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शनिवार, 28 जून, 2025
होमफीचरNoida@50: नोएडा नहीं समझ पा रहा है कि वह क्या बनना चाहता—कॉस्मोपॉलिटन या इंडस्ट्रियल हब

Noida@50: नोएडा नहीं समझ पा रहा है कि वह क्या बनना चाहता—कॉस्मोपॉलिटन या इंडस्ट्रियल हब

1970 के दशक में एक औद्योगिक टाउनशिप के रूप में बनाई गई नोएडा अब बदल चुका है. यह अब दिल्ली का धूल-धक्कड़ में लिपटा पड़ोसी नहीं रहा, जहां सिर्फ फैक्ट्रियां देश की अर्थव्यवस्था के लिए सामान बनाती थीं.

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नोएडा: सेक्टर 9, नोएडा के बीचों-बीच एक छोटी सी दुकान ‘पारस एक्सटीरियर एंड इंटीरियर’ की दीवारों से सटी ढेर सारी एल्यूमिनियम शीट्स रखी हैं. यह दुकान अप्रैल 2024 में 32 वर्षीय उदित गुप्ता और उनके पिता ने खोली थी. उनका कारोबार अब इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ते निर्माण कार्य की मांग को पूरा कर रहा है. लेकिन गुप्ता का यह व्यापारिक संस्थान उस क्षेत्र में आता है जिसे नोएडा—यानी न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी—ने खासतौर पर मैन्युफैक्चरिंग के लिए चिन्हित किया था.

“सेक्टर 9 में पहले फैक्ट्रियां थीं, लेकिन अब यहां ज़्यादातर ट्रेडिंग और फैब्रिकेशन का काम होता है,” गुप्ता ने कहा. “अथॉरिटी को यह पसंद नहीं है, लेकिन अब तक किसी ने हमें रोका नहीं है.”

1970 के दशक में राजधानी पर बोझ कम करने के लिए एक औद्योगिक नगर के रूप में नियोजित नोएडा की पहचान अब बदल चुकी है. अब यह दिल्ली का वह धूल-धक्कड़ से ढका पड़ोसी नहीं रह गया है, जहां छोटे और मध्यम दर्जे की फैक्ट्रियां देश की आर्थिक मशीनरी को सामान देती थीं. अब यहां ऊंची-ऊंची इमारतें, शॉपिंग मॉल, आर्ट गैलरी और यहां तक कि बीयर गार्डन भी हैं. पहले लोग दिल्ली में रहते थे और नोएडा काम करने आते थे. अब ट्रैफिक दोनों तरफ चलता है.

अपने मूल रूप में, नोएडा अब भी खुद को एक औद्योगिक ताकत के रूप में देखना चाहता है—सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ पहल का प्रतीक. नोएडा अथॉरिटी ने फैक्ट्री चलाना आसान बना दिया है—सड़क, बिजली और पानी जैसी सुविधाओं के साथ तैयार प्लॉट मुहैया कराए जाते हैं. लेकिन जमीन की कमी और कीमतें बहुत ऊंची होने के कारण, नई फैक्ट्रियां अब ग्रेटर नोएडा, यमुना एक्सप्रेसवे और यहां तक कि हरियाणा जैसे राज्यों की ओर रुख कर रही हैं. नोएडा ने आईटी पार्क बनाए और सफेदपोश टैलेंट को लुभाने के लिए स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन (SEZ) शुरू किए, लेकिन वो कंपनियां भी अपना हेडक्वार्टर एनसीआर के दूसरे दिग्गज—गुरुग्राम—में रखना पसंद करती हैं.

“हम नोएडा को एक एकीकृत शहर बनाना चाहते थे,” नोएडा के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी (ACEO) संजय कुमार खत्री ने कहा. “अगर आप उद्योग को केवल मैन्युफैक्चरिंग तक सीमित कर देंगे, तो आप बहुत कुछ खो देंगे. जब नोएडा की शुरुआत हुई थी, तब आईटी प्रमुख नहीं था. हम विकसित हुए हैं.”

आज, नोएडा के कुल क्षेत्रफल का केवल 18.37 प्रतिशत हिस्सा औद्योगिक है, नोएडा अथॉरिटी के अनुसार. इसके विपरीत, 37.45 प्रतिशत भूमि का उपयोग रिहायशी है, जो उन मध्य और उच्च-मध्य वर्गीय परिवारों की बढ़ती मांग को पूरा करता है जिन्हें दिल्ली की महंगी रियल एस्टेट से बाहर होना पड़ा. लेकिन नोएडा के फैक्ट्री मजदूरों और दिहाड़ी श्रमिकों के लिए किफायती आवास अब भी एक सपना है—एक ऐसा सपना जो नोएडा द्वारा औद्योगिक यूटोपिया बनाने की योजना के साथ अधूरा छूट गया.

Sanjay Kumar Khatri, ACEO, Noida. His vision is an integrated township, complete with residential complexes, schools, colleges, and malls
संजय कुमार खत्री, एसीईओ, नोएडा। उनका सपना एक एकीकृत टाउनशिप का है, जिसमें आवासीय परिसर, स्कूल, कॉलेज और मॉल शामिल हों। | उदित हिंदुजा, दिप्रिंट

भव्य योजना में दरारें

सेक्टर 6 में नोएडा एंटरप्रेन्योर्स एसोसिएशन के दफ्तर में प्रेसिडेंट विपिन मल्हान अपनी बात रखते हैं. यह दफ्तर छोटे स्तर के मैन्युफैक्चरर्स—जैसे कि गारमेंट बनाने वालों से लेकर ऑटो पार्ट्स सप्लायर्स तक—का एक मुख्य केंद्र है, जो नोएडा की निजी इंडस्ट्री और सरकार के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है. यहां नोएडा के कुछ सबसे पुराने फैक्ट्री मालिक मिलते हैं और अपने व्यापार से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करते हैं.

“नोएडा अथॉरिटी का फोकस शुरू के 10 सालों तक सिर्फ इंडस्ट्री पर था,” मल्हान ने नोएडा के औद्योगिक केंद्र के रूप में विकास की कहानी बताते हुए कहा. “फिर फैक्ट्री मालिकों ने निवास की मांग की. इसके बाद मॉल्स और कमर्शियल ज़ोन बढ़े। फिर संस्थान, कॉलेज और स्कूल बने.”

आज नोएडा अलग-अलग ज़ोन का मिश्रण है—इंडस्ट्रियल, कमर्शियल, इंस्टीट्यूशनल, रिहायशी और वेयरहाउसिंग के लिए तय किए गए इलाके भी. उन्होंने कहा, “यह एक मिक्स है. नाम में ‘इंडस्ट्री’ शब्द है, और शुरुआत ऐसे ही हुई थी, लेकिन अब फोकस सभी क्षेत्रों पर है.”

मल्हान के सहयोगी, सेक्रेटरी जनरल वी.के. सेठ, शुरुआती उद्यमियों में से एक हैं जिन्होंने अपनी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट नई दिल्ली से नोएडा शिफ्ट की थी. उन्होंने बताया कि 1976 में, जब नोएडा अथॉरिटी का दफ्तर दिल्ली में था, तो वे मैटाडोर वैन में लोगों को नोएडा के नए-नए सेक्टरों में ले जाते थे, जहां इंडस्ट्रियल शेड और बिक्री के लिए प्लॉट दिखाए जाते थे.

“मैंने सेक्टर 6 के पास सेटअप लगाने का फैसला किया, जहां नोएडा अथॉरिटी अपना मुख्यालय शिफ्ट करने वाली थी,” सेठ ने कहा, जिन्होंने 1978 में एक पीवीसी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट खोली. “उस समय मैं अभी भी दिल्ली में ही रहता था, तो रोज़ 26 किलोमीटर का सफर तय करके फैक्ट्री आता था.”

सेठ ने अथॉरिटी द्वारा बनाए गए 210 स्क्वायर मीटर के एक रेडीमेड शेड को हाइपोथिकेशन के ज़रिए खरीदा, जिसमें उन्होंने 70,000 रुपए एडवांस दिया और शेड को लोन के लिए गिरवी रखा. उस समय शेड की कुल कीमत 2 से 2.5 लाख रुपए थी.

हाइपोथिकेशन स्कीम और दिल्ली में पर्याप्त औद्योगिक क्षेत्र की कमी ने सेठ जैसे छोटे उद्यमियों को नोएडा की ओर आकर्षित किया. लेकिन 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत में नोएडा वह औद्योगिक स्वर्ग नहीं था जो वादा किया गया था. उस भव्य योजना में खामियां दिखने लगी थीं.

“उस समय दिल्ली से नोएडा के लिए सिर्फ एक डीटीसी बस चलती थी,” सेठ ने कहा, यह भी जोड़ते हुए कि सड़कें भी खराब थीं. उनके टायर लगभग रोज़ पंचर हो जाते थे.

उस समय नोएडा बस अपनी पहचान बना रहा था. वहां कोई कमर्शियल बैंक शाखा नहीं थी, इसलिए सेठ को लोन के लिए मेरठ के रीजनल ब्रांच जाना पड़ता था. बिजली बिल गाज़ियाबाद में जमा होते थे. सामान्य इंफ्रास्ट्रक्चर की भारी कमी थी. फैक्ट्री से लगभग 16 किलोमीटर दूर मयूर विहार साफ दिखता था क्योंकि चारों तरफ खाली ज़मीनें थीं. पेड़ों की कमी के कारण इलाका गरमी में तपता था. बारिश में सड़कें कीचड़ में बदल जाती थीं और तेज़ हवाओं से धूल उड़ती थी.

“उस समय कोई फैब्रिकेटर नहीं था, जिससे मशीन के पार्ट्स मिलना मुश्किल था,” सेठ ने कहा. “हम अपने सामान की सप्लाई के लिए दिल्ली और अन्य जगहों पर जाते थे, जिससे ट्रांसपोर्ट और सेल्स टैक्स में अतिरिक्त खर्च होता था.”

लेकिन जैसे-जैसे औद्योगिक इकाइयां नोएडा में स्थापित होने लगीं, इलाके का विकास तेज़ हो गया. 1980 के दशक के मध्य में बड़े कारखाने खुलने लगे और यह एक टर्निंग पॉइंट था. सेठ ने बताया कि मोटोर्सन सुमी सिस्टम्स (अब समवर्धन मोटोर्सन) नाम की एक कंपनी ने अपने ऑटोमोटिव पार्ट्स निर्माण के लिए आसपास लगभग 50 यूनिट्स को जन्म दिया.

छोटे और मध्यम उद्योगों के लिए सपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना हमेशा योजना का हिस्सा था, लेकिन यूपी इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट एक्ट, 1976 के तहत बनी एक वैधानिक संस्था के रूप में नोएडा अथॉरिटी की अनोखी स्थिति ने इस क्षेत्र की तरक्की को तेज़ कर दिया.

“नोएडा अथॉरिटी सिर्फ प्लॉट ही नहीं बनाती बल्कि पानी सप्लाई से लेकर कचरा प्रबंधन तक की सेवाएं भी देती है,” सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की सीनियर विजिटिंग फेलो पुष्पा पाठक ने कहा, जिनका शहरी विकास में अनुभव है. “दिल्ली और गुरुग्राम के मुकाबले, जहां कई एजेंसियां काम करती हैं, नोएडा में यह व्यवस्था एकसमान है, जिससे प्लानिंग बेहतर होती है.”

डेवलपर्स को ज़मीन बेचने से पहले, अथॉरिटी ट्रंक इंफ्रास्ट्रक्चर—जैसे सड़कें, बिजली, पानी की सप्लाई और बाकी ज़रूरी सिस्टम—पहले से तैयार करती है. इसके विपरीत, गुरुग्राम में प्राइवेट डेवलपर्स ने जल निकासी चैनलों पर निर्माण किया, जिससे प्लानिंग की भारी कमी उजागर हुई. पाठक ने कहा कि यही वजह है कि गुरुग्राम में बारिश के समय बाढ़ आती है और नोएडा इससे बचा रहता है.

“नोएडा बहुत विकसित हो चुका है. अब लोग दिल्ली के बजाय नोएडा आना पसंद करते हैं,” सेठ ने कहा, यह भी जोड़ते हुए कि 1990 के दशक से नोएडा अथॉरिटी ने इंफ्रास्ट्रक्चर में काफी सुधार किया है. “बिजली की कटौती बहुत कम हो गई है, सड़कें अच्छी हैं, हरियाली बढ़ी है—यहां का तापमान दिल्ली से दो डिग्री कम रहता है.”

VK Seth, Secretary of NEA, at his PVC factory in Sector 6. Seth was part of the first wave of entrepreneurs who moved from Delhi to Noida in the late 1970s
एनईए के सचिव वीके सेठ सेक्टर 6 में अपनी पीवीसी फैक्ट्री में. सेठ उन उद्यमियों की पहली लहर का हिस्सा थे जो 1970 के दशक के अंत में दिल्ली से नोएडा आए थे | उदित हिंदुजा, दिप्रिंट

सेठ ने सिंगल विंडो सिस्टम को धन्यवाद दिया — यह एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म है जो व्यापार से जुड़ी सभी एप्लिकेशन, मंज़ूरी और लाइसेंस के लिए एक ही जगह समाधान देता है — जिससे उनके लिए व्यापार करना आसान हो गया. अब बिजली, पानी कनेक्शन और फायर सेफ्टी से जुड़ी समस्याएं एक ऐप के ज़रिए ऑनलाइन हल हो जाती हैं.

यह ‘प्लग एंड प्ले’ सिस्टम नोएडा में फैक्ट्री लगाना आकर्षक बनाता है. उद्यमियों को सिर्फ प्लॉट विकसित करना होता है; बाकी सब कुछ पहले से तैयार होता है. पानी कनेक्शन के लिए इधर-उधर भागदौड़ करने या बिजली लाइन के लिए किसी सरकारी अफसर को रिश्वत देने की ज़रूरत नहीं पड़ती.

इंडस्ट्री के लिए ज़मीन नहीं

एक्का इलेक्ट्रॉनिक्स, जो एलईडी टीवी और एक्सेसरीज़ बनाती है, नोएडा के फेज़ 2 में 4 एकड़ ज़मीन पर बनी है, जो भारत की सबसे बड़ी फैक्ट्रियों का इलाका है. इसी सड़क पर आगे सैमसंग की दुनिया की सबसे बड़ी मोबाइल फैक्ट्री है, जबकि Raphe mPhibr की हाई-टेक फैक्ट्री गुप्त रूप से ड्रोन बना रही है. कुछ समय पहले तक ये इलाका सिर्फ़ खेती के लिए जाना जाता था. लेकिन आज नोएडा सरकार की ‘मेक इन इंडिया’ योजना का पोस्टर चाइल्ड बनने की कोशिश कर रहा है.

पिछले आठ सालों में इस क्षेत्र में निवेश तेज़ी से बढ़ा है. अथॉरिटी के अनुसार, 412 एकड़ ज़मीन औद्योगिक उपयोग के लिए दी जा चुकी है. स्वीडन की फर्नीचर निर्माता कंपनी IKEA ने 4,300 करोड़ रुपये का निवेश किया, डिक्सन ने 270 करोड़ और अदानी ग्रुप ने 4,900 करोड़ रुपये का वादा किया.

एक्का की फैक्ट्री सितंबर 2023 में शुरू हुई, जब नोएडा पहले से ही अच्छी तरह से विकसित हो चुका था और बड़े, आधुनिक कारखानों के लिए तैयार था. अब वो समय नहीं रहा जब 1980 के दशक में बिजली कटती थी, सड़कें खराब थीं और धूल भरे तूफ़ान आते थे. एक्का ने प्राइवेट मार्केट से ज़मीन खरीदी—और ज़्यादा दाम चुकाए—लेकिन फैक्ट्री शुरू करने के लिए ज़रूरी आधारभूत ढांचा पहले से मौजूद था.

“हम वो इलेक्ट्रॉनिक्स भारत में बनाना चाहते थे, जिनके लिए हम चीन पर निर्भर थे,” एक्का के चेयरमैन और फाउंडर चंद्र प्रकाश गुप्ता ने कहा. “सेमीकंडक्टर और ओपन सेल डिस्प्ले को छोड़कर, हम सब कुछ यहीं बनाते हैं.”

आज, ये फैक्ट्री हर महीने 5 लाख टीवी बनाने की क्षमता रखती है. हर विभाग में पार्ट्स तय समय पर पहुंचते हैं, कहीं चिप लगाई जाती है तो कहीं सोल्डरिंग होती है, और फिर पूरा प्रोडक्ट बाहर चला जाता है.

गुप्ता ने अपनी पहली फैक्ट्री कुंडली, हरियाणा में खोली थी, लेकिन वे एक बड़ी फैक्ट्री के लिए जगह तलाश रहे थे. नोएडा के फेज़ 2 में नींव रखने का फ़ैसला उन्होंने यहां की बेहतर कानून-व्यवस्था, दिल्ली के करीब होने और ‘मेक इन इंडिया’ योजना को देखते हुए किया.

“पहले कानून-व्यवस्था बड़ी चुनौती थी. जो लोग दिल्ली से काम करने आते थे, वे 11 बजे पहुंचते और 4 बजे लौट जाते,” गुप्ता ने कहा. लेकिन नोएडा में जब से तेज़ी से व्यवसायिक विकास हुआ, हालात सुधरे.

Ekkaa's hi-tech, 15,000 square meter factory in Noida's phase 2
एक्का की हाई-टेक, नोएडा के चरण 2 में 15,000 वर्ग मीटर की फैक्ट्री | उदित हिंदुजा, दिप्रिंट
Automated belts move products from one department to the other in Ekkaa's factory
एक्का की फैक्ट्री में स्वचालित बेल्ट उत्पादों को एक विभाग से दूसरे विभाग में ले जाती है | उदित हिंदुजा, दिप्रिंट

“योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में गौतम बुद्ध नगर में एयरपोर्ट की घोषणा हुई और सिंगल विंडो सिस्टम से व्यापार करना आसान हुआ. इस इंफ्रास्ट्रक्चर ने बड़े उद्योगपतियों को खींचा.”

हालांकि, जब नोएडा का ‘मेक इन इंडिया’ सपना पूरी तरह साकार होने वाला था, तभी उद्योगपति ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेसवे की ओर मुड़ गए. इन नए क्षेत्रों को नोएडा की योजना में हुई गलतियों से सीखने का फायदा मिला.

“हमारे यहां कभी उद्योग-विशेष ज़ोन नहीं रहे जैसे ग्रेटर नोएडा और यमुना में हैं,” संजय कुमार खत्री ने कहा. “जैसे वहां सिर्फ़ फार्मा कंपनियों के लिए मेडिसिनल पार्क है, तैयार कपड़ों के लिए अपैरल पार्क है.”

व्यापार से जुड़ी परेशानी या कमी

सेक्टर 9 के बीचोंबीच एक दुकान में शीशों, कांच की चादरों और खिड़कियों का ढेर लगा है. ‘कृष्णा ग्लास’ नाम की इस दुकान के मालिक सुशांत, उन अनगिनत व्यापारियों में से एक हैं जो पूरी तरह औद्योगिक जोन में कारोबार चला रहे हैं. एक नोएडा अधिकारी ने इस सेक्टर को एक ‘संक्रमण’ की तरह बताया, जो अब पूरी तरह से वाणिज्यिक बन चुका है.

“मैन्युफैक्चरिंग समाज के लिए योगदान देती है,” उस अधिकारी ने कहा जो नाम नहीं बताना चाहता था. “कच्चा माल आता है, रोज़गार पैदा होता है, खाने-पीने की दुकानें खुलती हैं, परिवहन विकसित होता है. अगर आप केवल व्यापार कर रहे हैं तो औद्योगिकीकरण का मूल उद्देश्य ही बेकार हो जाता है.”

लेकिन 55 वर्षीय सुशांत नहीं मानते कि 55 वर्गमीटर के शेड में कोई औद्योगिक गतिविधि हो सकती है. “मेरे स्टोर के सामने के शेड को देखिए, वो बहुत बड़ा है, इसलिए वहां उत्पादन हो सकता है,” उन्होंने कहा.

सुशांत के स्टोर के सामने कार के पुर्जे बनाने वाली फैक्ट्री से आती मशीनों की आवाज़ कांच की खिड़कियों से अंदर आती है. निराश होकर उन्होंने बताया कि नोएडा प्राधिकरण ने उनका पिछला प्लॉट एच-13 सील कर दिया था क्योंकि वहां औद्योगिक गतिविधि नहीं हो रही थी.

Sushant, owner of Krishna Glass, is one of the many traders who have set up shop in an industrial-only zone
सुशांत, कृष्णा ग्लास के मालिक, उन कई व्यापारियों में से एक हैं जिन्होंने सिर्फ़ औद्योगिक क्षेत्र में अपनी दुकान खोली है | उदित हिंदुजा, दिप्रिंट

“एच-13 वाला प्लॉट बहुत बड़ा था, 450 वर्गमीटर. इसलिए उन्होंने उसे सील कर दिया,” सुशांत ने कहा, जिन्हें मजबूरी में छोटा प्लॉट लेकर अपना काम जारी रखना पड़ा. प्राधिकरण अब उन बड़े प्लॉट्स पर कार्रवाई कर रहा है जिन्हें औद्योगिक काम के बजाय व्यापारिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है—ऐसे उत्पाद जो कहीं और बनाए जाते हैं लेकिन नोएडा में बेचे जाते हैं.

छोटे शेड अब तक प्राधिकरण की सख्ती से बचते आए हैं, लेकिन विवादों के बिना नहीं. 2012 में व्यापारियों ने प्राधिकरण की सीलिंग मुहिम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें पुलिस ने लाठीचार्ज किया और कई लोग घायल हुए. प्राधिकरण अब तक उन सेक्टर्स से व्यापारिक गतिविधियों को पूरी तरह नहीं हटा पाया है जो औद्योगिक कार्य के लिए निर्धारित थे, जिससे वहां एक अस्थायी संतुलन बना हुआ है.

रामेश, जो सेक्टर में 100 वर्गमीटर के शेड से बांस बेचते हैं, उन विरोधों को याद करते हैं। लेकिन अब वो निश्चिंत हैं—गौतम बुद्ध नगर से सांसद महेश शर्मा ने उनकी चिंता दूर कर दी थी.

“मैं शर्मा जी की एक रैली में गया था. उन्होंने हमें बताया कि कुछ नहीं होगा, आप लोग अपना काम जारी रखिए,” रामेश ने मुस्कराते हुए कहा. प्राधिकरण मानता है कि सेक्टर 9 की जटिल स्थिति में राजनीति की भूमिका भी रही है, जिससे वो मौजूदा स्थिति को बदल नहीं पाया है.

अब, इस स्थिर माहौल ने व्यापारियों को हिम्मत दी है कि वे औद्योगिक जोनों में नई दुकानें खोलें. ‘पारस एक्सटीरियर एंड इंटीरियर’ के मालिक उदित गुप्ता ने देखा कि नए निर्माण और व्यापार की संभावनाएं इतनी ज़्यादा हैं कि वो उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.

दिल्ली से आए गुप्ता ने कहा, “ग्रेटर नोएडा और आसपास के इलाकों में जो भी निर्माण हो रहा है, उसे एल्युमिनियम शीट्स चाहिए. इसलिए हमने ये जगह किराए पर ली, और अब तक कारोबार अच्छा चल रहा है.”

स्थानीय नेताओं की तरफ से व्यापारियों को भरोसा मिलने के बाद अब सख्ती कम हो गई है, जिससे व्यापारिक गतिविधियां उन इलाकों में भी बढ़ गई हैं जो केवल उद्योग के लिए बनाए गए थे. कुछ सेक्टर्स में मशीनों की आवाज़ अब व्यापार की हलचल में दबती जा रही है.

आवास संकट

नोएडा को दिल्ली से अलग नहीं देखा जा सकता. इसे एक औद्योगिक टाउनशिप के रूप में विकसित किया गया था, और शुरू में कुछ ही रिहायशी प्लॉट बनाए गए थे. ज़्यादातर लोगों ने यह नहीं सोचा था कि यह इलाका इतनी तेज़ी से बढ़ेगा. बिल्डरों ने मुख्य रूप से मध्यम और उच्च आय वाले परिवारों के लिए निर्माण किया—फैक्ट्री मज़दूरों के लिए सस्ते घर बनाना उतना फ़ायदे का सौदा नहीं था.

“सोच ये थी कि जब यहां इतना औद्योगिक रोज़गार होगा, तो लोगों को रहने के लिए जगह चाहिए होगी,” पथक ने कहा और बताया कि कैसे रिहायशी ज़ोन धीरे-धीरे बढ़े. “इसलिए रिहायशी टाउनशिप को भी मंज़ूरी दी गई, लेकिन ये इंडस्ट्रियल मज़दूरों के लिए नहीं थीं.”

सेक्टर 8 की गलियों में अनौपचारिक घरों की भरमार है, खिड़कियों के बाहर से बिजली की तारें लटकती हैं. पुराने कारोबारी और कॉर्पोरेट की सीढ़ियां चढ़ने वाले लोग ऊंची इमारतों में रहते हैं, लेकिन फैक्ट्रियों और गोदामों में काम करने वाले दैनिक मज़दूरों के लिए रहने की जगह की भारी कमी है.

गंगेश्वर दत्त शर्मा, जो सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) के अध्यक्ष हैं, सालों से मज़दूरों के लिए कॉलोनियों की मांग कर रहे हैं लेकिन उन्हें ज़्यादा सफलता नहीं मिली है.

“हमारी सबसे बड़ी समस्या है—रहने की जगह,” शर्मा ने कहा, जिनके ऑफिस की दीवार पर बी.आर. आंबेडकर की तस्वीर लगी थी. “मास्टर प्लान में मज़दूरों के लिए कुछ नहीं है, और इसी वजह से सेक्टर 8, 9, 10, 16, 17 में झुग्गी-बस्तियां हैं.”

आज मज़दूर जहां भी जगह मिलती है, वहीं सो जाते हैं, यहां तक कि फैक्ट्री फ्लोर पर भी. पूरे इलाके में ऐसे छोटे-छोटे अनौपचारिक घर बन गए हैं जिनमें एक कमरे में 10 लोग रहते हैं. हिंडन नदी के किनारे, जो नोएडा से होकर बहती है, बिजली और साफ-सफाई के बिना जर्जर घर लाइन में लगे हुए हैं. मज़दूर उन्हीं फैक्ट्रियों के साए में जी रहे हैं जिन्हें वे चलाते हैं.

“नोएडा में बिना बिजली के रहना अन्याय है,” शर्मा ने कहा. “लोग बिजली चोरी करते हैं, दीया जलाते हैं या फिर प्रीपेड मीटर खरीदते हैं.”

अथॉरिटी ने ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) और एलआईजी (निम्न आय वर्ग) के लिए फ्लैट बनाए हैं, लेकिन ये संख्या में कम हैं और मज़दूरों के लिए महंगे भी हैं. ज़्यादातर मज़दूर अपने काम की जगह के पास ही रहना पसंद करते हैं.

सेक्टर 122 में श्रमिक कुंज नाम की एक रिहायशी योजना अथॉरिटी ने 2008 में पूरी की थी. इसमें 1आरके, 1बीएचके और 2बीएचके फ्लैट थे जो निम्न और मध्यम आय वर्ग के लिए थे, लेकिन मज़दूर उन्हें खरीद नहीं सके. आज एक 1बीएचके की कीमत 12 लाख रुपये है.

दिलीप कुमार, जो टेलीविज़न पार्ट्स असेंबल करते हैं, करीब 5 साल पहले बिहार से नोएडा आए थे नौकरी के लिए.  कुमार सीटू ऑफिस के ऊपर के हिस्से में रहते हैं और अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ एक छोटे कमरे में रह रहे हैं.

“हमारा खाने का मासिक खर्च 3,000 रुपये है, बच्चों की पढ़ाई का खर्च 5,000 रुपये है,” 46 वर्षीय दिलीप ने कहा, जो स्थानीय प्रशासन द्वारा मज़दूरों को दी गई छूट के तहत प्रीपेड मीटर से बिजली लेते हैं. “किराया 3,500 रुपये है—तो मैं कहां से पैसे बचाकर फ्लैट खरीदूं?”

Housing is in short supply for daily wage labourers. Factory worker Dilip Kumar (left) and trade union president Gangeshwar Dutt Sharma (right) in front of informal housing units
दिहाड़ी मजदूरों के लिए आवास की कमी है. फैक्ट्री कर्मचारी दिलीप कुमार (बाएं) और ट्रेड यूनियन अध्यक्ष गंगेश्वर दत्त शर्मा (दाएं) अनौपचारिक आवास इकाइयों के सामने | उदित हिंदुजा, दिप्रिंट

अथॉरिटी मानती है कि यहां आवास संकट पैदा हो रहा है. लेकिन वे उलझन में हैं. अवैध निर्माण को बिजली देना उन्हें वैध बना सकता है. फिर भी, मज़दूरों की लगातार आमद की वजह से शहर के अच्छी तरह से नियोजित सेक्टर और पेड़ों से सजी सड़कों की जगह अब धीरे-धीरे अनौपचारिक बस्तियां ले रही हैं.

“हम डेवलपर्स को सस्ता आवास बनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते,” नोएडा के एसीईओ खत्री ने कहा. “कांशीराम योजना जैसे कार्यक्रमों के तहत हमने मकान बनवाए और लोगों को दिए. लेकिन मांग और आपूर्ति का संतुलन नहीं है.”

अथॉरिटी की 2031 मास्टर प्लान में अलग-अलग ज़ोन का मिश्रण है, जो एक टाउनशिप के विज़न के अनुरूप है. लेकिन सस्ते आवास बनाने की कोई ठोस योजना नहीं है, जो कि कुछ उद्योगपतियों जैसे एक्का इलेक्ट्रॉनिक्स के चंद्र प्रकाश गुप्ता के लिए भी चिंता का विषय है.

जमीन की कमी और उद्योगपतियों के दूसरे इलाकों की तरफ रुख करने के कारण, नोएडा आज एक दुविधा में है:क्या नोएडा एक और ज़्यादा आधुनिक शहर बने, या फिर अपने पुराने फैक्ट्री वाले रूप में लौटे, या फिर भारत का सबसे सफल मिश्रित शहरी केंद्र बनने की कोशिश करे?

यह रिपोर्ट ‘Noida@50’ सीरीज का हिस्सा है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

उदित हिंदुजा दिप्रिंट स्कूल ऑफ जर्नलिज्म के पहले बैच से ग्रेजुएट हैं.


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