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Monday, 25 November, 2024
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रेल से लेकर बाजार तक बिहार मोदीमय है!

मीडिया निरंतर भारत के नागरिकों और वोटरों को भीड़ में तब्दील करता जा रहा है. इस मॉब का काम अब सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को जिताना मात्र नहीं है, बल्कि अपने बीच से मोदी पैदा करना है.

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पंद्रह अगस्त के ठीक बाद वाले दिन केंद्रीय गृह मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने हरियाणा के जींद में एक चुनावी सभा को संबोधित किया. इस सभा में उन्होंने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के केंद्र सरकार के फैसले की खास तौर पर चर्चा की और कहा कि ये देश की एकता और अखंडता के लिए मील का पत्थर है. उन्होंने इस अनुच्छेद को बनाए रखने के लिए कांग्रेस की आलोचना की. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी सरकार के विकास कार्यों से ज्यादा चर्चा कश्मीर की कर रहे हैं. अपने 15 अगस्त के संबोधन में भी उन्होंने कश्मीर की खास तौर पर चर्चा की. कश्मीर को लेकर होने वाली हर चर्चा के केंद्र में इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और बीजेपी उन्हें महाबली की तौर पर पेश कर रही है.

जम्मू एवं कश्मीर का मुद्दा भाजपा के लिए विशेष दर्जे की संवैधानिक बहस से इतर सांप्रदायिक राजनीति का मुद्दा भी है. भारत के कई राज्यों को ये विशेष दर्जा प्राप्त है, लेकिन भाजपा उन राज्यों पर बहस नहीं चाहती. अमित शाह ने विकास के एजेंडों को दरकिनार करते हुए जम्मू एवं कश्मीर के मुद्दे को जनता के बीच ले जाने पर बल देकर पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकता स्पष्ट कर दी है.

ये सारा मामला जनता के स्तर पर किस तरह पहुंचा और वहां इस पर किस तरह की बहस हो रही है, इसका लेख-जोखा पेश करने की एक कोशिश इस लेख में की गई है. इसे एक एथनोग्राफिक स्टडी के जरिए देखा गया.

रेल, राजनीति और सरकार

भारत में रेलगाड़ी की यात्रा अक्सर एक राजनैतिक-वैचारिक यात्रा भी होती है. खासकर, रेल की सामान्य श्रेणी एवं शयनयान श्रेणी से आम भारतीय मानस को समझने की कोशिश की जा सकती है. बिहार जाने वाली रेलगाड़ियां राजनीतिक चर्चा का बेहतरीन अड्डा होती हैं.


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दिल्ली से बिहार की मेरी यात्रा में भी ये सारी चीजें बिलकुल आशा के अनुरूप ही आती रहीं. राजनीतिक चर्चा प्रारंभ हुई. अपने दो मित्रों के साथ, रेल में जन सुविधाओं के अभाव लिए हम ने ज्यों ही भारत सरकार की आलोचना शुरू की, तमाम कष्ट एवं असुविधाओं को झेलते रहने के बावजूद लोग केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बचाव में आ गए. हमारे डब्बे में अधिकतर ऐसे यात्री थे, जिन्हें पटना स्टेशन में उतरने के बाद फिर से दूसरी रेलगाड़ी पकड़नी थी क्योंकि नई दिल्ली से उन्हें उनके गंतव्य स्थान का टिकट नहीं मिल पाया था. लेकिन, इसके लिए यात्रियों के मन में कोई रोष नहीं था. बिल्कुल वैसे ही, जैसे नोटबंदी के समय अपने ही पैसे के लिए घंटो कतार में लगने के बावजूद लोग सरकार से खफा नहीं थे. कम से कम कहा तो ऐसा ही गया था. नोटबंदी के बाद हुए यूपी चुनाव में बीजेपी की जीत को नोटबंदी की सफलता के रूप में भी पेश किया गया था.

बिहार यात्रा: भीड़ एवं बेरोजगारी से सामना एवं समाधान

बिहार यात्रा में ये बात नजर आई कि वहां राजनीतिक विमर्श की दिशा को कोई राजनीतिक दल नहीं, वहां का मीडिया तय कर रहा है. उसने पूरी तरह भाजपाई तेवर अख्तियार कर लिए हैं. मीडिया का रूप अब लोकतंत्र के चौथे खंभे से बदलकर केंद्र सरकार के स्तंभ में बदल चुका है. बिहार में प्रसारित होने वाले सभी चैनलों पर रात-दिन जम्मू एवं कश्मीर का मुद्दा बड़ी गर्मजोशी से दिखाया जा रहा है. एक तरफ जम्मू-कश्मीर को हिन्दुओं के नज़रिए से काफी संवेदनशील दिखाया जा रहा था, वहीं मुस्लिमों के बारे में बताया जा रहा है कि कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों को छोड़कर आम मुसलमानों में ख़ुशी का माहौल है.

कश्मीर में इंटरनेट सेवाएं अनिश्चितकाल के लिए बाधित हैं और नागरिक स्वतंत्रता पर जो पाबंदियां लगाई गई हैं, उस पर कहीं कोई चर्चा नहीं है. बकरीद के दिन तो सभी चैनलों ने वहां की एक मस्जिद में हजारों की तादाद में मुसलमानों को नमाज़ पढ़ते हुए दिखाया जा रहा था और खबर चलायी जा रही थी कि तेजी से कश्मीर की स्थिति सामान्य हो रही है. कश्मीर मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो बहस चल रही थी, उसमें दिखाया जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान पूरे विश्व में अकेले पड़ गए हैं और दया की भीख मांग रहे हैं.

बिहार की राजधानी पटना का नया राजनीतिक चेहरा

हिन्दी भाषा के क्षेत्र में योगदान देने वाली साहित्यिक संस्था बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना द्वारा 11 अगस्त, 2019 को आयोजित ‘शताब्दी युवा सम्मान – 2019’ में मुझे भी सम्मानित होने का अवसर प्राप्त हुआ. लगभग एक दशक पहले छोड़े हुए बिहार को वापस सांस्कृतिक रूप से देखने-समझने का एक मौका मुझे इस समारोह में मिला. उनमें से करीब अस्सी प्रतिशत लोग मोदी की बात कर रहे हैं. वैसे पटना की संसदीय एवं विधानसभा सीटों पर काफी समय से भाजपा का कब्ज़ा रहा है. लेकिन इस बार स्थिति अलग महसूस हुई. आम लोग अब भाजपा नहीं, मोदी की चर्चा कर रहे थे.

बिहार की राजधानी पटना में घूमने के दौरान दुकानदारों व खरीदारों से बात करते हुए पता लगा कि उनमें से अधिकतर मोदी की प्रशंसा कर रहे थे. बहुत कम लोग मोदी की खुली आलोचना कर रहे थे.


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लेकिन सबसे आश्चर्यजनक चीज थी कि लोग क्षेत्रीय पार्टियों की घोर आलोचना एक सुर से कर रहे थे. यह स्थिति न केवल कम पढ़े-लिखे लोगों बल्कि अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों एवं संगीतकारों, कलाकारों में भी देखने को मिली, जिनका एक हिस्सा पहले सत्ता विरोधी मिजाज का हुआ करता था. नवांगतुक साहित्यकारों में राजनीति बोध नजर नहीं आया. उनकी नज़र में मोदी एक परिघटना के समान है, जिसका मूल्यांकन कैसे करना है, उन्हें नहीं पता.

मीडिया, मॉब और मोदी

ऊपर जो भी स्थिति बयान की गई है, उसमें बड़ी भूमिका मीडिया की है. मीडिया निरंतर भारत के नागरिकों एवं वोटरों को मॉब यानी भीड़ में तब्दील करता जा रहा है. इस मॉब का काम अब सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को जिताना मात्र नहीं है, बल्कि अपने बीच से मोदी पैदा करना है. प्रधानमंत्री मोदी की यह बड़ी जीत है कि लोग उनकी नक़ल करना चाहते हैं. वहीं दूसरी तरफ मोदी देश के सामने खड़ी वास्तविक समस्याओं से जूझने का रास्ता दिखा पाने में लगातार असफल हो रहे हैं. लेकिन आम जनता के जेहन में फिलहाल यह सवाल नजर नहीं आ रहा है.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहीं-न-कहीं यह बात स्पष्ट कर दी है कि आम जनता में मोदी की लोकप्रियता का जवाब किसी पार्टी के पास नहीं है. अतः चौबीस घंटे उनकी आलोचना करना गलत है. इन सबसे आगे जाकर, भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में सांप्रदायिक राजनीति की फसलें अभी चारों तरफ लहलहा रही है, राज्यवार उसकी सिर्फ कटाई बाकी है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं.यह लेखक का निजी विचार है.)

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