नई दिल्ली: प्रोफेसर और दिल्ली की इतिहासकार नारायणी गुप्ता का काम राजधानी के अतीत को आकार देने और दशकों तक इसे संरक्षित करने का हिस्सा है. ऐसे समय में उनके काम को सम्मानित करना जब दिल्ली प्रदूषण के अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है, विडंबनापूर्ण और महत्वपूर्ण दोनों है.
और गुप्ता ने यह स्पष्ट किया कि वे दिल्ली की तात्कालिक वास्तविकता से काफी जुड़ी हैं. उन्होंने कहा कि इतिहासकारों को कथन और व्याख्या से आगे बढ़ना चाहिए.
हाल ही में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) में 82-वर्षीय इतिहासकार ने कहा, “अब उन्हें पूर्वानुमान लगाना चाहिए. इससे पहले कि हम बुलडोजर से निकलने वाली धूल में दम तोड़ दें या बहते पानी में डूब जाएं, हमें संकट को दूर करना होगा.”
खचाखच भरे सीडी देशमुख ऑडिटोरियम में शहर के अतीत और वर्तमान के साथ उनके लंबे जुड़ाव और शहरी संरक्षण के लिए उनके प्रयासों को सम्मानित किया गया. कार्यक्रम में इतिहासकार को ट्रिब्यूट देते हुए ‘सिटीज़, सिटिज़न्स, क्लासरूम्स एंड बियॉन्ड: एसेज़ ऑन नारायणी गुप्ता’ नामक किताब का विमोचन किया गया. श्रोताओं में ज़्यादातर इतिहासकार और इतिहास के छात्र शामिल थे. इतिहासकार स्वप्ना लिडल, मानवविज्ञानी लोकेश ओहरी, संरक्षण वास्तुकार रतीश नंदा, प्रोफेसर अमर फारूकी ने गुप्ता द्वारा दशकों से किए गए काम पर चर्चा के लिए एक साथ आए.
दिल्ली जो एक शहर था: कविता में शहर के लेखक सैफ महमूद द्वारा उर्दू कविता का पाठ करके श्रोताओं को उर्दू कवियों के नज़रिए से राजधानी शहर के इतिहास से अवगत कराया.
गुप्ता ने इस किताब को उत्सव-ग्रंथ कहा है, जिसमें गुप्ता की सक्रियता और शिक्षाशास्त्र के रिकॉर्ड के साथ शहरी इतिहास और संरक्षण पर संस्मरण और निबंध शामिल हैं.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के ऐतिहासिक अध्ययन केंद्र में आधुनिक इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर इंदीवर कामटेकर ने कहा, “नारायणी गुप्ता शायद सबसे ज़्यादा विनम्र विद्वान हैं. श्रेय लेने की होड़ से भरी अकादमिक दुनिया में शायद ही कोई इतने सारे लोगों का इतना गुप्त हितैषी रहा हो.”
उन्होंने कहा कि नारायणी गुप्ता के बिना दिल्ली और उसके इतिहास के बारे में सोचना भी मुश्किल है.
पहली बार प्रकाशित होने के चार दशक से भी ज़्यादा समय बाद, गुप्ता की ‘Delhi Between Two Empires (1803-1931)’ — भारत के अतीत के एक महत्वपूर्ण दौर को समझने के लिए अकादमिक हलकों में एक महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में उद्धृत की जाती है.
उन्होंने कहा, “तांगा से लेकर ई-रिक्शा तक दिल्ली के बारे में नारायणी की जानकारी अतुलनीय है. शहरी इतिहास और दिल्ली के लिए उनका शोध और क्लास सीमाओं से परे है.”
कामटेकर ने कहा कि गुप्ता ने कभी-कभी राष्ट्रीय स्तर के भारी दबाव के खिलाफ स्थानीय स्तर की अखंडता के लिए आवाज़ उठाई है.
उन्होंने कहा, “उन्होंने (गुप्ता) इस बात पर जोरदार रुख अपनाया है कि क्या हमें सड़कों का नाम बदलने की ज़रूरत है — कितनी मध्ययुगीन संरचनाओं और उप-आधुनिक संरचनाओं को संरक्षित करने की ज़रूरत है, इतिहास का सांप्रदायिकरण और सामान्य तौर पर, हमारे शहर को सभी के लाभ के लिए समझदारी से कैसे ढाला जाना चाहिए.”
गुप्ता की सौम्य मिलनसारिता के पीछे गहरू मज़बूती छिपी है. वे हमारे प्यारे, लेकिन संकटग्रस्त शहर को घेरने वाले कई ऐतिहासिक, पुरातात्विक और पारिस्थितिक मुद्दों का सामना करती हैं.
‘इतिहासकार पार्ट-टाइम एक्टिविस्ट हो सकते हैं’
गुप्ता ने शहरी इतिहास, संरक्षण और शहरों के सामने आने वाली चुनौतियों को समझने और उनका समाधान करने में स्थानीय पहलों के महत्व पर जोर दिया. उन्होंने शहरों को समझने के लिए इंटरडिसिप्लिनरी नज़रिए की ज़रूरत पर ज़ोर दिया, जिसमें इतिहास, समाजशास्त्र और वास्तुकला से अंतर्दृष्टि को शामिल किया गया है.
गुप्ता ने कहा, “कुछ शताब्दियों पहले, लोग तारों की स्थिति से रास्तों का पता लगाते थे और आकाश की ओर देखते थे. अब, तारे धुंधले हो गए हैं और आकाश में केवल उड़ने वाले वाहन दिखाई देते हैं.”
उन्होंने कहा कि इतिहासकार पार्ट-टाइम एक्टिविस्ट हो सकते हैं क्योंकि उनके पास परिप्रेक्ष्य की समझ होती है — लौकिक और भौतिक दोनों.
“इसी तरह, जो लोग ग्राउंड पर काम करते हैं, वे इतिहास के पार्ट-टाइम लर्नर्स हो सकते हैं, व्हाट्सएप इतिहास नहीं बल्कि सच्चाई के थोड़ा करीब कुछ.”
उनके लिए संरक्षण इतिहास से प्राप्त ज्ञान और कौशल के माध्यम से कार्यान्वित किए जाने पर आधारित है. उन्होंने कहा, “शहरी इतिहास लिखना हमेशा खुशी देता है. इसकी कोई कठोर सीमाएं, कोई टेम्पलेट, कोई पैमाना नहीं है.”
गुप्ता ने विभिन्न कस्बों और शहरों के बारे में लिखने वाले लोगों के बढ़ते समुदाय और कहानियों को साझा करने के उनके तरीके को स्वीकार किया, लेकिन दो शब्दों का उपयोग करने के प्रति आगाह किया.
उन्होंने शालीन मुस्कान के साथ कहा, “बस दो शब्दों से बचें: awesome और amazing” और दर्शक हंसने लगे.
‘हमेशा से इतिहासकार’
जामिया मिलिया इस्लामिया की पूर्व प्रोफेसर गुप्ता ने अपने लंबे और शानदार करियर में कई भूमिकाएं निभाई हैं. वे दिल्ली के शहरी कला आयोग की सदस्य थीं और INTACH से जुड़ी थीं. उन्होंने 2002-04 में दिल्ली SCERT के लिए मिडिल स्कूल सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों पर समिति की अध्यक्षता भी की.
गुप्ता स्मारकों और शहरी परिदृश्यों के संरक्षण में सक्रिय रूप से शामिल रही हैं और उन्होंने सेंट्रल विस्टा के पुनर्विकास के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में एक मामला भी दायर किया है.
उनके लिए बच्चों को इतिहास पढ़ाना सबसे पहले और सबसे ज़रूरी है उन मूल्यों को आगे बढ़ाना जो उनके विश्वदृष्टिकोण, करुणा और विविधता के प्रति सम्मान का अभिन्न अंग हैं.
फारूकी ने कहा, “वे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में समझौता नहीं करती हैं”. उन्होंने कहा कि गुप्ता ने हमेशा जोर दिया कि पाठ्यपुस्तकें आकर्षक और रंगीन होनी चाहिए और उनमें बहुत सारे चित्र होने चाहिए.
फारूकी ने कहा कि स्कूली छात्रों के लिए इतिहास को समझने योग्य बनाने के तरीके खोजना गुप्ता के दिल के बहुत करीब है.
इतिहासकार बीबा सोबती के लिए ऐतिहासिक डेटा को संग्रहीत करने और पुनः प्राप्त करने की गुप्ता की क्षमता ही उन्हें ‘मल्लिका-ए-तारिक’ बनाती है.
सोबती ने कहा, “वे (गुप्ता) एक शहरी इतिहासकार हैं. वे दूर से काम नहीं करती और वास्तव में एक जीवंत पालिम्प्सेस्ट के रूप में विषय वस्तु से जुड़ती हैं.”
उन्होंने कहा कि नारायणी शाश्वत इतिहासकार हैं, ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली उनका शाश्वत शहर है, उनका दृष्टिकोण अभूतपूर्व रूप से व्यापक और असामान्य रूप से महानगरीय है.
लिडल ने गुप्ता की किताब ‘Delhi Between Two Empires (1803-1931)’ से अपनी पहली मुलाकात को याद किया. इसके पहले पृष्ठ पर अल्ताफ हुसैन हाली की ‘मर्सिया-ए-दिल्ली-ए-मरहूम’ थीं.
लिडल ने कहा, “मेरे लिए यह एक किताब खोलने का एक शानदार तरीका था — एक कविता के साथ”. उन्होंने कहा कि गुप्ता के लेखन का दायरा बहुत बड़ा है.
दिल्ली के इतिहास और विरासत पर लिखने के अलावा, गुप्ता ने दृश्य संग्रह से भी जुड़ाव किया है.
नंदा ने गुप्ता को “कंज़र्वेशन मदर” कहा.
नंदा ने 35 साल पहले टीवीबी स्कूल ऑफ हैबिटेट स्टडीज में एक असाइनमेंट के जरिए गुप्ता के साथ हुई अपनी बातचीत को याद करते हुए कहा, “मेरे लिए वे इश्वर का भेजा हुआ तोहफा हैं”. इस कार्यक्रम ने उन्हें संरक्षण के क्षेत्र में ला खड़ा किया.
महमूद ने गुप्ता को ट्रिब्यूट देते हुए उर्दू कवि आगा शायर कज़लबाश की एक पंक्ति सुनाई.
“हमीं हैं मौजिब-ए-बाब-ए-फसाहत हज़रत-ए-शायर
ज़माना सीखता है हम से हम वो दिल्ली वाले हैं”.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: इंजीनियर, शिक्षक, स्कूल ड्रॉपआउट से लेकर मछुआरे तक कैसे बन रहे हैं भारत में पुरातात्विक खोज के अगुवा