नई दिल्ली: पचास वर्ष बाद, बाजार में इमरजेंसी पर साहित्य की भरमार आ गई है. लेकिन सुगत श्रीनिवासराजू की नई किताब ‘दि कनसेंस नेटवर्क: ए क्रोनिकल ऑफ रेजिस्टेंस टु ए डिक्टेटरशिप’ एक ऐसे विषय पर गहरी दृष्टि डाल रही है जिस पर पर्याप्त अध्ययन नहीं किया गया है.
इस किताब ने अमेरिका में बसे भारतीयों की गतिविधियों को केंद्र में रखा है कि उन्होंने “1975 से 1977 के बीच इंदिरा गांधी की तानाशाही हुकूमत” के खिलाफ विरोध को किस तरह संगठित और सक्रिय किया था.
यहां प्रस्तुत है श्रीनिवासराजू के साथ बातचीत के संपादित अंश. पूरी बातचीत के लिए दिप्रिंट के यूट्यूब चैनल को देखें.
रमा लक्ष्मी: ऐसा क्यों है कि इस विषय पर पहले कोई अध्ययन नहीं किया गया?
सुगत श्रीनिवासराजू: इमरजेंसी पर जो साहित्य सामने आया है वह मुख्यतः संस्मरण हैं. लोगों ने तब जेल में बीते अपने समय, दी गईं यातनाओं के बारे में बताया है. इसके अलावा कुछ रचनात्मक साहित्य भी है. लेकिन उन सबमें यही बताया गया है कि उस दौरान भारत में क्या-क्या हुआ. उनमें इंदिरा गांधी पर नजर डाली गई है.
लेकिन यह किताब अलग है. हम इस बात की तो बहुत चर्चा करते हैं कि इंदिरा गांधी पर इमरजेंसी खत्म करने या चुनाव करवाने का कितना अंतरराष्ट्रीय दबाव था. लेकिन किसी ने यह जांच नहीं की कि वह अंतरराष्ट्रीय दबाव क्या था. उन पर कौन दबाव डाल रहा था? पश्चिमी देशों में इसको लेकर किस तरह की बहस चल रही थी? जाहिर है, भारत में रहने वाला कोई आदमी उस सामग्री तक नहीं पहुंच सकता था या उसे नहीं पढ़ सकता था क्योंकि हर चीज पर प्रतिबंध लगा हुआ था और किसी चीज को देश के अंदर ले जाने की इजाजत नहीं थी. किसी ने पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका के अखबारों या मीडिया को खंगाला नहीं.
रमा : आपकी किताब बेशक इमरजेंसी से संबंधित साहित्य पर सुई घुमाती है. उसमें उन लोगों से शुरुआत की गई है, जो 1960 के दशक में भारत छोड़कर अमेरिका जा बसे थे. किताब में उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा-दीक्षा के साथ इस बात की पड़ताल भी की गई है कि किन वजहों ने उन्हें भारत छोड़कर अमेरिका जाने को प्रेरित किया. वे किस अमेरिकी सपने के पीछे भाग रहे थे, और किस तरह का भारत छोड़ गए थे. और ऐसा क्यों है कि अमेरिका पहुंचने के बाद उन्होंने अमेरिकी सपने का पीछा करने की जगह भारतीय आख्यान को स्थापित करना शुरू कर दिया?
श्रीनिवासराजू : यह काफी दिलचस्प मामला है. आपने इसे जिस तरह रखा है वह सचमुच-सचमुच में दिलचस्प है. हां, वे भारत छोड़कर गए, जबकि वह संकट में था. आप जानते हैं उस समय भारत खाद्य संकट से जूझ रहा था, और 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद राजनीतिक संकट भी खड़ा हो गया था. उनके बाद दो प्रधानमंत्री हुए. इंदिरा गांधी अपने पैर जमा ही रही थीं. पंचवर्षीय योजनाओं से खास कुछ हासिल नहीं हो रहा था. यहां ऐसे युवा उभर रहे थे जो पढ़ाई में बहुत मेधावी थे. उनमें से अधिकतर बेशक उस आइआइटी से निकले थे जिनकी स्थापना नेहरू ने ही की थी. इन युवाओं ने भारत से मुंह फेर लिया.
पैसे, पेशे में सफलता और एक तरह की संतुष्टि के पीछे भागना सामान्य बात है. इसलिए वे पश्चिमी देशों की ओर देखने लगे, और अमेरिका भी बदल रहा था, वह प्रवासियों को आने की इजाजत दे रहा था. वह एशियाइयों के लिए अपने दरवाजे खोल रहा था और अमेरिकी संस्थानों को दुनिया भर की प्रतिभाओं का लाभ उठाने की छूट दे रहा था. और दिलचस्प बात यह है कि उस समय भारत में हम ‘ब्रेन ड्रेन’, प्रतिभा पलायन पर बहस कर रहे थे. अर्थशास्त्री भगवती ‘ब्रेन ड्रेन टैक्स’ की बात कर रहे थे. ये सब—भूख, ब्रेन ड्रेन, आर्थिक गिरावट, और राजनीतिक अस्थिरता—बताते हैं कि उस समय भारत किस स्थिति में था.
रमा: भारत में यह सब हो रहा था, तो साथ वाला दशक अमेरिका में सामाजिक आंदोलनों का दशक था—नागरिक अधिकार आंदोलन, महिला अधिकार आंदोलन, पर्यावरण रक्षा आंदोलन, और विकलांग अधिकार आंदोलन का. स्वाधीनता के विचार को विस्तार दिया जा रहा था. वे भारतीय इस तरह के अमेरिका में कदम रख रहे थे ?
श्रीनिवासराजू : 1962 में मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में वाशिंगटन कूच आयोजित किया गया. यानी हम जबकि अमेरिका को अवसरों की जमीन बता रहे थे, उसके यहां के अश्वेतों को अलगाव का सामना करना पड़ रहा था. ‘द अमेरिकन ड्रीम’ महज मार्केटिंग का जुमला था. ये लोग अपने अधिकारों, मताधिकार के लिए संघर्ष कर रहे थे, अलगाव का विरोध कर रहे थे, और समानता के व्यवहार की मांग कर रहे थे. पर्यावरण के बारे जागरूकता फैल रही थी. एक राल्फ नादार थे, जो उपभोक्ता आंदोलन चला रहे थे. लोगों ने वियतनाम युद्ध का विरोध करना भी शुरू कर दिया था.
इन सबने इन भारतीयों को भी प्रभावित किया. सत्तर वाले दशक में उन्होंने देखा, वाटरगेट घोटाले में रिचर्ड निक्सन को किस तरह कुर्सी छोड़नी पड़ी.
रमा: और आपने सत्तर वाले दशक को अमेरिका और भारत, दोनों के लिए बदनामी का दशक कहा है?
श्रीनिवासराजू: बेशक. भारत के लिए वह बदनामी का दशक था इमरजेंसी के कारण, और अमेरिका के लिए निक्सन के कारण. इसने अमेरिकी प्रेस और जनताको अपने लोकतंत्र से जवाबदेह बनने की मांग करने की हिम्मत दी. सत्तर वाले दशक ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया.
रमा: यह बताइए कि ये भारतीय लोग किस तरह संगठित और सक्रिय होने लगे. क्या यह भारत में जयप्रकाश नारायण जो कुछ कर रहे थे उसकी प्रतिक्रिया में हुआ?
श्रीनिवासराजू: इसकी शुरुआत दिलचस्प थी क्योंकि उन्होंने सत्तर वाले दशक के शुरू में ही अमेरिका में एक डेवलपमेंट नेटवर्क तैयार कर लिया था. इसमें केवल गांवों में जाकर कुछ करना ही शामिल नहीं था बल्कि भारत तथा ग्रामीण भारत के विकास के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग करना भी शामिल था. उन्होंने ग्रामीण भारत को केंद्र में रखा.
और इसके बाद उन्होंने उस टेक्नोलॉजी पर ध्यान देना शुरू किया जिसका वे अमेरिका में उपयोग कर रहे थे, कि लोगों के जीवन को बेहतर कैसे बनाया जाए. उदाहरण के लिए, यहां इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के अमूल्य रेड्डी ने चूल्हे पर ध्यान दिया कि उसे भारतीय महिलाओं के लिए सुविधाजनक कैसे बनाया जाए. ऐसी कई चीजें वे आपस में मिलकर कर रहे थे. और सबसे मार्के की बात यह है कि उनका भारतीय सपना राजनीतिक सपना नहीं था, यह सत्ता या महात्वाकांक्षाओं आदि से जुड़ा सपन नहीं था. वह विकास से जुड़ा सपना था. इसलिए वह बहुत, बहुत अनूठा था. और उन्होंने कुछ गांधीवादी आदर्शों को भी अपनाया.
रमा: यानी, विकास आंदोलन का संघर्ष कहीं लोकतंत्र के आंदोलन में बदल गया.
श्रीनिवासराजू: बिलकुल. ऐसा इसलिए क्योंकि उनका मानना था कि अगर आपको विकास लाना है तो मैदान समतल होना चाहिए, जो सबको समान अवसर उपलब्ध कराए. यह केवल लोकतंत्र में संभाव है, तानाशाही में नहीं.
रमा: मुझे इमरजेंसी विरोधी उस पहले प्रदर्शन के बारे में बताइए, जो वाशिंगटन में भारतीय दूतावास के बाहर किया गया था. आपने लिखा है कि उसमें 75-80 लोग आए थे.
श्रीनिवासराजू: वह अच्छी तरह से आयोजित प्रदर्शन नहीं था. वह इमरजेंसी का विरोध करने की वहां पहली कोशिश थी. उसमें शामिल लोगकाफी सावधान थे और अपनी पहचान साफ-साफ बता रहे थे. हम कौन हैं? हमारे विचार क्या हैं? और फिर भारत के विकास के हमारे सपने क्या हैं.
वे कह रहे थे कि हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए आए हैं, न कि इंदिरा गांधी का विरोध करने के लिए और न कि इसलिए कि हम जेपी आंदोलन में शामिल हैं. हम इसलिए आए हैं कि हम नहीं चाहते कि भारत अपना अवसर गंवा दे.
रमा : यानी यह दलीय राजनीति का हिस्सा नहीं थी.
श्रीनिवासराजू : वह दलीय राजनीति कतई नहीं थी. वास्तव में, उनके पूरे साहित्य तथा पत्रों में उल्लेखनीय चीज मैंने यह पाई कि इंदिरा गांधी पर कोई व्यक्तिगत हमला नहीं किया गया था. लोकतंत्र को केंद्रीय मसला बनाया गया था. मेरी किताब को इंदिरा विरोधी न मानिए. यह पुस्तक लोकतंत्र समर्थक ज्यादा है.
रमा: वे लोगों को किस तरह संगठित करते थे? क्या वे कैंपसों में जाते थे, प्रवासियों की बैठकें करते थे? और फंड इकट्ठा करते थे? क्या आप बता सकते हैं कि उनके औज़ार क्या-क्या थे?
श्रीनिवासराजू: सबसे पहले तो उन्होंने प्रोफेसर आनंद कुमार को भेजा, जो उस समय शिकागो यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी में पीएचडी कर रहे थे. वे जेएनयू से आए थे और उसके छात्र संगठन के अध्यक्ष थे. छात्र संघ के चुनाव में उन्होंने प्रकाश करात को हराया था. वे जेपी से प्रभावित थे, उनके करीबी संपर्क में थे और उनके आंदोलन में शामिल थे. अचानक उन्हें अमेरिका जाकर पीएचडी करने के लिए भारत सरकार की स्कॉलरशिप मिल गई. जनवरी 1975 में वे अमेरिका पहुंचे. उन्होंने बड़ी गंभीरता से राजनीतिक भाषा में बताना शुरू किया कि भारत में क्या हो रहा था.
रवि चोपड़ा और एस.आर. हिरेमठ, और श्री कुमार पोद्दार इस कहानी के केंद्रीय पात्र हैं. अमेरिका में अच्छी स्थिति में जमे पोद्दार शुरू में पूरी गतिविधियों के लिए फंड देते थे. वे 1950 के दशक में सबसे शुरू में अमेरिका जाने वालों की जमात में शामिल थे. अमेरिका में काफी पैसा कमा चुके पोद्दार रामनाथ गोयनका से जुड़े थे और बादशाह जैसा रुतबा रखते हैं. वे राजनीति की जानकारी भी रखते हैं. राष्ट्रपति पद के यूजीन मैकार्थी जैसे उम्मीदवारों के चुनाव के लिए चंदे उगाहने के कारण अमेरिका में उनका बड़ा नेटवर्क भी है. वे इस समूह के साथ जुड़ते हैं और आनंद कुमार को पूरे अमेरिका में व्याख्यान देने के लिए भेज दिया जाता है. पहला व्याख्यान इमरजेंसी लगाए जाने से पहले ही आयोजित हो गया था. यानी उन लोगों को कोई भनक लग गई थी और वे भारत में लोकतंत्र पर आ रहे संकट के बारे में जागरूकता फैलाना चाहते थे. आनंद कुमार अमेरिका के कई शहरों और कैंपसों में व्याख्यान देकर बताते हैं की भारत में क्या कुछ हो रहा है.
पहला संगठित विरोध प्रदर्शन दूतावास या राजदूत के निवास के सामने हुआ. इसके लिए 15 अगस्त के आसपास की तारीख चुनी गई. यह प्रदर्शन भारी सफल रहा क्योंकि इसने अमेरिकी मीडिया का ध्यान भी आकृष्ट किया. जाने-माने कॉलम लेखक मेरी मैकगोरी ने अपने कॉलम में इस प्रदर्शन के बारे में लिखा. इस तरह उन्हें पहली बार बड़ा प्रचार हासिल हुआ. इसने दूतावास के अंदर भी पहली बार खतरे की बड़ी घंटी बजा दी.
रमा: और वे अमेरिकियों के साथ किस तरह का गठबंधन बना रहे थे? वे कौन लोग थे?
श्रीनिवासराजू: वामपंथियों की तरफ से भारी दबाव था क्योंकि वे, धुर वामपंथी जिन्हें माकपा कह सकते हैं, ज्यादा मजबूत थे. वे अपनी बड़ी ताकत खड़ी करना चाहते थे क्योंकि उन्हें भारत में लोकतंत्र बहाली का नहीं बल्कि ‘क्रांति लाने’ का अवसर नजर आ रहा था. इसके अलावा कनाडा की कम्युनिस्ट पार्टी भी थी. और गदर पार्टी भी थी, जो आजादी के आंदोलन के जमाने से अस्तित्व में थी और धुर वामपंथी पार्टी थी. उन सबके आपास में बहुत मतभेद थे. एक पार्टी दूसरे पर हमले करती रहती थी. लेकिन यह समूह वामपंथियों के दबाव में झुका नहीं. दक्षिणपंथी तत्व अभी भी दबे पांव चल रहे हैं.
रमा: यानी आप कह रहे हैं कि उस समय अमेरिका में दक्षिणपंथी आंदोलन का बहुत असर नहीं था.
श्रीनिवासराजू: हां, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) 1971 में बनी. अमेरिका में इसकी स्थापना महेश मेहता ने की. आरएसएस की गहरी पृष्ठभूमि वाले राम गेहानी या जितेंद्र कुमार भी थे लेकिन वे उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुडने की कोशिश में थे जिसे इस समूह ने शुरू किया था. इस समूह का कहना था कि वह विचारधारा के आधार पर कोई फैसला नहीं करेगा, एक्शन में एकता पर ज़ोर देगा. हम हिंसक वामपंथ या दक्षिणपंथी मुहिम आदि की इजाजत नहीं देंगे.
रमा: आपने अपनी पुस्तक में इन प्रवासी भारतीयों पर एक क्रूर सरकार के प्रभाव के बारे में लिखा है. उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ी?
श्रीनिवासराजू: शुरू में किसी को परेशान नहीं किया गया, किसी को भी नहीं. लेकिन 1975 के अंत और 1976 के शुरू में मामला काफी गंभीर हो गया. इसकी वजह यह थी कि इंदिरा गांधी ने चुनावों को टाल दिया था. अब तक अमेरिका को भारत में इमरजेंसी को लेकर वास्तव में कोई चिंता नहीं हुई. शुरू के महीनों में इंदिरा गांधी के लिए काफी सहानुभूति थी. लेकिन उन्होंने चुनाव को टाल दिया तब उन्हें लगा कि उनका इरादा कुछ और है. तब जाकर ‘आइएफडी’ (इंडियन्स फॉर डेमोक्रेसी) की ओर सबका ध्यान जाने लगा क्योंकि वे मध्यमार्गी थे.
नतीजा यह होता है कि आनंद कुमार की स्कॉलरशिप रद्द कर दी जाती है, जिसके बिना अमेरिका में उनका रहना मुश्किल हो जाता. लेकिन शिकागो यूनिवर्सिटी ने आगे आकार उनकी फीस माफ कर दी. इसके बाद उन्हें ‘शिकागो ट्रिब्यून’ में मेलमैन की नौकरी मिल गई. लेकिन अमेरिका में सिर्फ इतने के बूते रह पाना मुश्किल था. उन्हें शिकागो यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी के गार्ड का काम भी मिल गया. भारत में जेपी आंदोलन की प्रमुख हस्तियां, राम जेठमलानी और वी.एम. तारकुंडे उनसे कहते : “यहां मत लौटो. तुम भी जेल में एक नंबर बन जाओगे. किसी तरह वहां जमे रहो’. इसलिए वे वहीं टिके रहे, उनके अमेरिकी प्रोफेसरों ने उनकी मदद की. उनके सहपाठियों ने ‘कमिटी इन डिफेंस ऑफ आनंद कुमार’ बना डाली. उनकी बहन और बहनोई को गिरफ्तार कर लिया गया था. पूरा परिवार संकट में पड़ गया था.
कुछ दिनों बाद, रवि चोपड़ा को छोड़ ‘आइएफडी’ सभी संस्थापकों के पासपोर्ट जब्त कर लिये गए. श्री मुमर पोद्दार, राम गेहानी, एस.आर. हिरेमठ के पासपोर्ट जब्त कर लिये गए.
रमा: मैं अब विषय बदलते हुए उस समय के कुछ दिलचस्प किरदारों, मसलन अमेरिका में उस समय भारत के राजदूत टी.एन. कौल की बात करना चाहूंगी जिन्होंने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का जोरदार बचाव किया था.
श्रीनिवासराजू: कौल गांधी परिवार के एक सदस्य जैसे थे. वे वहां के मुख्य प्रोपगंडा मशीन थे और यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी घूम कर अमेरिकियों को समझा रहे थे : आप हमें क्यों जिम्मेदार ठहरा रहे हैं? हमने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जेपी ने सेना को इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत करने के लिए उकसाया है. इससे अराजकता फैल जाएगी. लेकिन जेपी ने ऐसा नहीं कहा था.
वाइ. बी. चह्वाण अमेरिका आए, उनको हूट कर दिया गया. वे राष्ट्रपति गेराल्ड फोर्ड से मिलते हैं. इस बैठक में हेन्री किसिंगर भी मौजूद होते हैं. वे फोर्ड से कहते हैं : “प्रेसिडेंट, आपको इंदिरा गांधी के खिलाफ सड़कों पर इन प्रदर्शनों की इजाजत नहीं देनी चाहिए”. फोर्ड जवाब देते हैं : “लोकतंत्र को हम इंदिरा गांधी के नहीं बल्कि अपने पैमाने पर आंकते हैं”.
रमा: क्या आप यह कहना चाहते हैं कि आइएफडी के प्रभाव के कारण कौल ने प्रवासी भारतीयों से ज्यादा मिलना-जुलना, उन्हें संबोधित करना शुरू किया?
श्रीनिवासराजू : जी हां. वे न्यूयॉर्क और दूसरे शहरों में गुप्त बैठकें करने लगते हैं, लोगों को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वे इन लोगों का साथ न दें. राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय गौरव आदि की सस्ती बातें उछाली जाती हैं. कौल यह भी कहते हैं कि ये लोग पारिवारिक झगड़ों को सड़कों पर उछाल रहे हैं.
रमा : इमरजेंसी वापस लिये जाने के बाद जेपी अमेरिका आए तो उन्हें जिमी कार्टर ने फोन किया.
श्रीनिवासराजू: जी हां. जेपी अपना इलाज करवाने अमेरिका आए, उन्हें सिएटल में ऑपरेशन करवाना था. उन्हें जीवित रहने के लिए डाइलाइसिस मशीन की जरूरत थी. इंदिरा गांधी ने इसके लिए फंड में दान देने की कोशिश की. अमेरिका की आइएफडी ने जेपी से इसे लौटा देने के लिए कहा, कि हम आपके लिए पैसे जमा करेंगे. कृपया उनका पैसा मत स्वीकार कीजिए.
जेपी को एक फोन आता है, यह जिमी कार्टर का था. कार्टर ने उनसे कहा : “आप कैसे हैं औकैसा चल रहा है?” जेपी उलझन में पड़ जाते हैं, वे कहते हैं : “मुझे नहीं मालूम था कि मैं इतना महत्वपूर्ण हूं. मुझे नहीं पता था कि कार्टर को यह भी मालूम है कि मेरे नाम का कोई आदमी भी है.”
रमा: अब 2025 में भारतीय प्रवासियों से आप क्या चाहते हैं, वे आपकी किताब से क्या संदेश लें?
श्रीनिवासराजू: मैं तो यही कहूंगा कि मेरी किताब जमीर के लिए छोटा-सा आईना है. वे इसमें झांकेंगे तो उन्हें शायद यह पता चल जाएगा कि हमारे समुदायों के पास कुछ ऐसा भी था जो कहीं ज्यादा आर्थपूर्ण और गहरा था.
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