बेंगलुरु: यह लंच कोडवा गर्व, विरासत, और संस्कृति का फेस्टीवल था. बेंगलुरु के ‘हाउस ऑफ कोडवास’ में दो बैचों में आए मेहमानों ने अक्की-टोटी (चावल की रोटी) पर कटा हुआ पोर्क, घी-चावल के साथ मटन कीमा, और ओट्टी-पंडी करी और बेम्बाले (बांस की कोपल) जैसी पारंपरिक कोडवा डिश का समकालीन अंदाज में स्वाद लिया. यहां तक कि मेज पर बिछे टेबल मैट्स भी कोडवा संस्कृति की जानकारी देने वाले दस्तावेज के रूप में काम कर रहे थे.
बेंगलुरु का यह रेस्टोरेंट कोडवा समुदाय को “एकजुट रखने” की कोशिश है. कम होती आबादी, परंपराओं का खत्म होना, और राष्ट्रीय स्तर पर सीमित पहचान ने बेंगलुरु और आसपास के कोडागु क्षेत्र में कोडवा समुदाय को तेजी से कुछ करने की जरूरत महसूस कराई है. ‘हाउस ऑफ कोडवास’ जैसे प्रयास पारसी और जैन समुदायों की तरह एक ऐसा नेटवर्क बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो समाज और व्यवसाय दोनों को साथ जोड़े.
“हम कोडवा कहते हैं कि हम योद्धाओं का कबीला हैं और हमें एक-दूसरे का समर्थन करना चाहिए. लेकिन मैं निश्चित रूप से कहूंगी कि इसमें हमारी कमी है,” 43 वर्षीय उद्यमी कल्लिचंदा रेवती ने कहा, जिन्होंने ‘हाउस ऑफ कोडवास’ पहल को तैयार करने में मदद की.
समुदाय संगठनों से लेकर सोशल मीडिया तक, कोडवा लोग विभिन्न मंचों का उपयोग एकजुटता की भावना भरने और इसे आर्थिक हितों के साथ जोड़ने के लिए कर रहे हैं. वार्षिक गन फेस्टिवल, फील्ड हॉकी टूर्नामेंट, और कोडवा लिपि (लिपि) में वापसी, इस दक्षिण कर्नाटक की लुप्तप्राय भाषाई और जातीय अल्पसंख्यक समूह की पहचान को पुनर्जीवित करने और “अस्तित्व संकट” के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयासों का हिस्सा हैं.
“सामान्य रेस्टोरेंट की तरह कोडवा डिश परोसने से हमारे व्यवसाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. यह उन व्यंजनों को अलग तरीके से परोसने की बात है ताकि हम ध्यान आकर्षित कर सकें. यह कोडवा उद्यमियों की मदद करेगा,” कहा कलेंगदा बोपन्ना ने, जो ‘उम्बक एंथा’ नाम का एक क्लाउड किचन चलाते हैं और लंच आयोजित करने वाले चार उद्यमियों में से एक हैं.
हालांकि, अपनी कोडवा वंशावली का प्रदर्शन करने से जुड़ा उत्साह व्यवहार में नहीं बदल रहा है, समुदाय के बुजुर्गों का कहना है. कोडवा नेशनल काउंसिल के अध्यक्ष एन.यू. नचप्पा, जो समुदाय की अनूठी पहचान और ‘होमलैंड’ को मान्यता दिलाने के लिए लड़ रहे हैं, ने यह बात कही.
नचप्पा ने वर्षों से देश के हर उच्च पदाधिकारी और संयुक्त राष्ट्र को कोडवा समुदाय के लिए मान्यता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए याचिकाएं दी हैं.
उन्होंने कहा,“कोडवा साक्षर हैं, लेकिन शिक्षित नहीं. हमारी समस्या यह है कि हमारे पास कोई राजनीतिक प्रवृत्ति नहीं है. हमारे मुद्दों का कोई जोरदार प्रतिनिधित्व नहीं है. और यही वजह है कि सभी हमें हल्के में ले रहे हैं.”
यह भी पढ़ें: बांग्लादेश अब भारत का संभावित दुश्मन है, पाकिस्तान घोषित दुश्मन है, चीन खुला दुश्मन है
‘बंदूकों का त्योहार’
बल्लंबेरी गांव के एक निजी रिसॉर्ट में बुधवार सुबह खुले मैदान में करीब 50 लोग इकट्ठा हुए और 14वां वार्षिक ‘थोक नाम्मे’ (गन फेस्टिवल) मनाया. महिलाओं ने पारंपरिक कोडवा साड़ी पहनी, और ज्यादातर पुरुष लंबी मूंछों के साथ शाही अंदाज में नजर आए. कार्यक्रम की शुरुआत बंदूकों की पूजा से हुई, जिसके बाद पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के लिए शूटिंग प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं.
कोडवा समुदाय को हथियार रखने की आजादी है, जो 1830 के दशक से चली आ रही है. ब्रिटिश शासन ने उन्हें भारतीय शस्त्र अधिनियम से छूट दी थी, क्योंकि उन्होंने टीपू सुल्तान के खिलाफ लड़ाई में योगदान दिया था. हालांकि यह किसी पारंपरिक त्योहार का हिस्सा नहीं है, सीएनसी ने इस कार्यक्रम की शुरुआत कोडवा गौरव बढ़ाने, प्राचीन परंपराओं को जीवित रखने और समुदाय को सक्रिय बनाए रखने के लिए की.
कोडवा समुदाय ने खेल, खासकर हॉकी, और सेना में अपनी अलग पहचान बनाई है. फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा और जनरल के.एस. थिमय्या जैसे सैन्य अधिकारी और अश्विनी पोनप्पा जैसी एथलीट न केवल अपने क्षेत्र में बल्कि कोडवा गौरव और संघर्षशीलता के प्रतीक बन गए हैं.
अन्य छोटे समुदायों के उलट, जिन्हें ऐसा सामाजिक समर्थन नहीं मिलता, कोडवा समुदाय सबसे सफल और प्रगतिशील समुदायों में से एक बनकर उभरा है. उनकी परंपराएं देश के अन्य समुदायों से अलग हैं, लेकिन इतिहासकारों और विशेषज्ञों का कहना है कि यह विशिष्टता धीरे-धीरे खत्म हो रही है.
हैदराबाद विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य केंद्र की प्रोफेसर सीसी सौम्या देचम्मा ने कहा, “कोडवा जीवनशैली के लिए सबसे बड़ा खतरा भारत के भीतर से ही है, जहां लोग हिंदू और ब्राह्मणवादी परंपराओं को अपनाने लगे हैं.”
औपनिवेशिक शासन के दौरान, कोडवाओं को 1941 की जनगणना तक एक अलग नस्ल के रूप में गिना जाता था, जिसके बाद उन्हें हिंदू धर्म के अंतर्गत शामिल कर दिया गया.
पारंपरिक कोडवा शादियों में पुजारी अनुष्ठान नहीं करवाते. इन रस्मों को निभाने का काम बुजुर्गों का होता है.
नाम न बताने की शर्त पर कोडागु के एक लेखक और शिक्षाविद् ने कहा, “हम प्रकृति और पूर्वजों की पूजा करते हैं. लेकिन अब हम हवन करवा रहे हैं, जहां ब्राह्मण पुजारी हमसे हमारे उगाए चावल को अग्नि में डालने को कहते हैं. यह हास्यास्पद है.”
दिप्रिंट से बात करने वाले लोगों ने बताया कि इस धार्मिक समायोजन ने कोडवा समुदाय को दक्षिणपंथी विचारधाराओं का गढ़ बना दिया है.
“हमारी अनूठी पहचान को मुख्यधारा के हिंदू धर्म के साथ मिलाने से ऐसी राजनीतिक पार्टियों का अंधा समर्थन होने लगा है, जो ऐसी मान्यताओं का पालन करती हैं,” नचप्पा ने कहा. उन्होंने यह भी जोड़ा कि राजनीतिक दलों के लिए उनकी मांगों को गंभीरता से लेने का कोई प्रोत्साहन नहीं है.
‘अलग जाति’
नचप्पा और सीएनसी कोडवा समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिलाने की मांग कर रहे हैं. समुदाय के एक हिस्से का कहना है कि घटती जनसंख्या इस कदम का औचित्य साबित करती है. 2011 की जनगणना के अनुसार, कोडवाओं की संख्या लगभग 1.5 लाख से घटकर 1.25 लाख रह गई. नचप्पा का मानना है कि यह आंकड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है.
कूर्ग, जिसे पहले इसी नाम से जाना जाता था, 1950 से 1956 तक छह वर्षों के लिए एक राज्य था, लेकिन बाद में इसे कर्नाटक में मिला दिया गया, जिससे इसकी पहचान धुंधली हो गई. यह बात आज भी समुदाय के लोगों को खटकती है, जो अब अपनी अलग पहचान स्थापित करने के नए तरीकों की तलाश कर रहे हैं.
कोडवा विशिष्टता को बनाए रखने के प्रयासों में ‘लिपि’ नाम की कोडवा लिपि को लोकप्रिय बनाना शामिल है. हालांकि इसे कर्नाटक सरकार द्वारा आधिकारिक मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन बढ़ती संख्या में कोडवा लोग इसे मंदिरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के साइनबोर्ड पर इस्तेमाल करने लगे हैं.
इन प्रयासों को और ताकत मिली जब लोकनर्तक रानी मचैया को पिछले साल पारंपरिक कोडवा नृत्य उम्मथत को बचाने के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. वह 1984 से इस नृत्य के संरक्षण में योगदान दे रही हैं. कर्नाटक कोडवा साहित्य अकादमी की पूर्व अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कोडवा लिपि को बढ़ावा देने के लिए समुदाय को प्रोत्साहित किया.
‘भाषाई अल्पसंख्यक’ या ‘स्वदेशी अल्पसंख्यक’ के रूप में मान्यता प्राप्त करना कोडवाओं को हाशिए पर जाने से बचाने और संभवतः उन जमीनों को वापस पाने में मदद कर सकता है, जिन्हें ‘अवैध रूप से’ उनसे छीन लिया गया था. एसटी का दर्जा प्राप्त करने का प्रयास इस लक्ष्य की ओर एक कदम है.
नचप्पा ने कहा,“यह बार-बार कहा जाता है कि कोडवा वंश अलेक्जेंडर, मैसेडोनिया के शासक, से जुड़ा है. लेकिन यह कोडवाओं को उनके अधिकारों की मांग और जबरन छीनी गई जमीन को वापस पाने के प्रयासों से दूर करने के लिए किया जा रहा है.”
पिछली सरकारों के प्रयासों के बावजूद, इस मुद्दे को हल करने के लिए किए गए सर्वे आगे नहीं बढ़ सके. एसटी का दर्जा कोडवा समुदाय के भीतर भी विवादित है. 2016 में, सिद्धारमैया सरकार ने समुदाय की जनजातीय स्थिति के लिए उनकी योग्यता का आकलन करने के लिए एक जातीय और सामाजिक-आर्थिक सर्वे रोक दिया. यह कदम पूर्व एमएलसी एके सुब्बैया के हस्तक्षेप के बाद उठाया गया, जिन्होंने इसे राष्ट्र-विरोधी बताया और कहा कि कोडवाओं की तुलना हक्की पिक्की जैसी जनजातियों से नहीं की जा सकती.
यह तनाव अब भी जारी है कि कोडवाओं को नस्ल के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए या जनजाति के रूप में.
“इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हुए कहा कि उन्हें [एसटी का दर्जा] नहीं चाहिए क्योंकि वे समृद्ध लोग हैं,” एक वरिष्ठ अधिवक्ता और राजनीतिक नेता ने कहा, जिन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बात की. “कोडागु में ज्यादातर अमीर बड़े कॉर्पोरेट और अन्य राज्यों के लोग हैं, जो बड़े कॉफी बागानों के मालिक हैं, जबकि कोडवा भूमि स्वामित्व तेजी से गिर रहा है.”
दूसरी ओर, कोडागु के एक लेखक और शिक्षाविद ने तर्क दिया कि एसटी की मांग दोहराने वाले कोडवा इसकी सीमाओं को नहीं समझते.
लेखक ने कहा, “जनजाति की परिभाषा ही यह है कि वे ऐसे लोग हैं, जो दुर्गम और दूरदराज के क्षेत्रों में रहते हैं. हम बहुत शिक्षित और समृद्ध हैं. जनजातीय स्थिति पाने की कोशिश करके, हम येरावा, कुरुबा और अन्य समुदायों के अधिकारों से इनकार कर रहे हैं, जिन्होंने हमारी इस समृद्धि को पाने में मजदूरों के रूप में हमारी मदद की.”
यह भी पढ़ें: बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले गहरी नफरत को दिखाते हैं, भारत को इन्हें शरण देनी चाहिए
‘गाजर और हॉकी’
अप्रैल 2024 में, गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने ‘कोडवा हॉकी नम्मे’ के 24वें संस्करण को विश्व का सबसे बड़ा फील्ड हॉकी टूर्नामेंट के रूप में मान्यता दी. इस संस्करण में 4,834 खिलाड़ी और 360 टीमें शामिल थीं, और इसे कुंड्योलोंडा परिवार ने एक महीने तक चलने वाले टूर्नामेंट के रूप में आयोजित किया.
यह आयोजन कोडवा संस्कृति का केंद्र बन गया है, जो कर्नाटक, भारत और दुनिया भर में फैले परिवार के सदस्यों को फिर से जोड़ता है.
कर्नाटक के प्रमुख शहरों में कोडवा समाज सांस्कृतिक और खेलकूद के कार्यक्रम आयोजित करते हैं, विवाह की व्यवस्था करते हैं, अंतिम संस्कार में सहायता प्रदान करते हैं और प्रशासन के साथ जुड़ाव के लिए लॉबी समूह के रूप में काम करते हैं. यह समुदाय को उसकी जड़ों से जोड़े रखने में मदद करता है.
कोडवा समाजों और व्हाट्सएप समूहों की अन्य पहलकदमियां नई पीढ़ी में सामुदायिक भागीदारी की भावना को बढ़ावा देती हैं, जो अधिक बच्चे पैदा करने के लिए अनिच्छुक हैं. एक कोडवा-केंद्रित व्हाट्सएप ग्रुप में, हाल ही में एडमिन ने एक पोल किया, जिसमें पूछा गया, “क्या कोडवा युवाओं के लिए विवाह पूर्व काउंसलिंग आवश्यक है?” जवाब साफ तौर पर “हां” में था.
“चाहे वह विवाह हो, नामकरण समारोह हो, यह एक सामूहिक मामला हुआ करता था. जैसे-जैसे आर्थिक स्थिति बेहतर हुई, एक-एक करके लोगों ने आयन माने (कुल घर) से दूर घर बनाना शुरू कर दिया. यह परिवार विभाजित हो गया और पश्चिमी संस्कृति ने जगह ले ली,” एक यूजर ने अपने चाचा की ओर से लिखा.
उन्होंने यह भी जोड़ा कि कई लोग अपनी संपत्ति बेचकर मैसूर और बेंगलुरु में बस रहे हैं, इसे “मानव निर्मित त्रासदी” कहा जो अब अपरिवर्तनीय हो चुकी है.
ऐसे विचार आम हैं, और घटती जनसंख्या की कहानियां विभिन्न मंचों पर चिंताएं बढ़ाती हैं.
टी शेट्टीगेरे कोडवा समाज के कबीलीरा हरीश घटती आबादी की वजह को आसान तरीके से समझाते हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया,”पहली पीढ़ी में 8-9 बच्चे होते थे, और हमारे समय में यह अधिकतम तीन तक सिमट गया. अब, जोड़े एक बच्चे से खुश हैं या बच्चे चाहते ही नहीं. यह चिंता का विषय है.”
इसका समाधान निकालने के लिए, टी शेट्टीगेरे कोडवा समाज ने कोडवा जोड़ों के लिए प्रोत्साहन की घोषणा की, तीसरे बच्चे के लिए 50,000 रुपये की पेशकश की.
“हम यह नहीं कह रहे हैं कि यह पैसा परिवार की सभी समस्याओं को हल कर देगा या बच्चे के जीवन को सुलझा देगा…यह केवल ‘प्रोत्साहन दान’ है,” 73 वर्षीय ने कहा.
उन्होंने आगे कहा कि इस पहल के लिए समाज के पास पर्याप्त धन और दानदाता हैं.
हालांकि, कोडवा समुदाय की एक सदस्य, रेवती ने कहा कि कई कोडवा बच्चे अपने स्कूल में अपने कोडवा सहपाठियों को पहचानते भी नहीं हैं, जिससे पीढ़ीगत खाई और बढ़ रही है.
जहां यह प्रोत्साहन एक सकारात्मक उपाय है, वहीं कुछ ने सख्ती का सहारा लिया. 2021 में, पोन्नमपेट कोडवा समाज के अध्यक्ष छोटकमाडा राजीव बोपैया ने केक काटने, शैम्पेन खोलने और अन्य ‘पश्चिमी’ प्रथाओं और समारोहों पर प्रतिबंध लगा दिया.
समाज ने दूल्हों को दाढ़ी रखने से रोका और दुल्हनों के लिए शादी के समय बालों को ‘वस्त्र’ से बांधना जरूरी कर दिया.
विडंबना यह है कि जहां कोडवा खुद को सुसंस्कृत और अंग्रेजी में निपुण मानते हैं, वे ‘पश्चिमीकरण’ का विरोध करते हैं.
“मुझे नहीं लगता कि यह कुछ और करता है, सिवाय हमारी चिंताओं को खुलकर दिखाने के,” देचम्मा ने कहा.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बिहार में गिरिराज सिंह की नियोजित ‘हिंदू स्वाभिमान यात्रा’ से BJP-JD(U) में क्यों हो रहा टकराव