यहां मुझे दूसरों की परेशानी में मजा लेने वाला कहा जा सकता है लेकिन इस तोहमत का जोखिम उठाते हुए मैं इस बात पर खुश होना चाहता हूं कि पाकिस्तान की नेशनल एसेम्बली ने पिछले सप्ताह भारतीय संविधान की बारीकियों पर बहस करने में अच्छा-खासा समय, ध्यान और जोश खर्च किया.
अनुच्छेद 370 और 35-ए पर भारत के फैसले को लेकर यह अफरातफरी कई वजहों से काबिलेगौर है. जी हां, ओछा एकपक्षीय रोमांच इन वजहों में शुमार नहीं है. सबसे पहली वजह तो यह है कि जिस राष्ट्र के शासक प्रायः इसलिए जाने जाते हैं कि उन्होंने संविधान को किस तरह खारिज किया या बदल डाला, उस राष्ट्र के लिए यह एक अविश्वसनीय विरोधाभास ही है कि वह भारत के संविधान के लिए इतना फिक्रमंद है. दूसरी वजह यह है कि जो पाकिस्तान तमाम बहुपक्षीय और द्विपक्षीय मंचों पर किए गए अपने वादों को आदतन और मजबूरन तोड़ता रहा है, वह भारत को कश्मीरियों से किए गए वादों की याद दिला रहा है. यह भी एक मज़ाकिया किस्म का विरोधाभास ही है.
मेरे लिए सबसे अहम बात बेशक यह है कि इमरान खान भारत पर शिमला समझौते को तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं. मैं पाकिस्तान की राजनीति पर इस तरह नज़र रखता रहा हूं मानो वह भारत का ‘आंतरिक मामला’ हो, और मुझे वहां का कोई ऐसा शासक याद नहीं आता जिसने उस दस्तावेज़ के प्रति निष्ठा जताई हो जिसे वे अपनी सियासी जुमलेबाजी में बेमानी और पुराना पड़ चुका कागज का टुकड़ा बताते रहे हैं. और तो और, क्रिकेट में तेज गेंदबाज़ी के उस्ताद माने जा चुके इमरान ने- बावजूद इसके कि उनके सिर पर ताज है- यह आरोप तब लगाया जब इससे कुछ दिन पहले ही वे अमेरिका के व्हाइट हाउस में कह चुके थे कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर मसले को 70 सालों में आपस में मिलकर नहीं सुलझा पाए इसलिए ‘दुनिया की सबसे ताकतवर हस्ती’, जनाब ट्रम्प! आप मध्यस्थता कीजिए.
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इस तरह, 31 सालों में दोनों देशों के बीच जो तीन पवित्र द्विपक्षीय समझौते- शिमला समझौता (1972), लाहौर समझौता (1999), इस्लामाबाद समझौता (2004)- हुए वे महज कागज के चंद पन्ने बन गए. कूटनीतिक लफ़्फ़ाजियां और बेमानी बातें अपनी जगह, ये तीनों समझौते इस एक मुख्य खंभे पर टिके हैं कि दोनों देश कश्मीर समेत सभी मसले आपस में ही मिलकर हल करेंगे. दूसरे पाकिस्तानी हुक्मरान भी इस वादे को मनमर्जी तोड़ते रहे हैं. लेकिन शिमला समझौते पर ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के दस्तखत के बाद से बारह में से किसी पाकिस्तानी हुक्मरान ने, चाहे वह एक बार अथवा दोबारा चुनाव जीत कर या फौज की ताकत के बूते गद्दी पर बैठा हो, खुल कर इसे खारिज नहीं किया है. वह ढोंग जारी रखा गया. लाहौर और इस्लामाबाद समझौते दरअसल शिमला समझौते में किए गए द्विपक्षीय वादे की पुष्टि ही करते हैं. लेकिन, इमरान ने दुनिया के सामने ऐलान कर दिया है कि दोनों देश आपस में मिलकर कश्मीर मसले को हल नहीं कर सकते इसलिए ट्रम्प इसे अपने हाथ में लें. सो, वे उपरोक्त तीनों समझौतों को औपचारिक रूप से खारिज करने वाले पहले पाकिस्तानी नेता बन गए हैं. शिमला समझौते को फाड़कर उसके पन्नों को सबके हाथों में सौंपकर वे भारत पर इसके उल्लंघन का आरोप लगा रहे हैं. यह जले पर नमक छिड़कना या काइयांपन लग सकता है लेकिन यह ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’ जैसी बात ही तो है.
असली बात यह है कि कश्मीर के मामले में बुनियादी रणनीतिक और राजनीतिक समीकरण पूरी तरह उलट चुका है. 1947 के बाद से चाबी पाकिस्तान घुमाता रहा, वही पहल करता रहा. 1947 में लूट और बलात्कार मचाने वाले क़बायली घुसपैठियों को भेजने से लेकर ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ के तहत फ़ौजियों को मुफ्ती के रूप में और अगस्त-सितंबर 1965 में ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ के तहत टैंकों को भेजने तक पाकिस्तान ही, 1972 में शिमला समझौत होने तक कश्मीर में पहली कार्रवाई करता रहा.
फिर, 17 साल तक अमन रहा लेकिन पाकिस्तान तैयारी में जुटा था— कोई मुकम्मिल अमन के लिए नहीं. वह परमाणु हथियारों की ताकत बना रहा था, और अमेरिकी नेतृत्व वाले गठजोड़ को अफगानिस्तान में रूसियों से उसकी जंग में इत्तफाकन मदद भी दे रहा था. उसके परमाणु हथियार 1989 तक तैयार हो गए, तब तक रूसियों की हार भी हो गई. पश्चिम में एक जिहाद कामयाब हो गया तो पाकिस्तानी सत्ता ने पूरब में दूसरा शुरू कर दिया.
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इसके बाद करगिल, आइसी-814 का अपहरण, भारतीय संसद पर हमला, मुंबई में 26/11, पठानकोट हमला, पुलवामा, आदि-आदि… पाकिस्तान ही हर बार पहली कार्रवाई करता रहा और भारत जवाबी कार्रवाई के लिए हाथ-पैर मारता रहा. अब भारत ने जो ताज़ा मोड़ लिया है वह कितना विवेकसम्मत है इस पर आगे विचार करेंगे. लेकिन हमें यह मानना ही होगा कि 70 वर्षों तक भारत अपने आकार और अपनी ताकत के बावजूद यथास्थिति पर ही टिका रहा जबकि पाकिस्तान इसे बदलने में जुटा रहा. पिछले सप्ताह भारत ने इसे पलट दिया.
अब पाकिस्तान जवाब देने के लिए हाथ-पैर मार रहा है, क्योंकि इसके रणनीतिकार इसका जवाब देने में सक्षम नहीं हैं. इसकी वजह यह है कि वे तो हमेशा यही सोचने में मशरूफ़ रहे हैं कि अब आगे क्या खुराफात किया जाए. इमरान खान ने वाशिंगटन में जब शिमला, लाहौर और इस्लामाबाद समझौतों को खारिज कर दिया, तो इसके एक हफ्ते के भीतर ही नरेंद्र मोदी ने खेल की चाल बदलने के लिए कोई हायतौबा नहीं मचाई बल्कि नाटकीय रूप से (अगर आप पाकिस्तानी हैं तो इसे धूर्ततापूर्ण कह सकते हैं) उनसे सहमति जाहिर कर दी.
अगर उन समझौतों से पाकिस्तान और विश्व समुदाय को यह लग रहा था कि कश्मीर की स्थिति पर अभी भी बहस और वार्ता जरूरी है, तो इस मुगालते को दफन कर दिया गया. और इमरान भी सही हैं कि वे समझौते भी दफन हो चुके हैं. पाकिस्तान का तौरतरीका तय था— उकसाओ, मना कर दो, मदद की पेशकश करो, बातचीत करो, हालात को शांत होने दो…. यही करते रहो. लेकिन अब उसे नया कुछ सोचना पड़ेगा. भारत अब तक बड़ी ताकतों से कहा करता था कि वे पाकिस्तान को अपना रास्ता बदलने के लिए मजबूर करें. अब पाकिस्तान को ही यह करना पड़ रहा है.
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अब उसे अपनी हदों, और हैसियत में गिरावट का एहसास हो रहा है. वह इतना बदहाल हो चुका है कि उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश से 6 अरब डॉलर हासिल करने के लिए अपनी आर्थिक संप्रभुता के साथ समझौता करना पड़ रहा है. इसे यूं समझा जा सकता है कि इससे भी छोटी रकम आर्सलर मित्तल नाम की कंपनी एक दिवालिया कंपनी एस्सार स्टील को खरीदने के लिए दे रही है. पाकिस्तान की सियासत, समाज, संस्थाएं, सब दिवालिया हो चुकी हैं. बलूचिस्तान को तो वह चलते-चलते संभाल सकता है मगर पख्तूनों का जनाधारित और शांतिपूर्ण आंदोलन ज़ोर पकड़ चुका है.
वैसे, विश्व राजनीति में उसकी एक अहमियत है, कि वह अफगानिस्तान का लोकल गार्जियन बन सकता है और ट्रम्प को वहां बने रहने का दिखावा करते हुए वहां से भागने में मदद कर सकता है लेकिन इस सबकी भारी कीमत उसे अदा करनी होगी. अगर पाकिस्तान को अफगानिस्तान में कुछ हासिल करना है तो वह कश्मीर में उलझने का जोखिम नहीं ले सकता. वह दो मोर्चों पर नहीं लड़ सकता. तब तो नहीं ही जबकि एफएटीएफ के तहत आतंकवाद के खिलाफ कदम उठाने की समय सीमा उसके लिए चंद हफ्तों में ही खत्म होने वाली है. इसके लिए तो वे मानसिक रूप से भी तैयार नहीं थे. यह उनकी क्षमता से बाहर भी है. वैसे, हम यहां यह जोड़ सकते हैं कि वे कोई चुनौती नहीं लेने वाले हैं. इसका फैसला करने वाले तो ‘जी’ हेडक्वार्टर में बैठे हैं. क्या वे दोनों मोर्चे खोलना चाहते हैं?
पाकिस्तान के पूर्व राजनयिक हुसैन हक़्कानी ने दप्रिंट के लिए भेजे एक लेख में एक पंक्ति लिखी है, जिसे लिखने की ख़्वाहिश मैं कर सकता था. उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान की रणनीति कश्मीर मसले का हमेशा ‘अंतरराष्ट्रीयकरण’ करने की रही, और भारत इसे द्विपक्षीय बनाए रखने की जद्दोजहद करता रहा लेकिन मोदी ने इस मसले को अब दोनों मुल्कों के आंतरिक मसले में तब्दील कर दिया है.
भारत में इस पर मोदी-बहुमत और मुखर राजनीतिक-बौद्धिक अल्पमत के बीच विवाद छिड़ गया है, जो इस कदम को आलोकतांत्रिक बता रहा है. पाकिस्तान में बहस इस पर छिड़ी है कि यह हो कैसे गया और दुनिया की नंबर वन खुफिया एजेंसी को इसकी भनक तक क्यों नहीं लगी, कोई बिक तो नहीं गया, अब किया क्या जाए? यह हताशा नेशनल एसेम्बली में इमरान के भाषण में तब जाहिर हो गई जब उन्होंने यह सवाल उठाया कि ‘तो आप क्या चाहते हैं, मैं क्या कर डालूं? भारत पर हमला कर दूं?’
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मैं यह नहीं कह रहा कि भारत में सब बिलकुल सही हो रहा है, कि कश्मीर पर ताज़ा कदम सही ही है. बात इतनी सी है कि पाकिस्तान आज किस हाल में है, यह प्रासंगिक नहीं है. अनुच्छेद 370 (जिसे वह पहले भी नाजायज बता चुका है) पर यह जितना भी स्यापा करने का दिखावा करे, मुख्यधारा वाले कश्मीरी नेताओं (जिन्हें वह दलाल कहता रहा है) की गिरफ्तारी की जितनी भी तारीफ करे, और ‘भारत वाले’ कश्मीर में नागरिक अधिकारों को लेकर चाहे जितना भी शोर मचाए, यह सब बकवास ही लगेगा.
जरा विचार कीजिए. जब आप खुद अपने दो पूर्व वजीरे आजमों (नवाज़ शरीफ और शाहिद खक़ान अब्बासी) और एक पूर्व राष्ट्रपति (आसिफ ज़रदारी) को जेल में डाल चुके हैं और एक (परवेज़ मुशर्रफ) को मुल्क से निकाल बाहर कर चुके हैं, तब आप किस मुंह से कश्मीर में हमेशा से संदिग्ध रहे अलगाववादी नेताओं और कुछ राजनीतिक नेताओं की गिररफ़्तारी पर शोर मचा सकते हैं?
नवाज़ की बेटी और परमुख विपक्षी नेता मरियम भी अब जेल में हैं. इनके अलावा पंजाब के पूर्व डिप्टी सीएम राणा सनाउल्लाह, नवाज़ की पार्टी के तीन सांसद, दो पख्तून सांसद समेत कई लोग जेल में बंद कर दिए गए हैं. इनमें से ज़्यादातर की सुनवाई भी नहीं शुरू हुई है. कई लोग महीनों से जेल में, असली जेल में पड़े हैं. लेकिन यह पाकिस्तान के काम नहीं आ रहा.
यथास्थिति टूट चुकी है. या तो पाकिस्तान इस कबूल कर ले या कोई मनमाना कदम उठा ले. या यह दुआ करे कि घाटी में जब रोक-टोक हटाई जाए तो हालात इतने बेकाबू हो जाएं कि जबरदस्त बग़ावत छिड़ जाए और भारतीय फौज अपना आपा खो बैठे. पाकिस्तान के लिए अब यही उम्मीद बची है.