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Wednesday, 22 January, 2025
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भारत को हफ्ते में 90 घंटे काम वाली नहीं बल्कि चार दिन काम की फ्रांस वाली व्यवस्था चाहिए

काम के घंटे बढ़ाने का समर्थन करने वाले कहते हैं कि भारत को वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्द्धा में बने रहना है तो कामगारों का अटूट समर्पण निर्णायक साबित हो सकता है, लेकिन प्रोडक्टिविटी तो सीधे काम के घंटे के अनुपात से बढ़ती-घटती नहीं है.

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आज के दौर में जबकि कई उद्योगों में कर्मचारियों के कुशल-क्षेम से ज्यादा मुनाफे की चिंता की जाने लगी है, तब काम के लंबे घंटे उनके यहां के नियमों में शामिल हो गए हैं. कॉर्पोरेट जगत मनुष्य की कीमत पर प्रोडक्टिविटी बढ़ाने में जुटा है.

काम के लंबे घंटों से जुड़े तर्क में आंकड़ों — ओवरटाइम के लिए पैसे, हर घंटे प्रोडक्टिविटी या एक निश्चित अवधि में कंपनी के लाभ या हानि आदि के आंकड़ों पर जोर दिया जाता है. जो भी हो, इन सबके पीछे व्यक्ति खड़ा है — कामगार, जो मालिक की निरंतर बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक दबावों को झेलता है.

यह विमर्श हाल में भारत में विवाद का रूप ले चुका है, जिसे एन.आर. नारायणमूर्ति और एस.एन. सुब्रह्मण्यम सरीखे व्यवसायी बढ़ा रहे हैं. इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति ने इंडियन प्रोफेशनलों को वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिए सप्ताह में उनके काम के घंटे बढ़ाकर 70 करने की वकालत करके विवाद को भड़काया. लारसन ऐंड टूब्रो के चेयरमैन सुब्रह्मण्यम ने हफ्ते में काम के घंटे बढ़ाकर 90 करने का प्रस्ताव देकर इसे और तीखा बनाया.

इन बयानों की व्यापक आलोचना भी हुई और यह महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया कि क्या भारत की आर्थिक महत्वाकांक्षाएं ऐसी हैं कि उनकी खातिर उसके वर्कर्स के कुशल-क्षेम से समझौता किया जाए?

प्रोडक्टिविटी की पहेली

काम के घंटे बढ़ाने का समर्थन करने वालों का तर्क है कि भारत को वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्द्धा में बने रहना है तो कामगारों का अटूट समर्पण निर्णायक साबित हो सकता है, लेकिन इस नज़रिए में इस बुनियादी सिद्धांत की उपेक्षा की जाती है कि प्रोडक्टिविटी सीधे काम के घंटे के अनुपात से बढ़ती-घटती नहीं है. रिसर्च बताती हैं कि प्रोडक्टिविटी एक निश्चित सीमा तक अपने चरम को छूती है, उसके बाद थकान, मानसिक तनाव आदि के कारण वह कम होने लगती है. इसे कार्यकुशलता से संबंधित अंग्रेज़ी अक्षर ‘यू’ के उलटे वक्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है.

काम की अधिकता शारीरिक तथा मानसिक थकान के कारण उलटे नतीजे देने लगती है और कर्मचारी के परफॉर्मेंस घटाने लगती है. इंसान मशीन नहीं है, उसे अपने काम करने का हाई लेवल बनाए रखने के लिए आराम और मेंटल हेल्थ की ज़रूरत पड़ती है.

आज के भारतीय कामगार आर्थिक दबावों और निजी ज़रूरतों के बीच संतुलन बनाकर जीने की चुनौती से जूझ रहे हैं. वे नए हुनर सीखना चाहते हैं, नई शगल अपनाना चाहते हैं, योग और मेडिटेशन करना चाहते हैं और अपने परिवार के साथ समय भी बिताना चाहते हैं. वे इन खुशियों को जीने के लिए रिटायर होने का इंतज़ार नहीं करना चाहते.

किसी भी कंपनी के सीईओ के हित में यही है कि उसके कर्मचारी कोल्हू में फंसे बैल जैसे न हों बल्कि खुशहाल कामगार हों.

विश्व खुशहाली सूचकांक रिपोर्ट 2023 के मुताबिक, भारत उस साल खुशहाल आबादी के लिहाज़ से 137 देशों में 126वें पायदान पर था, जो वर्क-कल्चर के असंतुलन के कुप्रभावों को उजागर करता है. खुशहाली के पैमाने पर निरंतर सबसे ऊंचे पायदान पर कायम फिनलैंड जैसे देश संतुलित जीवनशैली के फायदों को उजागर करते हैं.

भारत की आर्थिक वृद्धि का दारोमदार काम के बढ़े हुए घंटों पर नहीं होना चाहिए. राष्ट्रीय समृद्धि का आकलन काम के घंटों के पैमाने से नहीं बल्कि कामगारों के हुनर, सार्थक रोज़गार, और नागरिकों की खुशहली के पैमाने से किया जाना चाहिए. समग्रता वाला नज़रिया अपनाकर ही कोई देश दीर्घकालिक वृद्धि हासिल कर सकता है.


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काम के बोझ के नुकसान

कम सैलरी वाले और कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले लोगों से लंबे घंटे तक काम लेना आज का सामान्य चलन हो गया है. रोज़गार की असुरक्षा और सीमित अवसरों के कारण वे मजबूरन शोषणकारी स्थितियों में काम करने को तैयार रहते हैं. उदाहरण के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कामगार ज्यादा काम करने की मांगों से कुप्रभावित होते हैं.

बेजा बोझ उठाने को मजबूर दूसरा समुदाय महिला कामगारों का है, जिन्हें घर के काम करने के अलावा नौकरी की जिम्मेदारियां पूरी करनी पड़ती हैं. महिलाएं कामगारों की जमात में वृद्धि तो करती हैं, लेकिन उनमें से कई को समाज की अपेक्षाओं और नौकरी की मांगों का दोहरा दबाव झेलना पड़ता है. परिवार, घर के कामकाज और पूर्णकालिक रोज़गार के बीच संतुलन बिताते हुए उन्हें अपने लिए शायद ही वक्त बचता हो.

काम की अधिकता के कारण स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं, जिनमें स्थायी थकान, चिंता, डिप्रेशन और दिल की बीमारियां तक शामिल हैं. अर्न्स्ट ऐंड यंग के कर्मचारी की आत्महत्या (जिसके लिए उनके परिवार ने जॉब से जुड़े स्ट्रैस को कारण बताया) जैसे दुखद मामले काम के बोझ से परेशान कामगारों के गंभीर मानसिक तनाव को उजागर करते हैं.

काम के लंबे घंटों का सबसे घातक परिणाम शायद कामगारों का अमानवीयकरण है. कामगारों को जब केवल मुनाफा पैदा करने वाला पुर्जा मान लिया जाता है तब वे अपनी गरिमा और अपना स्वाभिमान भी खोने लगते हैं. वे खुद को फालतू, अलग-थलग और बलि के बकरे जैसा समझने लगते हैं.

इसके नतीजे व्यक्तियों से आगे बढ़कर परिवारों और समुदायों तक को कुप्रभावित करने लगते हैं. कामगार अपने प्रियजनों को कम समय देने लगते हैं, जिससे घर में संबंधों में तनाव पैदा होता है. बच्चे माता-पिता की देखरेख के बिना बड़े होते हैं और पति-पत्नी को स्वस्थ संबंध बनाए रखने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है.

काम से जुड़े तनाव सामाजिक रिश्तों को भी कमजोर करते हैं और दूरियां पैदा करते हैं, जिसके कारण मानसिक सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. कामगार की कुशलता से ज्यादा उसकी प्रोडक्टिविटी को अहमियत देने वाला समाज एक अलग-थलग और भावनात्मक रूप से असंतुष्ट जमात का निर्माण करता है.


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टिकाऊ वर्क-कल्चर की ओर

काम के बोझ वाला कल्चर टिकाऊ नहीं हो सकता. इस समस्या से निबटने के लिए कॉर्पोरेट जगत और सरकारों को काम के घंटों की सीमा तय करने, फ्लेक्सिबल वर्क लिस्ट और पर्याप्त छुट्टियों आदि की व्यवस्था करनी चाहिए. श्रम कानूनों को लागू करने में सरकारों की निर्णायक भूमिका होती है. काम और ज़िंदगी के बीच संतुलन, मानसिक सहारा, समुचित मुआवजा अधिक टिकाऊ और मानवीय आर्थिक मॉडल का रास्ता बना सकता है.

भारत की सफलता उसके कामगारों के काम करने के घंटों की संख्या पर नहीं बल्कि उनके काम की गुणवत्ता पर निर्भर करेगी. प्रोडक्टिविटी के साथ मानवीय गरिमा को मूल्यवान मानने वाला संतुलित रुख अपनाकर ही एक स्वस्थ, खुशहाल और अधिक प्रयोगशील समाज बनाया जा सकता है.

मैं हफ्ते में चार दिन काम वाली व्यवस्था की वकालत करता हूं, जो सोमवार का आधे दिन बीतने के बाद शुरू हो और शुक्रवार के आधा दिन से पहले खत्म हो. यह व्यवस्था फ्रांस में पिछले साल लागू की गई और इसे दुनिया के कई देशों में आजमाया जा रहा है. चार दिन वाले मॉडल को ज्यादा टिकाऊ वर्क-कल्चर की दिशा में एक कदम के तौर पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए.

भविष्य में सबसे सफल समाज को अनवरत कठोर श्रम करने वाले कामगारों से नहीं बल्कि उनकी मानसिक सेहत और मानवीयता के उत्कर्ष से परिभाषित किया जाएगा. मगर, सवाल यह नहीं है कि हम कितना काम करते हैं बल्कि यह है कि हम कितनी अच्छी ज़िंदगी जीते हैं.

(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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