scorecardresearch
Thursday, 6 March, 2025
होममत-विमतजमीन बेचने पर पाबंदियों से उत्तराखंड के किसान फायदे में रहेंगे या जाल में फंस जाएंगे?

जमीन बेचने पर पाबंदियों से उत्तराखंड के किसान फायदे में रहेंगे या जाल में फंस जाएंगे?

नया कानून भूमि संरक्षण और स्थानीय हितों को प्राथमिकता तो देगा लेकिन आर्थिक वृद्धि तथा निवेश की गति को कमजोर करेगा.

Text Size:

जैसा कि मैंने अपने कॉलम के पिछले लेख में लिखा था, भूमि स्वामित्व या कौन बाहरी है अथवा कौन अंदर का है यह मसला सभी राज्यों में विवादास्पद रहा है. आज हम उत्तराखंड में बनाए गए नये भूमि कानून की जांच करेंगे. यह कानून भाजपा के अंदर की दुविधाओं को उजागर करता है.

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का रुख उनके पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सिंह रावत के रुख के मुक़ाबले कहीं ज्यादा दकियानूसी है. रावत ने 2018 में जो भूमि सुधार किए थे उनका तवाघाट, कोटखारा, नैनीसर, नैनी डंडा, पौड़ी, और टिहरी गढ़वाल में लगातार विरोध किया गया था. माना गया था कि इन सुधारों के कारण बाहरी लोगों के लिए राज्य में जमीन खरीदना आसान हो गया था. कानून का विरोध करने लोग ‘मूल निवास भूकानून समन्वय संघर्ष समिति’ के झंडे तले एकजुट हो गए और उन्होंने राज्य की जमीन उसके बाहर के लोगों को बड़े पैमाने पर बेचे जाने पर रोक लगाने की मांग की.

उन्होंने आरोप लगाए कि बाहर के अमीरों की ओर से मोटी रकम पेशकश के कारण लोगों का पलायन हो रहा है और गांवके गांव वीरान हो रहे हैं.

लोगों की मांग थी उत्तराखंड के जो मूल निवासी नहीं हैं उन्हें डोमिसाइल सर्टिफिकेट देने के लिए राज्य में निवास की न्यूनतम निवास की अवधि, हिमाचल प्रदेश की तरह, बढ़ाई जाए. उनकी चिंताओं का समाधान करने के लिए धामी सरकार ने मौजूदा भूमि कानूनों की समीक्षा के लिए दिसंबर 2021 में एक ‘भूकानून समीक्षा कमिटी’ का गठन किया.

इस कमिटी ने सितंबर 2022 में अपनी सिफ़ारिशें दी, जिन्हें ‘सिद्धांततः’ मंजूर कर लिया गया. इन सिफ़ारिशों की विस्तृत जांच के लिए दिसंबर 2023 में तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव (अब मुख्य सचिव) राधा रतुड़ी की अध्यक्षता में ड्राफ्टिंग कमिटी गठित की गई. अब 21 फरवरी को राज्य विधानसभा ने ‘उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन तथा भूमि सुधार अधिनियम 1950) संशोधन विधेयक, 2025’ को पारित कर दिया.

लेकिन सवाल यह है कि जमीन की बिक्री पर रोक लगाने से उत्तराखंड को वास्तव में कोई फायदा होगा?

जमीन पर दबाव

पिछले चार वर्षों में जमीन के स्वामित्व पर पाबंदियां लगाए जाने या न लगाए जाने को लेकर काफी खींचतान चलती रही है. भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तथा हरिद्वार से विधायक मदन कौशिक जैसे भाजपा नेता इस कदम का विरोध करते रहे हैं. शायद किसी समझौते के तहत हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिलों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है.

इस कानून का असर यह होगा कि केवल देहरादून, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, नैनीताल, पिथौड़ागढ़, चंपावत, अलमोरा और बागेश्वर जिलों के अधिवासियों को गैरपालिका क्षेत्रों में बिना मंजूरी हासिल किए कृषि भूमि खरीदने का अधिकार होगा. वन भूमि तो अधिवासियों की पहुंच से पूरी तरह बाहर रहेंगे.

भूमि उपयोग के आंकड़े बताते हैं कि कृषि भूमि पर तो दबाव है ही. राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि उतराखंड की कुल 53,484 वर्गकिलोमीटर जमीन में वन क्षेत्र का नुपात 61.1 प्रतिशत है, जबकि कृषि के लिए केवल 14 फीसदी जमीन उपलब्ध है. बाकी जमीन चारागाह की और बंजर क्षेत्र, अथवा गैरकृषि उपयोग की है. चिंताजनक बात यह है कि 2000-01 में जबकि 7.7 लाख हेक्टेयर पर खेती हो रही थी, 2021 में उसका क्षेत्र घटकर 6.4 लाख हेक्टेयर हो गया.

नया कानून बनने तक 2018 के कानून के तहत पूरे उत्तराखंड में कहीं भी 12.5 एकड़ कृषि भूमि खरीदने की छूट हासिल थी. यह ऊपरी सीमा यूपी जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के तहत लागू सीमा के अनुसार तय की गई थी. उत्तराखंड ने इसे 2000 में अलग राज्य बनने के बाद अपनाया. रिहाइश के लिए कोई भी राज्य में कहीं भी जमीन खरीद सकता था और उसकी कोई सीमा नहीं तय थी.

लेकिन यहां यह बताया जा सकता है कि 2003 में नारायणदत्त तिवारी सरकार ने रिहाइश के लिए प्रति परिवार 500 वर्गमीटर जमीन की सीमा तय की थी. 2008 में बी.सी. खंडूड़ी की सरकार ने इसे घटाकर 250 वर्गमीटर कर दिया. औद्योगिक तथा व्यावसायिक काम के लिए जमीन की खरीदबिक्री के लिए अलग से मंजूरी हासिल करनी पड़ती थी.

वोटर लिस्ट में नाम होना काफी नहीं

नया कानून कहता है कि ‘पहाड़ी जिलों’ में जो लगातार 15 साल तक नहीं रहा है वह वहां जमीन खरीदने का अधिकारी नहीं है. वास्तव में, उधम सिंह नगर और हरिद्वार के उत्तराखंडी भी ‘पहाड़ी जिलों’ में जमीन खरीदने का अधिकारी नहीं हैं.

यह दो मामलों में हिमाचल के कानून से अलग है. पहला मामला है निवास का, हिमाचल में 20 साल के निवास की शर्त है तो उत्तराखंड में 15 साल के निवास की शर्त है. दूसरा मामला यह है कि हिमाचल में कोई मैदानी जिला नहीं है, यानी कानून पूरे राज्य में समान रूप से लागू है, बिना किसी अपवाद के.

इस तरह, पहाड़ी जिलों में बसा कोई ‘बाहरी’ भारतीय पंचायत, पालिका, विधानसभा और संसदीय चुनावों में वोट तो दे सकता है लेकिन वहां कृषि भूमि नहीं खरीद सकता. लेकिन वह अगर कोई एनजीओ या कोई उपक्रम स्थापित कर ले तो वह उस संस्था या इकाई के नाम से राज्य सरकार से जरूरी मंजूरी लेकर जमीन खरीद सकता है.

आइए हम इस कानून की जांच करें. इसकी वकालत करने वालों का कहना है कि यह स्थानीय किसानों और निवासियों की कृषि भूमि की रक्षा करके भूमि अधिकारों का संरक्षण करता है. वे बाहरी लोगों को जमीन बेचने पर पाबंदी की वकालत पर्यावरण सुरक्षा और सांस्कृतिक संरक्षण के पहलुओं के मद्देनजर भी करते हैं.

तर्क यह दिया जाता है कि इससे जमीन की कीमत एक सीमा के अंदर रहेगी और उसको लेकर अटकलें नहीं लगाई जाएंगी मगर यह तर्क दोतरफा है. कई भूस्वामी यह शिकायत करते हैं कि इससे उनकी जायदाद की कीमत घटी है, जबकि कई लोग अपनी जमीन को गिरवी के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं. इस कानून के खिलाफ यह भी तर्क दिया जाता है कि इससे यह धारणा बनती है कि यह राज्य निवेशकों के प्रति दोस्ताना रुख नहीं रखता. इसके कारण ‘इकोटूरिज़म’ समेत कई सेक्टर प्रभावित हो सकते हैं.

जमीन के मामले में जिला मजिस्ट्रेटों के अधिकार छीनने और उन्हें राज्य सरकार की किसी केंद्रीय ऑथरिटी को सौंप देने से निर्णय प्रक्रिया प्रशासनिक के बजाय ज्यादा राजनीतिक स्वरूप ले लेगी.

इसलिए, अंतिम निष्कर्ष यह निकलता है कि नया कानून भूमि संरक्षण और स्थानीय हितों को प्राथमिकता तो देगा लेकिन आर्थिक वृद्धि तथा निवेश की गति को कमजोर करेगा.

कृषि का घटती प्रमुखता

मेरी अंतिम बात यह है कि खासकर भूस्वामित्व से संबंधित कानून कभी पत्थर की लकीर की तरह नहीं खींचे जा सकते, और बड़े भूस्वामी कृषि से बाहर निकलने के लिए अपनी जमीन बेचने की पहल कर सकते हैं.

भूमि कानूनों और पीएम किसान योजना जैसे कार्यक्रमों के बावजूद लोग विकल्पों की तलाश करने लगे हैं और बहुत पहले नहीं तो अगले दो दशकों के भीतर जमीन लोगों के आर्थिक जीवन में अपनी पहले वाली अहमियत खो सकती है. यह जितना पंजाब और महाराष्ट्र के लिए सच है उतना ही उत्तराखंड के लिए भी सच है. शहरीकरण, विस्थापन, महिलाओं का सशक्तिकरण, और लोगों में रोजगारपरक हुनर ग्रामीण परिवेश को बदल डालेंगे.

दूसरा तथ्य, जिस पर बहुत चर्चा नहीं हुई है या जिसे दर्ज नहीं किया गया है वह यह है कि अनुसूचित जाति की आबादी, जिसके पास 2 फीसदी से भी कम कृषि भूमि है, पहला मौका पाते ही गांवों से निकल जाने को तैयार है. ‘यूपी जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम’ में ऐसे प्रावधान थे जो गांवों में सीमा से ज्यादा जमीन को भूमिहीन मज्द्दोरोन या दलितों तथा दूसरों को धारा 157ए के तहत आवंटित करने की छूट देते थे. लेकिन न तो काँग्रेस और न भाजपा ने इन प्रावधानों को गंभीरता से लिया, और अब तो शायद काफी देर हो चुकी है.

शिक्षा और रोजगार में आरक्षण ने कई अवसरों के द्वार खोले हैं. अनौपचारिक सेक्टर में प्लानबर, राज मजदूर, ड्राइवर, या शहरों में ठेके पर काम कर रहे कर्मचारी आज पहाड़ी जिलों या किसी और जिले में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों या मनरेगा के दिहाड़ी कामगारों से ज्यादा कमा रहे हैं.

यह फैसला बाकी है कि यह एक सकारात्मक पहल है या नहीं. लेकिन यह तेजी से बदलते आर्थिक परिदृश्य में भूस्वामित्व और भूअधिकारों के बारे में हमारे नजरिए को निश्चित ही प्रभावित करेगा. इस नये परिदृश्य में जीडीपी और कृषि में रोजगार में कमी आएगी और सर्विस सेक्टर भारी बढ़त हासिल करेगा.

संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: उत्तराखंड में UCC पर्याप्त चर्चा के बिना पास, आखिर जल्दबाज़ी क्यों है


 

share & View comments