किशनगंज: छह महीने पहले 18-वर्षीय रवीना मेहतो अपना पूरी खाली वक्त बिहार के ठाकुरगंज गांव में अपनी मां की मदद करने और मिट्टी के घर में खाना बनाने में बिताती थीं. आज, वे कढ़ी से कोडिंग की ओर बढ़ गई हैं और एक बड़ी टेक कंपनी में काम करने के लिए बेंगलुरु जाने का के अपने सपनो को पंख देने की कोशिश कर रही हैं.
वे उन 67 युवतियों में से एक हैं, जिन्होंने मई में बिहार के किशनगंज में हाल ही में खुले स्कूल ऑफ प्रोग्रामिंग में कोडिंग सीखने के लिए अपना घर छोड़ा था.
रवीना ने कहा, “यह एक युद्ध की तरह था — मुझे पहले अपनी मां, फिर अपनी दादी और अंत में पड़ोसियों तक को मनाना पड़ा. मैंने कुछ ऐसा सीखने के मौके के लिए संघर्ष किया, जो मेरी ज़िंदगी बदल सकता था.”
अररिया से गया तक पूरे बिहार की महिलाओं ने 21 महीने के इस कोर्स में दाखिला लिया है, जिसमें फ्री ट्रेनिंग के साथ-साथ रहने और खाने की सुविधा भी दी जाती है. दो गैर सरकारी संगठनों, नवगुरुकुल और प्रोजेक्ट पोटेंशियल द्वारा संचालित इस रेज़िडेंशियल स्कूल का उद्देश्य भारत के ग्रामीण और छोटे शहरों की महिलाओं के लिए भारत के 250 बिलियन डॉलर की आईटी इंडस्ट्री में दाखिले का मार्ग प्रशस्त करना है. प्रोजेक्ट पोटेंशियल के संस्थापक जुबिन शर्मा ने कहा कि पांच मिलियन की संख्या वाले वर्कफोर्स में 36 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं, लेकिन यह काफी नहीं है. वे चाहते हैं कि बिहार इस सफलता की कहानी का हिस्सा बने.
पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में ग्रेजुएट और येल से पब्लिक पॉलिसी में पोस्ट ग्रेजुएट करने वाले शर्मा ने कहा, “बिहार में केवल 9.4 प्रतिशत महिलाएं वर्कफोर्स में हैं, जो भारत के किसी भी राज्य की तुलना में सबसे कम दर है.” अब, वे अपना समय न्यूयॉर्क और किशनगंज के बीच बांटते हैं, जहां वे प्रोजेक्ट पोटेंशियल चलाते हैं. उन्होंने कहा, “यह सुनिश्चित करना कि ग्रामीण महिलाओं को महत्वाकांक्षी नौकरियों तक पहुंच हो ताकि वह भी वर्कफोर्स में शामिल हो सकें, हमारे काम का फोकस है.”
स्कूल ऑफ प्रोग्रामिंग ने किशनगंज में एक शांत क्रांति शुरू की है. नवगुरुकुल के रायपुर, दंतेवाड़ा और धर्मशाला सहित आठ अन्य ऐसे सेंटर हैं. मज़दूरों और किसानों की बेटियां सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन रही हैं, बड़े शहरों में जा रही हैं और महीने के कम से कम 20,000-25,000 रुपये कमा रही हैं, जो औसत पारिवारिक आय 10,000 रुपये से कहीं ज़्यादा है. बिहार की महिलाएं जो अब बेंगलुरु और कोलकाता में काम कर रही हैं, रोल मॉडल बन गई हैं — बदलाव, कोड और करियर की आवाज़.
ग्रेट लेक्स इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर विद्या महाबारे ने कहा, “स्किल डेवलपमेंट कोर्स न केवल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वो महिलाओं की कमाने की क्षमता बढ़ाते हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि वो सामाजिक मानदंडों और पितृसत्तात्मक संस्कृति को तोड़ने में मदद करते हैं. यह महिलाओं के आत्मविश्वास के स्तर को भी बढ़ाता है.”
उन्होंने कहा, “आखिरकार, जब वे शादी कर लेती हैं, तो इस तरह के अनुभव वाली लड़कियों के पास परिवार के भीतर फैसले लेने की अधिक शक्ति और अधिक स्वतंत्रता होने की संभावना होती है. कॉर्पोरेट इंडिया अपनी सीएसआर गतिविधियों के तहत ऐसी पहलों को बढ़ाने में मदद कर सकता है और महिला सशक्तीकरण में अपनी भूमिका निभा सकता है.”
रवीना का दिन लंबा होता है, सुबह 8:30 बजे से रात 8:20 बजे तक क्लास चलती है जिसके बीच में दो ब्रेक होते हैं. हर कोई अपने लैपटॉप पर पायथन और जावा से जूझते हुए अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करता है.
लेकिन उन्हें अभी दूरी तय करनी है.
उन्होंने उम्मीद भरी निगाहों से कहा, “लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है. अब, मैं अपने लैपटॉप पर कोड के साथ और अपनी मां के साथ संघर्ष कर रही हूं, जो मेरे कोर्स खत्म होने के बाद मुझे नौकरी के अवसर तलाशने देने में हिचकिचाती हैं.”
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जल्दी सीखने वाले स्टूडेंट्स
बिना एयर-कंडीशनर वाले एक छोटे से कमरे में लगभग 10 महिलाएं फर्श पर बिछी चटाई पर बैठी हैं, उनके लैपटॉप खुले हैं. कुछ ने लकड़ी की बेंचों और टेबलों पर जगह बना ली है. स्कूल के तीन ट्रेनर्स में से एक की चौकस निगाहों के सामने वह अपना कोडिंग टेस्ट पूरा कर रही हैं, जबकि वहां पूरी तरह सन्नाटा है.
एक मंजिला स्कूल के मुख्य हॉल में स्टूडेंट्स कागज़ के टुकड़ों पर कोडिंग पिरामिड बना रहे हैं. एक्टिविटी सेशन के इंचार्ज ट्रेनर ने कहा, “टिक, टिक वन, टिक, टिक टू…घड़ी चल रही है.” यह आसान है : उन्हें कागज़ के टुकड़ों पर तेज़ी से कुछ विशेष कोड लिखने हैं.
स्कूल में तीनों ट्रेनर्स में से एक प्रियंका डंगवाल ने कहा, “स्टूडेंट्स काफी आगे बढ़ गई हैं. छह महीने पहले तक उन्होंने कभी लैपटॉप का इस्तेमाल भी नहीं किया था. हमें शुरु से शुरुआत करनी पड़ी.”
नवगुरुकुल कोडिंग कोर्स की ग्रेजुएट प्रियंका खुद छत्तीसगढ़ से स्टूडेंट्स को ट्रेंनिंग देने आई हैं और वह इस बात से हैरान हैं कि इतने कम समय में उन्होंने कितना कुछ सीख लिया है.
भले ही इसमें फैंसी लैब या स्मार्ट बोर्ड न हों, लेकिन स्कूल ऑफ प्रोग्रामिंग यह सुनिश्चित करता है कि हर स्टूडेंट को अपना एक एचपी लैपटॉप मिले. ट्रेनिंग मुश्किल है और स्टूडेंट्स को अपने फोन क्लास में लाने की अनुमति नहीं है, लेकिन सेशन में अनौपचारिकता का स्तर भी है.
अररिया जिले से किशनगंज आई काजल कुमारी (20) ने कहा, “शुरुआत में कोडिंग मुश्किल हुआ करती थी, लेकिन अब मुझे इसमें मज़ा आने लगा है. कभी-कभी हम कोड के साथ गेम भी बनाते हैं. हम कोडिंग के बहुत ही शुरुआती चरण पर हैं.”
दूसरे कमरे में करीब 10-15 महिलाएं एक ग्रुप में बैठी हैं और अपने प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं. माहौल को खुशनुमा बनाए रखने के लिए ट्रेनर अपने फोन पर म्यूज़िक बजाती हैं, लेकिन केवल अंग्रेज़ी में — ताकि स्टूडेंट्स को भाषा सीखने में मदद मिल सके.
18-वर्षीय प्राची ने कहा, “मैं पैसे कमाऊंगी और अच्छे कपड़े पहनूंगी और खूब ट्रेल करूंगी.” उनका लाल टॉप और काली पैंट उनके गांव में पहनी जाने वाली कुर्तियों से बिलकुल अलग है. बंजी जंपिंग और स्कूबा डाइविंग उनकी बकिट लिस्ट में शामिल है. एक फेसम गाना बजता है और वे एकदम नाचने के लिए उछल पड़ती हैं.
प्राची ने कहा, “छह महीने पहले मुझे केवल स्कूल और घर के कामों के लिए बाहर निकलने की अनुमति थी. मैंने कभी नहीं सोचा था कि इतना कुछ बदल सकता है, लेकिन अब ज़िंदगी ने मुझे एक मौका दिया है और मैं इसे बर्बाद नहीं करना चाहती.”
उनके आस-पास के अन्य लोग सहमति में सिर हिलाते हैं. उनमें से ज्यादातर आर्थिक रूप से वंचित परिवारों से आते हैं. सेंटर में उन्हें दिन में तीन बार मुफ्त भोजन, शेयरिंग कमरे, वाईफाई और लैपटॉप मिलते हैं. वे मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, पुणे जैसे आईटी हब में नौकरी करना चाहते हैं.
काजल ने कहा, “पैसा सबसे ज़रूरी चीज़ है. मुझे पता है कि एक बार जब मैं कमाना शुरू कर दूंगी, तो मेरे माता-पिता की सभी समस्याएं दूर हो जाएंगी. कमाना ही मेरी आज़ादी का रास्ता है.”
ग्रामीण भारत की महिलाएं कौशल और शिक्षा के ज़रिए स्वतंत्र होने का रास्ता तलाश रही हैं. डेटा से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों की ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं वर्कफोर्स में शामिल हो रही हैं. महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर पिछले छह वर्षों से बढ़ रही है — 2017-18 में 23.3 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 37 प्रतिशत हो गई है, जो मुख्य रूप से ग्रामीण महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से प्रेरित है.
किंग्स कॉलेज, लंदन में सोशल साइंस ऑफ डेवलपमेंट की सीनियर लेक्चरार एलिस इवांस ने कहा, “यह पहल हमें दिखाती है कि देश भर में क्या हो सकता है. यह इस बात का एक मूल्यवान उदाहरण है कि हम सम्मान-आय के बीच के अंतर को कैसे पाट सकते हैं. ये लड़कियां सांस्कृतिक परिवर्तन के मूल को उजागर करती हैं: जब कईं महिलाएं पैसा और सम्मान कमाती हैं तो उनके माता-पिता अधिक सहायक बन जाते हैं.”
उन्होंने कहा कि अगला कदम देश भर में संरचनात्मक परिवर्तन को बढ़ावा देना है — विकास और यहां तक कि बॉलीवुड के माध्यम से भी.
उन्होंने कहा, “आर्थिक विकास और सांस्कृतिक रूप से सम्मानित नौकरियां महिला रोज़गार के बारे में धारणाओं को बदल सकती हैं और बॉलीवुड में वर्कफोर्स में महिलाओं को प्रदर्शित करके इसे सामान्य बनाने की शक्ति है. जब बहुत सारी महिलाएं इसमें शामिल होती हैं, जिससे परिवार का समर्थन बढ़ता है.”
अपने माता-पिता को उन्हें घर छोड़ने के लिए राज़ी करना पहली बाधा है. बिहार में स्कूल ऑफ प्रोग्रामिंग खुलने से पहले, जो महिलाएं कोडिंग सीखने के लिए नवगुरुकुल में शामिल होना चाहती थीं, उन्हें बेंगलुरु, पुणे, रायपुर या धर्मशाला में इसकी किसी शाखा में दाखिला लेने के लिए राज्य छोड़ कर जाना पड़ता था.
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बिहार से बेंगलुरु
रवीना मेहतो की आइडल करीना कपूर या किरण बेदी नहीं हैं — बल्कि कबिता मेहतो हैं. वे अपने गांव की पहली महिला थीं, जिन्होंने तीन साल पहले कोडिंग कोर्स पूरा करने के बाद आईटी सेक्टर में नौकरी हासिल की थी. वर्तमान में वे कोलकाता में एक आईटी फर्म में काम करती हैं और हर महीने 50,000 रुपये कमाती हैं और नियमित रूप से घर पैसे भेजती हैं. यहां तक कि पड़ोसी गांव के लोग भी उनकी सफलता के बारे में जानते हैं.
उनके माता-पिता को उन पर गर्व है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था. जब कबिता ने आईटी सेक्टर में करियर बनाने का फैसला किया, तो किशनगंज में कोई मुफ्त कोडिंग स्कूल नहीं था. उनके माता-पिता उन्हें घर से बाहर नहीं जाने देना चाहते थे, बेंगलुरु में नवगुरुकुल के स्कूल में जाने की तो बात ही छोड़िए.
अब 21 साल की कबिता बताती हैं, “मैंने लड़ाई की और ट्रेन में चढ़ गई. मेरे माता-पिता मुझे बेंगलुरु जाने की अनुमति कभी नहीं देते. मेरे गांव या परिवार में कोई भी इतनी दूर नहीं गया था. हर कोई उनसे कहता रहता था कि मुझे घर पर ही रहना चाहिए क्योंकि मैं लड़की हूं.”
उन्होंने कहा, जिस दिन वे बेंगलुरु पहुंची, उस दिन भारी बारिश हुई थी — सड़कों पर घुटनों तक पानी भरा हुआ था. वे कन्नड़ या अंग्रेज़ी नहीं जानती थीं. उनके सहपाठियों ने उन्हें फोन पर रास्ता बताया, जिससे उन्हें ऑटो चालक से बात करने में मदद मिली.
कबिता ने कहा, “अंधेरा था और बारिश के कारण मुझे देरी हो गई. मुझे कभी इतना डर नहीं लगा था. उस समय मुझे कन्नड़ या अंग्रेज़ी भी नहीं आती थी, लेकिन अब, तीन साल बाद, मैं विदेशी ग्राहकों से अंग्रेज़ी में बात कर रही हूं.”
बेंगलुरू में उनकी एक टेक कंपनी में नौकरी लग गई और जैसे ही उन्हें 30,000 रुपये की पहली सैलरी मिली, उन्होंने घर पैसे भेजना शुरू कर दिया. उनके पिता ने उस पैसे का इस्तेमाल उनकी बड़ी बहन की शादी के लिए लिए गए कर्ज़ को चुकाने में किया. यह विडंबना कबिता को समझ में आती है.
1.5 लाख रुपये का कर्ज़ चुकाने के बाद, उन्होंने अपने कच्चे घर को टिन से मज़बूत करवाया, एक स्कूटर खरीदा और चावल उगाने के लिए कुछ ज़मीन भी खरीदी.
कबीता के पिता महेंद्र महतो ने अपने घर के बाहर प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हुए कहा, “मैं अपनी पूरी ज़िंदगी में यह कभी नहीं कर सकता था. मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी बेटी कमा सकती है. मुझे हमेशा लगता था कि वे दूसरों की तरह शादी करेगी.”
पिछली छठ पर महेंद्र के परिवार ने कबीता द्वारा भेजे गए तोहफो के साथ जश्न मनाया — उनकी मां के लिए साड़ियां, पिता के लिए एक जैकेट और कुर्ता-पायजामा और बहन के लिए सूट और भाई के लिए एक शर्ट.
मेहतो परिवार की ज़िंदगी में आए बदलावों को देखकर, गांव के 10-15 से ज़्यादा लोग महेंद्र के पास यह जानने के लिए पहुंचे कि कबीता ने क्या किया और उसे नौकरी कैसे मिली. यह वही लोग थे जो कबीता को गांव छोड़ने देने के लिए उन्हें ताना मारते थे, अब उनसे सलाह लेना चाहते थे.
महेंद्र ने छठ की तस्वीरें दिखाते हुए गर्व से कहा, “मेरी बेटी ने मुझे बहुत सम्मान दिलाया है” जिसमें उन्होंने पीले रंग का कुर्ता पहना हुआ था, जो उन्होंने उन्हें उपहार में दिया था.
कबीता के शुरुआती आलोचकों में से एक रवीना के पिता मनोज कुमार मेहतो थे, लेकिन जब किशनगंज में स्कूल ऑफ प्रोग्रामिंग खुला तो वे बहुत खुश हुए.
उन्होंने कहा, “मैंने देखा कि कैसे इस ट्रेनिंग ने कबीता के परिवार की ज़िंदगी को बदल दिया, इसलिए मैंने अपनी बेटी को इसे करने के लिए प्रोत्साहित किया. वे अभी वहां सीख रही है और ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उसे नौकरी मिल जाएगी.”
सपनों की उड़ान
कबीता, रवीना और काजल को उस चीज़ के लिए संघर्ष करना पड़ा है जिसे शहरों में रहने वाली ज्यादातर महिलाएं आसानी से पा सकती हैं. उनके परिवारों ने उनके लिए एक अलग योजना बनाई है — शादी. वे कभी न खत्म होने वाला “राक्षस” उनका पीछा कर रहा है.
काजल पैसे कमाना चाहती हैं ताकि माता-पिता की समस्याएं “गायब” हो जाएं, लेकिन स्कूल से एक घंटे की दूरी पर, उनके पारिवारिक घर में, उनकी दादी पहले से ही उनकी शादी करवाने के तरीके तलाश रही हैं.
काजल की दादी ने कहा, “उसे घर बसाना होगा.”
परिवार ठाकुरगंज की संकरी गलियों में एक छोटे से एक मंजिला घर में रहता है. उनके पिता साइकिल मरम्मत की दुकान पर काम करते हैं और उनकी मां घर चलाती हैं. काजल के सबसे छोटे चाचा की शादी दो साल पहले हुई थी और उनकी पत्नी सोनी (23) को काजल की यात्रा से प्रेरणा मिली है.
पीली साड़ी पहने सोनी ने कहा, “मैं ग्रेजुएट हूं और यह प्रेरणादायक है कि काजल कोडिंग की पढ़ाई कर रही हैं. मैंने अपने पति से ट्रेनिंग लेने के लिए बात की है. हमें अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए और पैसे की ज़रूरत है और मेरे पास एक अच्छी नौकरी पाने की योग्यता है. मुझे बस ट्रेनिंग की ज़रूरत है.”
लेकिन काजल की दादी इससे प्रभावित नहीं हैं.
उन्होंने कमरे से बाहर जाने से पहले कहा, “ट्रेनिंग लेकर क्या करोगी? अपने बच्चे पर ध्यान दें.”
कोड सीखने के दौरान नरगिस खातून (17) यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि वे अपनी किस्मत से कैसे भाग सकती हैं. उनकी मां ने पहले ही उनके होने वाले पति को चुन लिया है.
नरगिस की मां संतारा खातून ने कहा, “ऐसा नहीं है कि हम उसकी तुरंत शादी करवा रहे हैं. वो पहले यह ट्रेनिंग पूरी कर सकती है क्योंकि वो इसके लिए बहुत उत्सुक थी.” जब वे 9वीं कक्षा में थी, तब से ही उनके लिए रिश्ते आने शुरू हो गए थे.
घर पर बैठी नरगिस ने कहा, “उस समय, मैं बाहर की दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानती थी, लेकिन अब, मैं एक नई दुनिया से परिचित हो रही हूं और यह मेरे लिए बहुत ही सुंदर है.”
नरगिस शादी से पहले काम करना चाहती हैं. वे वेबसाइट बनाने और “ऑफिस गर्ल” लाइफ को जीने के लिए उत्सुक हैं.
आईटी इंडस्ट्री में एआई के बढ़ते प्रभाव और नौकरी की अस्थिरता के साथ, हालांकि, भविष्य को लेकर अनिश्चितताएं बरकरार हैं.
जुबिन शर्मा ने कहा, “हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि एआई के साथ क्या होगा; इन मॉडलों के नए-नए एडिशन तेज़ी से आ रहे हैं, लेकिन अभी के लिए, ऐसे सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की बहुत डिमांड है जो यह भी जानते हों कि एआई टूल को अपने वर्कफ्लो में कैसे एकीकृत किया जाए.”
और महिलाओं को इसके लिए ट्रेनिंग दी जा रही है.
उन्होंने कहा, “इसके अलावा, स्टूडेंट्स सीख रहे हैं कि इसे कैसे सीखना है, उन्हें नए एआई टूल में महारत हासिल करने के लिए तैयार किया जा रहा है, जैसे-जैसे वो प्रासंगिक होते जाते हैं.” उनके स्टूडेंट्स चैटजीपीटी और गूगल जेमिनी जैसे एआई टूल से भी वाकिफ हैं.
काजल ने सिया के ‘चीप थ्रिल्स’ पर नाच रही लड़कियों के साथ शामिल होने से पहले कहा, “मैंने कोडिंग सीखने और स्वतंत्र होने के लिए ट्रेनिंग हासिल की है. किसी की पत्नी बनना मेरे लिए बहुत बाद में आएगा. शादी से पहले मैं बहुत सी चीज़ें करना चाहती हूं, क्या पता मैं इस नई जर्नी में किसी से मिलूं.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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