ज़ोहरान ममदानी केवल न्यू यॉर्क शहर या अमेरिकी राजनीति में ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति में भी ‘चर्चा’ के विषय बनने वाले हैं. या यह कहने के बदले, कि वे सुर्खियों में रहेंगे, हम आज के डिजिटल दौर और उनकी आबादी के लिहाज से माकूल भाषा का प्रयोग करते हुए यह कह सकते हैं कि अभी कुछ समय तक उनका नाम पर सबसे ज्यादा ‘सर्च’ किया जाएगा.
भारतीय मूल के इस 33 वर्षीय सुपर स्टाइलिश और स्पष्टवक्ता मुसलमान में लोगों को आकर्षित करने की जबरदस्त क्षमता है. दुनिया के सबसे उदार, सबसे शक्तिशाली, समृद्ध यहूदी बहुल शहर की बागडोर उनके हाथों में आने वाली है. भारत में, वे हिंदू-मुस्लिम रिश्ते के विमर्श के विषय बन गए हैं. दक्षिणपंथी हिंदू मानस इसे एक और बड़े ग्लोबल शहर पर इस उपमहादेश के एक मुसलमान की विजय के रूप में देख सकता है. दूसरे मुसलमान हैं लंदन के मेयर सादिक़ ख़ान.
ममदानी गज़ा के समर्थक हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति के अपने इलाके में जबरदस्त ट्रंप-विरोध को बुलंद करते हैं, और डेमोक्रेटिक लेफ्ट की पैरोकारी करते हैं. जाहिर है, यह सब उन्हें इतना महत्वपूर्ण तो बना ही देता है कि डोनल्ड ट्रंप उन पर एक लंबा ‘पोस्ट’ लिख डालें.
ट्रंप ने उन्हें “सौ फीसदी कम्युनिस्ट पागल” कहकर उनकी ‘तारीफ’ की, कि वह “दिखने में भद्दा है, उसकी आवाज कर्कश है”, आदि-आदि. ट्रंप उनके उत्कर्ष के लिए डेमोक्रेटिक लेफ्ट की चार महिला नेताओं की ‘चौकड़ी’ को जिम्मेदार मानते हैं, जिनसे वे नफरत करते हैं और जिन्हें वे न्यू यॉर्क से अमेरिकी काँग्रेस की सदस्य अलेक्ज़ेंद्रिया ओकासिओ-कोर्टेज (एओसी) के नेतृत्व वाला ‘स्क्वाड’ (दस्ता) कहते हैं.
राष्ट्रपति का शब्द-चयन बेशक ‘ट्रंपवादी’ ही है. ट्रंप की दुनिया में, वे जिसे नापसंद करते हैं उसके लिए कम्युनिस्ट या पागल जैसे विशेषणों का चलताऊ ढंग से इस्तेमाल सामान्य बात है, जैसे टिनटिन कॉमिक्स का कैप्टन हैडॉक किसी को खारिज करने के लिए उसे महामारी फैलाने वाला जानवर या ‘वेजिटेरियन’ तक कह देता है. वैसे, राष्ट्रपति ट्रंप से अपमानित होने का न्यू यॉर्क में कोई बुरा नहीं मानता.
ममदानी के उत्कर्ष से क्या मुझे कोई समस्या है, या इस मामले पर मैं अपनी कोई राय रखता हूं? जवाब हैं: समस्या? कोई नहीं; और राय? पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों में भारतीय लोगों के उत्कर्ष पर गर्व होता है. ऋषि सुनक, भारतीय दक्षिणपंथी काश पटेल, जय भट्टाचार्य और हिंदू अमेरिकी तुलसी गब्बार्ड, आदि सबके ऊपर हमें गर्व हुआ, जिन्हें ‘भारतीय’ सीईओ के सितारे कहा जाता है. ममदानी भी इन सितारों में शुमार हो जाएंगे.
मुझे मालूम है कि मैं जो कुछ कह रहा हूं उससे हमारे कई पाठक उत्तेजित हो सकते हैं. मैं भी उत्तेजित हूं मगर उन वजहों से नहीं जिन वजहों से आप उत्तेजित हैं.
ममदानी की मान्यताएं, उनके विचार, गज़ा के लिए उनका समर्थन, नरेंद्र मोदी या बेंजामिन नेतन्याहू के प्रति उनकी नापसंदगी, आदि की वजह से भारत में कई लोग उनके उत्कर्ष को एक और ‘भारतीय विजय’ के रूप में नहीं मना सकते हैं. इन लोगों के लिए यह एक गलत शख्स (गलत आस्था) की विजय है. यह ध्रुवीकरण न्यू यॉर्क में भारतीय प्रवासियों के बीच भी हो चुका है. मैं इससे बहुत प्रभावित नहीं हूं. और कुछ नहीं, तो मैं यह दावा तो कर ही सकता हूं कि मैंने दुनिया के सबसे महान शहर के नये मेयर (अगर वे जीत गए) की मॉम का अपने ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में दो बार इंटरव्यू लिया है. इसकी कहानी मैं अंत में कहूंगा.
तो, मैं किसलिए उत्तेजित हूं? यह समझने के लिए मैं उनके कुछ प्रमुख चुनावी वादों की चर्चा करूंगा. वे बसों का किराया खत्म कर देंगे (दिल्ली, कर्नाटक, तेलंगाना और इसके बाद और सारे शहर गौर करें); सबसीडी से बनाए गए 20 लाख आवासों का किराया ‘फ्रीज़’ कर देंगे (हम अपने रेंट कंट्रोल एक्ट को याद करें); और सार्वजनिक आवास विकास एजेंसी (भारत के हर शहर में डीडीए, म्हाडा, बीडीए, आदि हैं) के जरिए तीन साल के अंदर दो लाख और आवास बनवाएंगे; छह सप्ताह के नवजात शिशुओं से लेकर पांच साल तक के बच्चों को व्यापक बाल सुरक्षा सेवा (आंगनवाड़ी?) उपलब्ध कारवाएंगे; और दम साध लीजिए, सरकारी किराना स्टोर खोले जाएंगे जिनमें कम कीमत पर सामान मिलेंगे. आपको अपनी राशन की दुकानों, केंद्रीय भंडारों, और सहकारी सुपर मार्केट की याद है न?
ये सारे कार्यक्रम भारतीयों की दो पीढ़ियां समाजवादी राज्य-व्यवस्था की भारी नाकामियों के रूप में याद करते हैं. जिस तरह मैं 10 साल की उम्र में अपनी मां के साथ हर चीज खरीदने के लिए राशन की दुकान के आगे लाइन में खड़ा हुआ करता था, उस तरह अगर आप भी खड़े हुए होंगे तब आप समझ जाएंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं.
इन सरकारी दुकानों में कामगार तबकों के लिए चीनी (1967 में प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह 200 ग्राम के हिसाब से), गेहूं से लेकर मीटर के नाप से कपड़े तक हर चीज उपलब्ध होती थी. अगर आपको इन दुकानों का अनुभव न भी मिला हो, मगर आपने अपने शहरों में कामगार तबकों के लिए बनाए गए सरकारी आवासों को जरूर देखा होगा जिन्हें कंक्रीट का स्लम कहा जाता है. नई दिल्ली में मैं इन्हें ‘दिल्ली डिस्ट्रक्शन (ओह, डेवलपमेंट) ऑथरिटी’ द्वारा बनाए गए स्लम कहता हूं. हर शहर में आपको ऐसे स्लम मिल जाएंगे. हमारी मुफ्त बस सेवाएं राज्य सरकारों की आर्थिक तंगी के कारण नाकाम हो रही हैं. ऐसी सारी जो योजनाएं उनके मूल देश में बुरी तरह विफल हो गईं उन्हें ममदानी उस शहर में दोहराना चाहते हैं जिसे लाखों भारतीयों ने मुख्यतः आर्थिक शरणार्थी के रूप में अपना नया घर बनाया है.
ममदानी इतनी कम उम्र के हैं कि उन्होंने ये सारे विचार भारत से शायद ही लिए होंगे, और यह भी मुमकिन नहीं है कि उनके अभिभावकों ने इस सबका खुद बहुत अनुभव लिया होगा. लेकिन, जिस देश ने आधुनिक विश्व को पूंजीवादी सपना दिया और जो शहर तेज कामयाबी का प्रतीक माना जाता है वहां समाजवाद के प्रति इतना लगाव काफी दिलचस्पी का विषय है. इससे भी दिलचस्प है न्यू यॉर्क के युवाओं में इसके प्रति आकर्षण.
अमेरिका के प्रायः सभी बड़े शहरों में यही स्थिति है, वे सब डेमोक्रेटों के नियंत्रण में हैं. और ममदानी उस ‘दस्ते’ के भी बायें खड़े हैं. जिस शहर को पूंजीवादी सफलता का ब्रांड दूत होना चाहिए था उसका विरोधाभास यह है कि उसे समाजवाद में बड़ा सेक्स अपील दिख रहा है.
या ऐसा तो नहीं है कि इस तरह की सफलता अंततः समाजवाद के लिए जमीन तैयार करती है? कि आप इतने अमीर हो गए हैं कि समाजवाद की छूट दे सकते हैं? यूरोप ने जब खूब अमीरी हासिल कर ली तब धुर वामपंथ की ओर मुड़ गया था, और अब रास्ता बदल रहा है. समृद्ध समाजों में समाजवाद प्रवासियों को आकर्षित करता है और इसके साथ नस्लीय, धार्मिक विविधताएं भी लाता है, और सच कहें तो दूर देशों के जनजातीय आंतरिक संघर्षों को भी ले आता है. इसके खिलाफ प्रतिक्रिया होती है और दक्षिणपंथ वापस आ जाता है. ऐसा स्केंडिनेविया में भी हुआ, जिसे सर्वश्रेष्ठ समाजवाद का घर माना जाता है.
भारत की समस्या यह है कि बुरे विचारों ने इसका पीछा कभी नहीं छोड़ा. केवल अच्छे लोग और सर्वश्रेष्ठ दिमाग इसे छोड़कर चले गए. सबसे शानदार, सबसे महत्वाकांक्षी, उद्यमी भारतीयों ने अमेरिका को अपना घर बना लिया. वे हमारे फर्जी समाजवाद से नहीं, तो आखिर किससे भाग रहे थे? आज जो भी भारतीय ‘डंकी रूट’ (अवैध तरीके से सीमा पार करने के रास्ते) की खातिर अपना जीवन जोखिम में डालता है वह समाजवाद से भाग रहा है, जो कि मोदी राज में कायम है. जांच कीजिए कि मोदी सरकार वितरणवादी जनकल्याण पर कितना खर्च कर रही है और दक्षिणपंथी मानी गई भाजपा ने भारतीय समाजवादियों की रेवड़ी संस्कृति को किस हद तक अपना लिया है.
जनवरी 1990 में सोवियत संघ के विघटन की खबर लेते हुए मैंने प्राहा में एक टैक्सी वाले से ज्ञान हासिल किया. इंजीनियरिंग में मास्टर्स डिग्री हासिल कर चुका यह टैक्सी ड्राइवर इंतजार कर रहा था कि वाक्लाव हावेल उसके देश की अर्थव्यवस्था को कब पूरी तरह मुक्त करते हैं. उसने कहा कि आप भारतीयों ने इमरजेंसी में अपनी राजनीतिक आजादी के लिए संघर्ष किया लेकिन कभी आर्थिक आजादी की लड़ाई क्यों नहीं लड़ी?
इस सवाल का जवाब भी उसके पास था: क्योंकि आप लोगों को कभी आर्थिक आजादी का अनुभव नहीं मिला. आपको यह भी नहीं पता चला कि आपको इस आजादी से वंचित किया गया है. यह बातचीत प्राहा के वेन्सेस्लास चौक पर हो रही थी, जहां एक इमारत से एक झंडा नीचे लटक रहा था और उस पर लिखा था: ‘आपके घर में आपका स्वागत है, मिस्टर टाटा’. ड्राइवर ने कहा, टाटा को यहां से कम्यूनिज़्म ने बाहर निकाल दिया था. कनाडा में उन्होंने खूब कमाई की, अब आप भारतीय लोग उनके बनाए जूते पहन रहे हैं.
पुनश्च: : मीरा नायर के साथ अपने ‘वॉक दि टॉक’ कार्यक्रम के लिए हमने जनवरी 2005 की एक ठंडी सुबह जामा मस्जिद में बातचीत करने का तय किया था. हमने बातचीत शुरू ही की थी कि शाही इमाम आ पहुंचे. वे बहुत नाराज थे, “एकदम रुकिए आप !”. उन्होंने मुझे पहचाना तो नरम पड़े: “आपके लिए इज्जत है, आप जब मर्जी हो, यहां रेकॉर्ड कीजिए, इनके लिए नहीं.” मैंने इसकी वजह पूछी और बताया कि दुनिया भर में इनकी कितनी इज्जत है और ये कितनी शानदार फ़िल्मकार हैं. लेकिन शाही इमाम कतई प्रभावित नहीं हुए और उनके लिए ऐसे विशेषण इस्तेमाल करने लगे जिन्हें मैं दोहरा नहीं सकता. मैं यह कल्पना करने का पाप भी नहीं कर सकता कि मौलाना साहब ने उनकी ‘कामसूत्र’ फिल्म देखी होगी या नहीं या उसके बारे में सुना होगा या नहीं.
लेकिन हम वहां से हट गए, हमने बाहर की गली में रेकॉर्डिंग की और बातचीत नान और निहारी का नाश्ता करते हुए पूरी की.
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