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रविवार, 29 जून, 2025
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इज़राइल-अमेरिका की ‘एयर पावर’ ने ईरान को युद्ध नहीं, बल्कि शासन बचाने का रास्ता अपनाने पर मजबूर किया

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भारतीय समय के अनुसार 22 जून की सुबह 04.40 से लेकर अगले 48 घंटों में इजरायल-ईरान युद्ध में जबरदस्त रणनीतिक बदलाव आए. पहला तो यही कि अमेरिका अपनी जोरदार हवाई ताकत के स्तब्धकारी प्रदर्शन के साथ इस युद्ध में कूद पड़ा. उसने ईरान के फोर्दो, नतांज, और इस्फ़हान स्थित तीन परमाणु केंद्रों पर हमला किया. उसके सात बी-2 स्टील्थ बमवर्षकों ने इन जगहों पर ‘जीबीयू-57 मैसिव ओर्ड्नांस पेनीट्रेटर्स, एमओपी’ नामक 14 बम गिराए; और उसकी पनडुब्बियों ने ‘टोमाहॉक’ नामक 24-30 क्रूज़ मिसाइलें दागीं. पूरे तालमेल के साथ किए गए इस ऑपरेशन में अमेरिकी अड्डों के 125 सपोर्ट विमानों ने भाग लिया.

ईरान ने अमेरिका से इसका बदला लेने का संकल्प लिया, लेकिन उसने बैलिस्टिक मिसाइलों से मुख्यतः इजरायल को ही निशाना बनाया. इजरायल ने भी परमाणु अड्डों और सैन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर को निशाना बनाते हुए हवाई हमले लगातार जारी रखे.

इसके साथ-साथ युद्धविराम के लिए नेपथ्य में कूटनीतिक वार्ताएं भी जमकर चलीं. अंततः, ईरान को क़तर के अल उदेद हवाई अड्डे पर 24 जून को प्रतीकात्मक हमला करने की इजाजत दी गई. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने 25 जून को भारतीय समय के अनुसार सुबह 03.30 बजे युद्धविराम की घोषणा कर दी. ऐसा लगता है कि ईरान और इजरायल, दोनों ने इस युद्धविराम को कबूल कर लिया है. दोनों ने अपनी-अपनी जीत के दावे किए हैं. इजरायल और अमेरिका ने ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को भारी नुकसान पहुंचाने का और उसकी सैन्य ताकत को कमजोर करने का दावा किया, तो ईरान ने तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद शक्तिशाली दुश्मनों से लोहा लेने को अपनी जीत बताया. लेकिन युद्धविराम अभी भी अनिश्चित है. ईरान और इजरायल, दोनों ने एक-दूसरे पर इसका कम-से-कम एक बार गंभीर उल्लंघन करने का आरोप लगाया है. वैसे, व्यापक संदर्भ में युद्धविराम जारी है.

असली हकीकत यह है कि ईरान ने घुटने टेक दिए हैं क्योंकि उसके पास युद्ध जारी रखने की क्षमता या सामर्थ्य नहीं बची. उसने दरिद्र बनने और अफगानिस्तान के रास्ते पर जाने की बजाय अपनी सरकार और तेल भंडार को बचाने का विकल्प चुना. दीर्घकालिक शांति की शर्तों के बारे में अभी कुछ कह पाना मुश्किल है, लेकिन एक चीज पक्की है : ईरान ज्यादा-से-ज्यादा अपनी शान और इज्जत बचाए रखने की उम्मीद ही कर सकता है.

क्या इजरायल और अमेरिका ने अपने लक्ष्य हासिल किए?

प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने ‘ऑपरेशन राइजिंग लायन’ शुरू करते हुए अपना राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट कर दिया था: “जो लोग हमें नेस्तनाबूद करने की बात करते हैं और उसके लिए हथियार (ईरान के परमाणु कार्यक्रम) बनाना चाहते हैं उन्हें हम इसकी इजाजत नहीं दे सकते. आज की रात इजरायल इस ऐलान को अमली जामा पहना रहा है.”

सैन्य लक्ष्य ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम (यूरेनियम परिष्करण संयंत्रों, अनुसंधान केंद्रों, डेलीवरी के साधनों, परमाणु वैज्ञानिकों, फौजी आलाकमान) को नष्ट/कमजोर करना था. इसके साथ-साथ इजरायल पर हमला करने की ईरान की जवाबी कार्रवाई की क्षमता (बैलिस्टिक मिसाइलों और ड्रोनों) को भी नष्ट करना था.

इजरायल की शुरुआती कामयाबी के बूते अमेरिका ने अपना यह राजनीतिक लक्ष्य तय किया: ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को नष्ट करके उस पर अपनी शर्तों पर शांति थोपना. सैन्य लक्ष्य फोर्दो और नतांज में यूरेनियम परिष्करण के भूमिगत संयंत्रों और इस्फ़हान में परिष्कृत यूरेनियम के भंडार को एक मेगा हवाई हमला करके नष्ट करना था. इजरायल के पास फोर्दो को नष्ट करने की ताकत नहीं थी, और नतांज तथा इस्फ़हान को नष्ट करना भी जरूरी था.

इराक़, लीबिया, और अफगानिस्तान की लड़ाईं में मिले अनुभव के मद्देनजर, ईरान में तख़्ता पलटने के बारे में दिए गए बयान सियासी लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं थे. ये बयान इस उम्मीद से दिए गए कि लगातार हवाई हमलों से ईरान में आंतरिक असंतोष भड़क उठेगा.

देखा जाए तो तमाम पैमाने के मुताबिक इजरायल और अमेरिका ने अपने राजनीतिक और सैन्य लक्ष्य हासिल कर लिए.

‘इजरायल डिफेंस फोर्सेस’ (आईडीएफ) ने नुकसान का जो आकलन किया है, मैंने उसी का उपयोग किया है क्योंकि यह इजरायल की सुरक्षा को सीधे प्रभावित करता है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े हर परमाणु केंद्र या तो नष्ट हो गया है या उसे बुरी तरह नुकसान हुआ है. ‘आईडीएफ’ के चीफ ऑफ स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल एयाल जमीर ने कहा है कि “हमने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को वर्षों पीछे धकेल दिया है.” ईरान ने इसकी पुष्टि भी कर दी है. ज्ञान को तो नष्ट नहीं किया जा सकता लेकिन 15 टॉप परमाणु वैज्ञानिक भी मारे जा चुके हैं.

हवाई हमलों को रोकने और इजरायल को निशाना बनाने की ईरान की क्षमता को भी बुरी तरह कमजोर कर दिया गया है. युद्ध के शुरू के 48 घंटे में ही उसकी सभी प्रमुख एअर डिफेंस सिस्टम (80 बैटरी) को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया, और इजरायल को ईरान के आसमान में पूरी आजादी हासिल हो गई थी. बैलिस्टिक मिसाइलों 350 में से 250 लांचरों समेत 2,500 में से 1,000 बैलिस्टिक मिसाइलों को नष्ट कर दिया गया. ईरान के पास केवल 100 लांचर और 1,000-1,500 मिसाइलें ही बच गईं. इनमें से 550 मिसाइलों से उसने इजरायल को निशाना बनाया.

ऑपरेशन के दौरान ईरान की सेना और ‘इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर’ (आईआरजीसी) के सभी पुराने अधिकारी मारे गए, मिलिटरी कमांड एवं कंट्रोल इन्फ्रास्ट्राक्चर ध्वस्त हो गया. इजरायल को ईरान के तेल कुओं और रिफाइनरियों को नष्ट करने की पूरी आजादी और क्षमता हासिल हो गई थी, लेकिन इससे इस डर से परहेज किया गया कि ईरान अरब के तेल इन्फ्रास्ट्राक्चर पर हमले करके पूरी दुनिया को तेल संकट में डाल सकता था.

ईरानी आसमान पर पूरे नियंत्रण के साथ इजरायल अपनी मर्जी से सटीक हमले कर सकता था और अमेरिकी मदद के कारण वह अनिश्चित समय तक ऐसा करता रह सकता था. लेकिन ईरान की बैलिस्टिक मिसाइलों के हमले भी नागरिकों के जान-माल की अस्वीकार्य (इजरायली पैमाने के मुताबिक) क्षति कर रहे थे. अमेरिकी दबाव के अलावा इस एकमात्र मजबूरी के चलते इजरायल ने युद्धविराम को कबूल किया.

सार यह कि इजरायल और अमेरिका ने इस युद्ध से अपने राजनीतिक और सैन्य लक्ष्य हासिल कर लिये. सत्ता परिवर्तन एक अवास्तविक राजनीतिक लक्ष्य था, लेकिन यह दीर्घकालिक लक्ष्य बना रहेगा. बाकी बचा अपनी शर्तों पर शांति थोपना.

ईरान ने घुटने टेके

ईरान का राजनीतिक लक्ष्य सीधा-सा था— अपनी और अपनी रणनीतिक संपत्तियों की रक्षा करना; हुकूमत को सलामत रखना, और अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना. उसका सैन्य लक्ष्य था— अपनी समेकित एयर डिफेंस के जरिए इजरायल की हवाई मुहिम को शिकस्त देना, और अपनी मिसाइलों तथा ड्रोनों के हमले करके उसे पस्त करना.

ईरान की प्रतिकार क्षमता की बुनियाद आपस में जुड़ी तीन क्षमताओं में निहित थी— उसका गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम; हिज्बुल्ला, हाउदी तथा हमास के क्षेत्रीय लड़ाकों और सीरिया के बशर-अल-असद की पिछली हुकूमत के गुटों का विशाल नेटवर्क; और जवाबी हमला करने वाली मिसाइलों तथा ड्रोनों की ताकत. इन औजारों के बूते ईरान ने पश्चिम एशिया पर अपना दबदबा बनाने और अमेरिका-इजरायल के रणनीतिक ढांचे को चुनौती देने की कोशिश की. 12 दिनों के इस युद्ध के अंत में यह ‘त्रिशूल’ नाकाम हो गया है.

ईरान इजरायल के हवाई हमलों से अपना बचाव करने में बुरी तरह विफल रहा, जिन्हें पूरे ज़ोर से चलाया गया और जिनमें एक भी जान नहीं गई और एक ड्रोन को छोड़ कोई विमान नहीं गिराया गया. इजरायल के फाइटर विमानों ने 12 दिनों में 1,000 उड़ानें भरी. यह कहना काफी होगा कि ईरान का एकमात्र डिफेंस छद्म आवरण, छिपाव, बिखराव, और सख्त भूमिगत ढांचों जैसे अप्रतिरोधी उपाय थे.

बाधाओं के बावजूद ईरान ने इजरायल को निशाना बनाने के लिए 550 बैलिस्टिक मिसाइलें दागी, लेकिन केवल 10 फीसदी ही इजरायल के डिफेंस को भेद सकीं, और नागरिक इलाकों और अहम इन्फ्रास्ट्रक्चर के नुकसान के केवल 31 मामले हुए. 12 दिनों के युद्ध में इजरायल पर ईरान की बैलिस्टिक मिसाइलों के हमलों में 28 लोग मारे गए जिनमें एक को छोड़ बाकी सभी नागरिक थे. 300 लोग घायल हुए. ईरान ने ड्रोनों से 1,000 हमले किए लेकिन एक छोड़ बाकी सारे ड्रोन रोक दिए गए. ईरान की जवाबी कार्रवाई का असर भौतिक से ज्यादा मनोविज्ञानिक दायरे में हुआ.

ईरान द्वारा 400 किलो या उससे ज्यादा परिष्कृत यूरेनियम को बचा लेने को लेकर काफी अटकलें लगाई जा रही हैं. भविष्य में किसी गुप्त परमाणु संयंत्र में 10 परमाणु बम बनाने के लिए इतना यूरेनियम काफी है. मेरा मानना है कि ईरान अगर अपने सबसे अच्छे समय में बम नहीं बना सका तो अब उसे इसमें शायद और कठिनाई हो सकती है.

ईरान की मजहबी हुकूमत इस युद्ध को झेल गई. संकट के इस समय में लोगों ने इसका साथ दिया. ‘आईआरजीसी’ के अंतर्गत भारी आंतरिक सुरक्षा और सामाजिक नियंत्रण अभी भी कायम है, और हुकूमत के खिलाफ कोई संगठित विरोध नहीं है. कट्टरपंथियों और उदारवादियों के बीच आंतरिक द्वंद्व की कुछ खबरें हैं लेकिन हुकूमत मजबूती से जमी हुई है.
इजरायली या अमेरिकी हवाई हमलों के आगे बेबस, और जवाब देने की केवल सांकेतिक क्षमता बची रहने के कारण ईरान के पास युद्धविराम को कबूल करने के सिवाय कोई उपाय नहीं था.

निदान क्या है

ईरान की मजहबी हुकूमत बच गई है. उस पर सीधी चढ़ाई की जाने की संभावना नहीं है. और उसके तेल भंडार साबुत बचे हैं. उसके सैन्य और परमाणु इन्फ्रास्ट्रक्चर या तो ध्वस्त हो चुके हैं या बुरी तरह कमजोर कर दिए गए हैं. उसके पूर्व लड़ाकों को काफी कमजोर कर दिया गया है या वे अपनी रक्षा करके संतुष्ट हो रहे हैं. चीन या रूस से प्रत्यक्ष समर्थन की लगभग कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है.

इजरायल-अमेरिका की हवाई शक्ति से किसी तरह के बचाव का कोई उपाय ईरान के पास नहीं है और भविष्य में भी उनका बड़ा खौफ बना रहेगा. उसे इजरायल को रणनीतिक चुनौती देने के लिए अतिरिक्त क्षमता हासिल करना तो दूर, इस युद्ध के पहले वाली स्थिति में आने के लिए भी पुनर्निर्माण करने में शांति के लंबे दौर की जरूरत होगी. इसलिए ईरान के पास वार्ता की मेज पर आने के सिवाय कोई उपाय नहीं है.

इजरायल और अमेरिका की कोशिश यह होगी कि ईरान पर पूर्ण शर्तें थोप दे. वे ईरान के अंदर यूरेनियम का सारा परिष्करण बंद किए जाने, सभी परमाणु ठिकानों की सुरक्षा ‘आईएईए’ की निगरानी में किए जाने, सभी बाहरी तत्वों द्वारा समर्थन को बंद किए जाने, और बैलिस्टिक मिसाइलों की रेंज और संख्या की सीमा तय किए जाने की मांग कर सकते हैं.

शांति वार्ताओं का आगे क्या होगा यह बता पाना तो मुश्किल है. मेरा विचार है कि ईरान युद्ध से पहले हासिल अपनी रणनीतिक स्वायत्तता की रक्षा करने की कोशिश करेगा, लेकिन वह सिर्फ यही उम्मीद कर सकता है कि उसे इज्जत के साथ अमन हासिल हो.

लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिककरें)


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