इस सप्ताह तीन बातों ने सोच को प्रभावित किया है.
पहली यह कि सामरिक समुदाय रक्षा बजट की स्थिरता से काफी हताश है.
दूसरी, ‘दिप्रिंट’ के सृजन शुक्ल को दिए इंटरव्यू में जाने-माने अमेरिकी रणनीतिक विद्वान क्रिस्टाइन फेयर ने कहा है कि लश्कर-ए-तय्यबा कोई आतंकवादी संगठन नहीं है बल्कि पाकिस्तानी फौज का कम खर्चीला कार्यवाही दस्ता है जिसका काम एक ऐसी बेमेल लड़ाई छेड़ना है जिसकी बराबरी भारत नहीं कर सकता है. फेयर ने यह भी कहा है कि भारत ऐसी किसी छोटी लड़ाई में पाकिस्तान को शिकस्त नहीं दे सकता.
तीसरी बात यह कि वायुसेना के दिवंगत एयर कोमोडोर जसजीत सिंह ने अपनी किताब में कुछ दिलचस्प खुलासे किए हैं. उन्होंने बताया है कि भारतीय वायुसेना ने किस तरह इजरायली इंजीनियरों को अपने पुराने फ्रेंच मिराजों में यह रद्दोबदल करने की इजाजत दी कि उनमें हवा से हवा में मार करने वाली रूसी मिसाइलों आर-73 को फिट किया जा सके. यह तब किया गया जब उन मिराजों की अपनी मूल मटरा-530डी मिसाइलें बेकार हो चुकी थीं. इस रद्दोबदल ने राजकपूर की क्लासिक फिल्म ‘श्री 420’ के लिए लिखे शैलेन्द्र के इस गाने की याद दिला दी— ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिश्तानी/ सिर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’.
ये पंक्तियां नए-नए बने गणतन्त्र के लिए 1955 में बेशक एक अलग जोश भरती थीं. लेकिन आज, 65 वर्ष बाद भी क्या यही पंक्तियां हमारी सेनाओं की हालत का बयान करती रहें?
समझना जरूरी है रक्षा बजट बनाम जीडीपी का पेंच
इसलिए, सबसे पहले हम रक्षा बजट बनाम जीडीपी के पेंच को समझें. इस साल का रक्षा बजट, पेंशन को मिलाकर 4.32 लाख करोड़ का है, जो कि जीडीपी के ठीक 2 प्रतिशत के बराबर है. अगर इसमें से पेंशन के हिस्से को निकाल दें तो यह बजट 3.18 लाख करोड़ यानी जीडीपी के मात्र 1.5 प्रतिशत के बराबर होगा.
यहां पर आकर दो अहम सवाल उठते हैं— इतने छोटे बजट के बूते भारत क्या अपनी रक्षा कर सकता है? क्या भारत में प्रतिरक्षा के लिए इससे ज्यादा का प्रावधान करने की कुव्वत है? पहले सवाल का फौरन जवाब तो ‘नहीं’ ही है, जबकि दूसरे सवाल का जवाब ‘हां’ है. इक़बालिया बयान यह है कि कुछ समय पहले तक मैं भी शायद यही कहता. मगर मैं गलत था.
रणनीतिक मामलों पर बहस में जीडीपी और केंद्रीय बजट के बीच अंतर की बात हमेशा नहीं की जाती. बजट को सरकार का माना जाता है, जीडीपी का नहीं. इसलिए ज्यादा सही यह होगा कि रक्षा बजट को केंद्रीय बजट के प्रतिशत के हिसाब से देखा जाए. आज यह प्रतिशत 15.5 है और केंद्रीय बजट में इसका हिस्सा सबसे बड़ा है. ऋण भुगतान के बाद यह करीब 23 प्रतिशत बैठता है. यह कृषि, ग्रामीण विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य पर किए जाने वाले कुल खर्च (15.1 प्रतिशत) से कहीं ज्यादा है. जीडीपी के 0.5 प्रतिशत या बजट के 3.5 प्रतिशत के बराबर की रकम केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों पर खर्च की जाती है. तो कोई वित्त मंत्री प्रतिरक्षा पर खर्च के लिए पैसे कहां से लाएगा?
हमारे डाटा पत्रकार अभिषेक मिश्र ने 1986 के बाद से पेश हुए रक्षा बजटों का विश्लेषण करके बताया है कि राजीव गांधी के दौर में जब सैन्य विस्तार पर ज़ोर दिया गया था तब रक्षा बजट जीडीपी के 4 प्रतिशत के बराबर के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया था. उसी दौर में आज वाले मिराज विमानों का आना शुरू हुआ था. इसके बाद से बजटों में निरंतर, स्थिर और पारंपरिक आधार पर वृद्धि की जाती रही है और यह जीडीपी के औसतन 2.82 प्रतिशत (विश्व बैंक के आंकड़े) के बराबर रहा है. 1991 में आर्थिक सुधारों के कारण जीडीपी में तेजी से वृद्धि हुई.
पिछले 20 वर्षों में, करगिल युद्ध के बाद से बजट में हर साल औसतन 8.91 प्रतिशत की वृद्धि हुई. आप चाहे जितना शोर मचा लें, कोई भी सरकार यह राजनीतिक मूर्खता नहीं करेगी कि प्रतिरक्षा पर खर्च बढ़ाने के लिए या तो ज्यादा नोट छापने लगे, या सब्सिडीयों के रूप में गरीबों को जो दिया जाता है (बजट का 6.6 प्रतिशत) उसमें कटौती करे; या कृषि, ग्रामीण विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि पर किए जाने वाले खर्च में कटौती करे.
ज्यादा ताकतवर मानी गई नरेंद्र मोदी सरकार कोई नाटकीय काम करेगी, यह अपेक्षा गलत और अनुचित है. मोदी न तो मूर्ख हैं और न लापरवाह सैन्यवादी हैं. आक्रामक रणनीतिक तेवर दिखाने का यह मतलब नहीं है कि मोदी भारत को पाकिस्तान की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जुनूनी देश बना देंगे या दिवालिया बना देंगे कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश के पास बार-बार दौड़ना पड़े. इसलिए, भारत की रणनीति पर की जाने वाली बहस को इस वास्तविकता के मद्देनजर ढालना होगा, कि क्या कुछ अपने बूते में है. आर्थिक वृद्धि जीडीपी के साथ ही कदम मिलाकर चलेगी. सो, 2024 में जीडीपी अगर 5 खरब डॉलर है, तो प्रतिरक्षा पर खर्च इसके 2 प्रतिशत बराबर ही किया जाएगा. तब इस बहस को इस ओर मोड़ना होगा कि इतनी रकम में देश की सुरक्षा कैसे होगी और किस तरह से होगी.
जहां तक मौजूदा सैन्यबल की बात है, भारत पाकिस्तान से एक लंबा (दो सप्ताह से ज्यादा के) युद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत है. लेकिन आज इस युद्ध की संभावना नहीं है. याद रहे कि दोनों देशों के बीच पिछले दो युद्ध मात्र 22 (1965 में) और 13 दिन (1971 में) चले थे. लेकिन क्रिस्टाइन फेयर का यह कहना सही है कि भारत आज पाकिस्तान को छोटी लड़ाई में नहीं हरा सकता. इसलिए आज हमारे सामने जो सवाल है वह कहीं ज्यादा भड़काऊ है, कि क्या भारत पाकिस्तान को उसकी कुटिल, बेमेल लड़ाइयों (पुलवामा) के लिए इस तरह का निर्णायक सबक सिखाने के लिए उस पर भारी पड़ने की इतनी क्षमता रखता है कि कम से कम भारतीयों की जान को जोखिम में डाले बिना (बालाकोट के विपरीत) निश्चित नतीजा हासिल कर सके? बालाकोट और उसके अगले दिन की झड़प ने दिखा दिया है कि हमें इस मामले में बढ़त नहीं हासिल है.
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लंबे या अधिक तीखे युद्ध की स्थिति में बेशक हमारी वायुसेना की ताकत और उसका कौशल उस पर भारी पड़ेगा. लेकिन जिस मुल्क का रक्षा बजट आपके इस बजट के सातवें हिस्से के बराबर हो और जिसका विदेशी मुद्रा भंडार आपके इस भंडार के महज 3 प्रतिशत के बराबर हो, वह हथियारों या फौज की तादाद के मामले में आपको अपनी मर्जी से कहीं भी शिकस्त क्यों दे? इसलिए हम फिर उसी पेचीदे सवाल के रू-ब-रू हैं कि क्या हम प्रतिरक्षा बजट का एक-एक रुपया सही तरीके से खर्च कर रहे हैं?
भारत की दो प्रमुख रणनीतिक जरूरतें हैं— चीन से ऐसा प्रतिरक्षात्मक बचाव, जो उसके भौगोलिक दुस्साहसों को इतना महंगा बना दे कि वह इसकी हिम्मत न करे; और एक ऐसी तैयारी, जो पाकिस्तान को उसकी बेमेल लड़ाइयों के दुस्साहस के लिए नतीजे भुगते बिना भागने न दे. दो मोर्चों पर युद्ध असंभव तो नहीं है मगर इसकी उम्मीद नहीं है. दुनिया के शतरंज पर चीन के दांव काफी अलग हैं, भारत अपनी रक्षा करने और तीन परमाणु शक्तियों से अपना बचाव करने में पूरी तरह सक्षम है. और एक बात तो तय मानिए कि कोई भी पक्ष किसी पक्के युद्ध में दुश्मन को अपने साथ लेकर डूबे बिना हार नहीं मानेगा. यहां इस एक और वास्तविकता को समझना होगा कि दो मोर्चों पर युद्ध के खतरे से आक्रांत मत होइए, न ही दुश्मन का कोई खाका तय कर लीजिए, बस उसी पर ध्यान दीजिए जो सामने साफ-साफ दिख रही हकीकत है.
इस मुकाम पर आकर यही साफ लगता है कि न तो हमारी सेना में और न हमारी वायुसेना में वह ताकत है जो पाकिस्तान को उसके दुस्साहस से बाज आने के लिए फौरी सजा दे सके. तीन हफ्ते के युद्ध को तो भूल जाइए, एलओसी पर (जहां ऐक्शन जरूरी होता है) पाकिस्तान अब तक अपनी इन्फैन्ट्री के लिए बेहतर हथियार, बॉडी आर्मर, स्नाइपर राइफल, और जरूरी तोपें तैनात करता रहा है. खासकर यूपीए के 10 वर्षों के दौरान वायुसेना के मामले में जो असुंतलन आया और हमने जो लापरवाही बरती उसका नतीजा 26-27 फरवरी को उजागर हो गया. आज पाकिस्तान के मुक़ाबले केवल हमारी नौसेना ही निर्णायक और घातक बढ़त रखती है. लेकिन दंड देने के लिए नौसेना का इस्तेमाल युद्ध के स्तर को ऊपर उठाता है और बाकी दुनिया के लिए महत्व रखने वाले जलमार्ग में खलल पैदा करता है.
प्रतिरक्षा पर खर्च होने वाले 4.31 लाख करोड़ में सबसे बड़ा हिस्सा (1.12 लाख करोड़ का) पेंशन का है. इसके बाद तीनों सेनाओं को दिए जाने वाले वेतन (सिविल कर्मचारियों और डीआरडीओ को छोडकर) का है— 1.08468 लाख करोड़ का. एक लाख करोड़ से ज्यादा की रकम रखरखाव और उपभोग की सामाग्री आदि के फिक्स्ड मद में खर्च होती है. सो, कैपिटल बजट के रूप में मात्र 200 करोड़ बच पते हैं, जो वेतन के मद से भी कम है. यही वजह है कि तीनों सेना आधुनिकीकरण के लिए हाथ-पैर मारती रहती है और जुगाड़ से काम चलाती रहती है— कोई साजोसामान यहां से, तो कोई मिसाइल कहीं से, कोई रडार कहीं और से… बेशक हमें मालूम है कि असली चीज़ तो यह है कि मशीन के पीछे कौन खड़ा है. क्योंकि… ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’.
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सुपर पावर बनने की हसरत रखने वाले देश को तो बेहतर चीज़ें ही चाहिए. अगर वह ज्यादा खर्च नहीं कर सकता, तो उसे बेहतर तरीके से खर्च करना होगा. वेतन और पेंशन के साथ तो कुछ नहीं कर सकते. आपके सैनिकों को कहीं बेहतर मिलना ही चाहिए. लेकिन क्या फुल केरियर सर्विस के लिए इतने ज्यादा लोग चाहिए? सेनाओं को छोटा, ज्यादा फुर्तीला, ज्यादा आक्रामक बनाने की जरूरत है. शॉर्ट सर्विस और के-लाइन अमेरिकन आरओटीसी (रिजर्व अफसर्स ट्रेनिंग कोर) जैसे नए विचारों पर ध्यान देने की जरूरत है. इस दिशा में कुछ प्रगति हो रही है क्योंकि यह सरकार बदलाव को लेकर उतनी शंकित नहीं है जितनी यूपीए सरकार थी. भारत को सैद्धांतिक परिवर्तन की दरकार है. इसके रणनीतिकारों को चाहिए कि वे अतीत के युद्धों को फिर से लड़ने से बाज आएं.
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