.

गडकरी की बातों ने कई लोगों को चौंका दिया था. पार्टी और सरकार में वह लगभग अकेले पड़ चुके थे. जो भी उनके करीबी समझे गए, उन्हें कीमत चुकानी पड़ी. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय में एक संयुक्त सचिव, जिनकी पत्नी आईपीएस अधिकारी थीं—उन्हें गडकरी से निकटता के कारण एक रात में ही मूल कैडर में वापस भेज दिया गया.

इसलिए नितिन गडकरी के पास दार्शनिक होने का कारण था. लेकिन अमित शाह सार्वजनिक रूप से दार्शनिक होने की कभी कोशिश नहीं करते. मैं जेम्स जॉयस नहीं हूं, ‘स्ट्रीम ऑफ कॉन्शसनेस’ मेरी शैली नहीं है. केवल शाह ही जानते होंगे कि उन्होंने रिटायरमेंट की योजना के बारे में बोलने का फैसला क्यों किया.

अगर यह बात बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में इतनी उत्सुकता पैदा कर रही है, तो इसकी एक वजह है—उसका समय. क्या उन्होंने ये बात कहकर आरएसएस को कोई इशारा दिया है?

संघ का दखल

यह उस गतिरोध के बीच आया है जो अगले भाजपा अध्यक्ष के चयन को लेकर बना हुआ है, जाहिर तौर पर मोदी-शाह और आरएसएस के बीच सहमति की कमी की वजह से. जेपी नड्डा, जिनका बढ़ाया गया कार्यकाल पिछले साल जून में खत्म हुआ, हमेशा से एक नाम मात्र के अध्यक्ष रहे हैं. शाह ही असल में अध्यक्ष की भूमिका में थे और पार्टी को बारीकी से संचालित कर रहे थे. आरएसएस अब दोबारा ऐसा अध्यक्ष नहीं चाहेगा जो यह माने कि बीजेपी अब खुद अपने काम संभालने में सक्षम है—जिसका मतलब यह होगा कि संघ को अब अपने काम पर ध्यान देना चाहिए.

न तो मोदी और न ही शाह ने नड्डा की इस बात को खारिज किया, जिससे नाराज़ होकर आरएसएस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में खुद को पीछे खींच लिया, जिसका नतीजा यह रहा कि भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गईं. इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में संघ ने एक बार फिर अपने पश्चातापी वैचारिक शिष्य (भाजपा) का साथ दिया, लेकिन उसने अपना सबक सीख लिया है. आरएसएस चाहता है कि अगला भाजपा अध्यक्ष ऐसा हो जिसे निष्ठा को लेकर पूरी स्पष्टता हो.

लेकिन शाह भी नड्डा के उत्तराधिकारी के रूप में अपने वफादार को ही देखना चाहते हैं. उन्हें पार्टी पर पूरी पकड़ बनाए रखनी है.

बहुत कुछ दांव पर

दिप्रिंट के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता ने शनिवार को नेशनल इंटरेस्ट कॉलम में याद दिलाया कि कैसे 2005 में तत्कालीन आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने सार्वजनिक रूप से भाजपा के दो चेहरों—अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी—से कहा था कि वे युवा नेताओं के लिए रास्ता छोड़ दें.

सुदर्शन यह होते नहीं देख पाए. लेकिन वे केवल पार्टी में एक बहस शुरू करने में सफल रहे, जो आठ साल बाद 2013 में तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के आडवाणी को हाशिए पर धकेलने के साथ समाप्त हुई.

अब वर्तमान परिदृश्य की सोचिए. इसमें कोई भ्रम नहीं है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के ‘75 की उम्र में रिटायरमेंट’ वाले संदेश का क्या मतलब है. लेकिन वाजपेयी के विपरीत, मोदी अभी सत्ता में हैं, भले ही उनकी चमक अब थोड़ी फीकी पड़ रही हो. अगर भाजपा अध्यक्ष आरएसएस की पसंद से बनता है, तो यह अमित शाह की पार्टी पर पकड़ को कमजोर करेगा, जो वह बर्दाश्त नहीं कर सकते.

एक वीडियो इंटरव्यू में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे, जो शाह के करीबी माने जाते हैं, ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर यह बात स्पष्ट करने की कोशिश की कि लोग उन्हें (मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में) कितना पसंद करते हैं. उन्होंने शुरुआत करते हुए कहा कि योगी आज मुख्यमंत्री हैं, और दिल्ली में कोई खाली पद नहीं है—कम से कम अगले 20-25 साल तक. इसके अलावा, 2017 के विधानसभा चुनाव में लोगों ने मोदी के नाम पर वोट दिया था, योगी के नाम पर नहीं, और “आज भी लोग मोदी के लिए ही वोट करते हैं” (योगी के लिए नहीं). दुबे ने आगे कहा कि अगर लोगों को योगी पसंद हैं, तो उन्हें असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी पसंद हैं. “और आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि लोग अमित शाह को कितना पसंद करते हैं, जिन्होंने अनुच्छेद 370 हटाया और नक्सलवाद खत्म किया.” दुबे ने कहा, “आज जो भाजपा है, उसका श्रेय उस समय के अध्यक्ष (शाह) को जाता है.” वे केवल पार्टी में शाह के अनुयायियों की भावना को व्यक्त कर रहे थे.

दुबे जो संकेत देना चाह रहे थे, भले ही स्पष्ट शब्दों में नहीं, वह यह था कि अगर कभी प्रधानमंत्री का पद खाली होता है, तो अमित शाह स्वाभाविक उत्तराधिकारी होंगे. और ऐसा तभी हो सकता है जब शाह का भाजपा पर पूरी तरह से नियंत्रण हो—मुख्यमंत्रियों से लेकर सांसदों, विधायकों, पार्टी पदाधिकारियों और नेताओं तक. सहकारिता मंत्री के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि नड्डा के उत्तराधिकारी के रूप में भाजपा अध्यक्ष कौन बनता है. और नहीं, शाह का निकट भविष्य में प्राकृतिक खेती की ओर जाने का कोई इरादा नहीं है.

डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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