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Thursday, 21 November, 2024
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विचारधारा पहले या BJP से संबंध? केसी त्यागी के इस्तीफे से नीतीश की JD(U) में सत्ता संघर्ष हुआ उजागर

वक्फ बिल स्टैंड से लेकर त्यागी के प्रवक्ता पद से हटने तक — जेडी(यू) भाजपा के साथ गठबंधन और अपनी मूल पहचान की रक्षा के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि वो संघर्ष कर रही है.

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नई दिल्ली: जनता दल (यूनाइटेड) में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने के इच्छुक नेताओं और पार्टी की मूल विचारधारा से समझौता करने के लिए तैयार नहीं नेताओं के बीच सत्ता संघर्ष के संकेत मिल रहे हैं.

मतभेद तब खुलकर सामने आ गए जब जेडी(यू) के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी ने रविवार को मुख्य प्रवक्ता के पद से इस्तीफा दे दिया. त्यागी ने मोदी सरकार के फैसलों जैसे सिविल सेवाओं में लेटरल एंट्री और समान नागरिक संहिता, साथ ही आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और इज़रायल और फिलिस्तीन पर विदेश नीति पर आक्रामक रुख अपनाया.

हालांकि, त्यागी का अधिकांश मुद्दों पर रुख जेडी(यू) की वैचारिक स्थिति को दर्शाता है, लेकिन पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि उन्होंने वरिष्ठ नेताओं के दबाव के कारण इस्तीफा दिया, जो गठबंधन सहयोगी भाजपा के साथ पार्टी के समीकरण को बिगाड़ना नहीं चाहते हैं.

उनके रुख ने जेडी(यू) को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में मुश्किल में डाल दिया, जिसे उसने संसदीय चुनावों के बाद बिना शर्त समर्थन देने की पेशकश की थी.

लोकसभा चुनाव में भाजपा के पूर्ण बहुमत हासिल करने में विफल रहने के बाद एनडीए के लिए नीतीश कुमार का समर्थन महत्वपूर्ण है.

जदयू के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट से कहा, “कुछ नेता जो भाजपा को नाराज़ नहीं करना चाहते हैं, वो अपनी राजनीतिक संभावनाओं के लिए सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए भाजपा की राह पर चल रहे हैं क्योंकि नीतीश की उम्र बढ़ रही है. इन नेताओं को मालूम है कि उनका भविष्य भाजपा के साथ अच्छा नहीं चल रहा है.”

सामाजिक न्याय आंदोलन से जन्मी यह पार्टी संसद में भाजपा द्वारा पेश किए गए विवादास्पद वक्फ (संशोधन) विधेयक पर भी विभाजित है. हालांकि, जेडीयू ने सदन में विधेयक का समर्थन किया, लेकिन कुछ नेताओं ने वक्फ संपत्ति को नियंत्रित करने वाले कानून में संशोधन करने के कदम का इस आधार पर विरोध किया कि यह पार्टी की मूल मान्यताओं के खिलाफ है.

पार्टी की मुख्य विचारधारा पर समझौता न करने के लिए दृढ़ संकल्पित, उन्होंने वरिष्ठ नेता राजीव रंजन सिंह, जिन्हें ललन सिंह के नाम से भी जाना जाता है, पर सफलतापूर्वक दबाव बनाया, जिन्होंने संसद में वक्फ विधेयक का समर्थन करने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र से परे जाकर काम किया.

तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के विपरीत, जिसके सांसदों ने विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को भेजने पर जोर दिया, ललन सिंह को यह कहकर सरकार का बचाव करते देखा गया कि विधेयक वक्फ बोर्ड के कामकाज में पारदर्शिता लाएगा.

केंद्रीय मंत्री ने कहा कि विधेयक मुस्लिम विरोधी नहीं है और यह मस्जिदों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करेगा.

बिहार के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी, जिन्हें नीतीश कुमार का करीबी माना जाता है, को ललन सिंह का रुख पसंद नहीं आया. उन्होंने कहा, “विधेयक को अंतिम रूप दिए जाने से पहले अल्पसंख्यक समुदाय की आशंकाओं को दूर किया जाना चाहिए.”

चूंकि, चौधरी को नीतीश कुमार का करीबी सहयोगी माना जाता है, इसलिए उनके बयान को जेडी(यू) और मुख्यमंत्री का आधिकारिक रुख माना गया.


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ललन सिंह द्वारा भेजे गए संदेश को कम करने के प्रयास में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ज़मा खान ने मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल स्थापित करने और वक्फ ज़मीन पर 21 नए मदरसे बनाने की योजना की घोषणा की.

बिहार जेडी(यू) के एक नेता ने दिप्रिंट को बताया, “नीतीश कुमार वैचारिक मुद्दों पर गठबंधन के साथ एक अच्छा संतुलन बनाए रखने और भाजपा के साथ गठबंधन के बावजूद अपने मूल निर्वाचन क्षेत्र से समझौता नहीं करने के लिए जाने जाते हैं. नीतीश की मुसलमानों के बीच गहरी साख है. वे किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय को गलत संदेश नहीं भेज सकते.”

विश्लेषकों का कहना है कि पार्टी के नेता अगले साल के अंत में होने वाले बिहार चुनावों और नीतीश कुमार की विरासत को ध्यान में रखते हुए अपना वर्चस्व दिखाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिन्होंने लगभग दो दशकों तक राज्य पर शासन किया है.

जदयू के एक नेता ने कहा, “चुनावों के करीब आने के साथ, एक समूह का सुझाव है कि भाजपा के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखना जेडी(यू) की संभावनाओं के लिए बेहतर है. एक अन्य खेमे का मानना ​​है कि चूंकि, भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं है, इसलिए जदयू को उन मुद्दों पर अपनी पहचान बरकरार रखनी चाहिए, जहां भाजपा चुनावी लाभ के लिए गलतियां करती है.”

“लेकिन इस बारीक रेखा के बीच उन नेताओं की महत्वाकांक्षा है, जो अपनी भविष्य की राजनीति को सुरक्षित करना चाहते हैं.”

हालांकि, नीतीश एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं, जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव सहित पार्टी के भीतर कई विरोधियों को दरकिनार किया है.

पिछले साल ललन सिंह ने नीतीश कुमार के साथ मतभेदों की अफवाहों के कारण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. पार्टी ने हालांकि, अफवाहों का खंडन किया था.

नीतीश ने जून में अपने भरोसेमंद सहयोगी और राज्यसभा सांसद संजय झा को जदयू का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया था, जिसका उद्देश्य विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी को मजबूत करना था.

विश्लेषकों का कहना है कि झा ही वो व्यक्ति हैं, जिन्होंने ललन सिंह के नेतृत्व में दोनों दलों के बीच संबंधों में आई खटास के बाद आम चुनावों से पहले भाजपा-जदयू गठबंधन की सुविधा प्रदान की थी.

चुनौतियों के बावजूद, बिहार के मुख्यमंत्री निश्चित रूप से किसी भी गठबंधन को बना या बिगाड़ सकते हैं क्योंकि कुर्मी-कुशवाहा मतदाताओं और अत्यंत पिछड़ी जातियों (ईबीसी) के अपने अनूठे सामाजिक गठबंधन के कारण राज्य में उनकी मजबूत पकड़ है, लेकिन, उन्हें हाल के हफ्तों में पार्टी के भीतर आई दरारों को दूर करना होगा.

त्यागी के इस्तीफे और वक्फ बिल की पहेली के अलावा, दूसरी घटना जिसने अंदरूनी कलह को खुले तौर पर सामने ला दिया, वो थी 22 अगस्त को जेडी(यू) की राज्य कार्यकारिणी सदस्यों की सूची.

कुछ ही घंटों के भीतर 251-सदस्यों की पहली सूची वापस ले ली गई और एक नई सूची घोषित की गई जिसमें राज्य कार्यसमिति के सदस्यों की संख्या घटाकर 115 कर दी गई.

ललन सिंह और बिहार के एक अन्य मंत्री अशोक चौधरी के कई समर्थकों को हटा दिया गया.

पार्टी ने इस कदम का बचाव करते हुए कहा कि इसने उन नेताओं को हटा दिया जो सक्रिय नहीं थे या जिनका प्रदर्शन लोकसभा चुनावों के दौरान असंतोषजनक था. इसने यह भी कहा कि नए चेहरों को शामिल करने के लिए यह बदलाव किया गया.

हालांकि, पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने कहा कि सूची में संतुलन लाने के लिए नेताओं को हटाया गया.

चौधरी ने जहानाबाद संसदीय सीट पर हार के लिए शक्तिशाली भूस्वामी उच्च जाति भूमिहारों को जिम्मेदार ठहराकर विवाद खड़ा कर दिया. पार्टी के उम्मीदवार चंदेश्वर चंद्रवंशी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सुरेंद्र यादव से हार गए.

जहानाबाद जिले में एक समारोह में चौधरी ने कहा कि नीतीश कुमार जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करते हैं और न ही जाति आधारित राजनीति करते हैं. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री ने भूमिहार बहुल गांव में सड़क भी बनवाई थी, लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी द्वारा अत्यंत पिछड़ी जाति (ईबीसी) से उम्मीदवार उतारे जाने के बाद समुदाय ने उनका साथ छोड़ दिया.

उन्होंने कहा, “जब चंद्रवंशी को बिहार में उम्मीदवार बनाया गया, तो भूमिहारों ने जेडी(यू) को वोट नहीं दिया. जब हम ईबीसी और पिछड़े वर्ग से उम्मीदवार उतारते हैं, तो भूमिहार उनका समर्थन नहीं करते.”

चौधरी के बयान पर जेडी(यू) के प्रवक्ता नीरज कुमार ने नाराज़गी जताई और एनडीए को भूमिहार समुदाय के समर्थन पर संदेह जताने के लिए उनकी आलोचना की.

कुमार ने कहा, “अशोक चौधरी ने जेडी(यू) में कोई योगदान नहीं दिया है और इस तरह की बेतुकी टिप्पणी करने के लिए उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए. नीतीश कुमार ने कभी जाति आधारित राजनीति नहीं की है और जेडी(यू) की सफलता हर जाति के समर्थन के कारण है.”

इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ने पर चौधरी को यह स्पष्ट करना पड़ा कि वे जाति को निशाना नहीं बना रहे थे. उन्होंने कहा कि उनकी बेटी की शादी भूमिहार परिवार में हुई है.

पार्टी भले ही मुद्दों पर बंटी हुई हो, लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि नीतीश कुमार एक चतुर खिलाड़ी हैं जो अपने विरोधियों को मात दे सकते हैं.

नीतीश के साथ काम करने वाले पूर्व भाजपा उपमुख्यमंत्री दिवंगत सुशील मोदी अक्सर कहा करते थे कि “नीतीश कुमार हमेशा अपने मौजूदा साथी को मात देने के लिए दो खिड़कियां खुली रखते हैं”.

पटना के ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डी.एम. दिवाकर ने कहा, “हो सकता है कि अंदरूनी कलह कुछ और भी हो, लेकिन आखिरकार नीतीश एक चतुर राजनेता हैं, जो इन सभी चालों को जानते हैं और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें रोक सकते हैं.”

जद(यू) के सांसद रामप्रीत मंडल ने दिप्रिंट से कहा कि त्यागी ने “अवांछित रुख अपनाया और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की संवेदनशीलता को जानते हुए भी ऐसा किया, लेकिन पार्टी में आखिरकार नीतीश जी के विचार ही चलेंगे. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे क्या सोचते हैं”.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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