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Friday, 20 September, 2024
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महिलाओं को ममता बनर्जी की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है, इसकी जिम्मेदारी उन्हीं पर है

महिलाएं केवल कोलकाता बलात्कार और हत्या मामले से उपजे आक्रोश पर निर्भर नहीं रह सकतीं. व्यवस्थित बदलाव लाने के लिए दीर्घकालिक समाधान की जरूरत है.

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पहली बार, मैं खुद को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद निरर्थकता बोध की भावना से ओत-प्रोत पाती हूं. ऐसा लगता है कि बोलने या लिखने से अब बदलाव लाने की ताकत नहीं रह गई है. यह जानकर कि मुझसे पहले भी महिलाएं चिल्ला चुकी हैं और मेरे बाद भी महिलाएं ऐसा करती रहेंगी, जबकि कई पीढ़ियों से अनगिनत महिलाएं पीड़ित बनी हुई हैं, मैं इतनी निराश हो जाती हूं कि मेरे मन में कागज पर कलम चलाने की प्रेरणा ही नहीं रह जाती.

लेकिन फिर मैं खुद को याद दिलाती हूं कि चाहे यह कितना भी बोझिल क्यों न लगे, यह समय की मांग है कि हम जो भी कर सकते हैं, वह करें. इस समय, मैं केवल अपनी आवाज उठा सकती हूं और मुझे जो मंच दिया गया है उसका उपयोग कर सकती हूं. खास तौर पर, जब हम हारे हुए और थके हुए महसूस करते हैं, तो हमें अपनी बात कहनी चाहिए – उस महिला के लिए जो इस वक्त पीड़ित है, न्याय की तलाश के लिए, और उन अनगिनत महिलाओं और नारीवाद के समर्थकों के लिए जिनकी लड़ाई ने आज समाज को बेहतर और हमारे लिए अधिक न्यायपूर्ण बनाया है.

कोलकाता बलात्कार और हत्या का मामला न केवल हमारे समाज के भीतर की गहरी खामियों को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सरकार और प्रशासन महिलाओं की सुरक्षा करने में कैसे विफल रहे हैं. राजनीतिक इच्छाशक्ति से लेकर नीतियों और सामाजिक सुधार तक कई मोर्चों पर काम किए बिना बदलाव नहीं लाया जा सकता.

एक भयावह सच्चाई

आप इस मामले की तह तक जितना ज्यादा जाएंगे, उतना ही आपको यह स्पष्ट हो जाएगा कि अस्पताल प्रशासन किसी भी कार्रवाई से बचने के लिए अपने किसी सदस्य की बलि देने को तैयार था. अस्पताल प्रशासन से लेकर पुलिस तक, किसी ने भी वैसा कुछ नहीं किया जैसा करना चाहिए था, लेकिन इस मामले ने पर्दा हटा दिया और हमें एक ऐसी भयावह सच्चाई की दुर्लभ झलक मिली, जो हम शायद ही कभी देख पाते.

लेकिन यह एक परेशान करने वाला पैटर्न दिखाता है. जब कोई मामला हाई-प्रोफाइल होता है, तो हमें इसके संबंध में ढेर सारी जानकारी मिलती है, आक्रोश दिखाई पड़ता है और कार्रवाई होते हुए दिखती है. लेकिन उन अनगिनत महिलाओं का क्या जो खबरों में नहीं आतीं? वे पीड़िताएं, जो पर्दे के पीछे रह जाती हैं, जिन्हें उपेक्षा और उदासीनता मिलती है, उनकी कहानियां अनकही रह जाती हैं और उनके दर्द को अनदेखा कर दिया जाता है. यह न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह सभी को सुरक्षा देने वाली बनी व्यवस्था में दिल तोड़ने वाला या निराशाजनक विश्वासघात है.

इससे भी अधिक निराशाजनक यह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, जो एक महिला हैं, न्याय देने के बजाय इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रही हैं. क्या यह समस्या को हल करने में उनकी अक्षमता को दर्शाता है, या क्या वह नैरेटिव को अपने पक्ष में करने को लेकर अधिक चिंतित हैं? ममता बनर्जी का सीएम होना यह दिखाता है कि सिर्फ़ इसलिए कि एक महिला सत्ता पर काबिज़ है, इसका मतलब यह नहीं है कि व्यवस्था बदल गई है. इससे केवल यह साबित होता है कि महिलाओं का हाशिए पर होना पुरुष बनाम महिला की बहस से परे है; एक महिला के सत्ता में होने के बावजूद वह भी उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को आगे बढ़ाने की भूमिका अदा कर सकती है. व्यवस्थित बदलाव के लिए सत्ता में एक महिला के होने से कहीं ज्यादा की आवश्यकता होती है.

हमें ममता बनर्जी से जवाबदेही की मांग करने में अथक प्रयास करना चाहिए; जिम्मेदारी उन्हीं पर है. हमें कठिन सवाल पूछते रहना चाहिए. हालांकि, हमें यहीं नहीं रुकना है. हमें एक समाज के रूप में खुद से भी ऐसे ही सवाल पूछने की ज़रूरत है, याद रखें कि महिलाओं की सुरक्षा में सिस्टम और शासन की विफलता सभी वैचारिक और राजनीतिक समूहों की ज़िम्मेदारी है इसका भार किसी अकेले पर नहीं है.

चुनावी हलफनामों के विश्लेषण से पता चलता है कि 151 मौजूदा सांसदों और विधायकों के ऊपर महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित मामले दर्ज हैं. हम केवल एक निर्मम मामले से पैदा हुई सक्रियता पर भरोसा नहीं कर सकते; व्यवस्थित परिवर्तन लाने के लिए दीर्घकालिक समाधान ही एक मात्र उत्तर है.

समस्या की जड़ हमारे समाज और उसके मूल्यों में है. ऐसी घटनाओं के बाद महिलाओं के मन में काफी व्यापक स्तर पर और वास्तविक चिंता होती है. फिर भी यह इतना सामान्य हो गया है कि समाज पुरुषों की तुलना में महिलाओं द्वारा सार्वजनिक जीवन में झेले जाने वाले इस तरह के अतिरिक्त तनाव को स्वीकार करने में विफल रहता है. मुझे याद है कि कैसे मेरी बहन, जो कभी इंश्योरेंस सेक्टर में काम करती थी, उसे इतने खराब अनुभव हुए कि उसने नौकरी छोड़ के शादी कर ली और उसका करियर वहीं रुक गया. सालों बाद जाकर कहीं उसने घर पर रहकर काम करने वाली नौकरी ढूंढी और फिर से काम करना किया.

यथास्थिति को बिगाड़ने की ज़रूरत

इस तरह की घटनाएं न केवल महिलाओं के जीवन के विकल्पों को प्रभावित करती हैं, बल्कि हमारे जीवन और समाज में अक्सर सुरक्षा की आड़ में पुरुषों को महिलाओं पर नियंत्रण करने के लिए और भी कारण मुहैया कराती हैं. यह डायनमिक्स पहले से ही भारत में कार्यबल में महिलाओं की घटती भागीदारी में योगदान दे रही है. इसके अलावा, यौन उत्पीड़न की शिकार हुई महिलाओं के लिए इससे भी ज्यादा पीड़ाजनक बात है समाज द्वारा उन्हें गिरी नज़र से देखा जाना. अनगिनत बार, पीड़िता चुप रहती है, यह सोचकर कि लोग उसके बारे में लोग क्या सोचेंगे और यह तथाकथित कलंक उसके परिवार पर प्रभाव डाल सकता है. यह डर अक्सर उसे बोलने और वह सब भूलने में, जो उनके साथ हुआ, रोकता है.

जहां हम अपनी बेटियों का पालन पोषण इस तरह से करते कि वे सशक्त बनें, वहीं हमें अपने बेटों का भी अलग तरीके से पालन-पोषण करने की ज़रूरत है. कोई भी यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि बलात्कार और बलात्कार की संस्कृति के बारे में बातचीत अक्सर पुरुषों की वासना के इर्द-गिर्द घूमती है, न कि उनके द्वारा अपनी शक्ति को किसी पर थोपने या किसी पर हावी होने के रूप में. यह व्याख्या बताती है कि पुरुष जन्मजात शारीरिक जरूरतों के कारण खुद को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, और महिलाओं को उन्हें उकसाना नहीं चाहिए. यह एक हद तक महिलाओं पर उनके दोषी होने का आरोप है और सूक्ष्म रूप से महिलाओं के शरीर पर पुरुषों द्वारा महसूस किए जाने वाले अधिकार व उनकी इच्छाओं की वजह से उनके द्वारा उठाए गए ऐसे कदमों का समर्थन करता है.

अंत में, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें महिलाओं के रूप में एक वोट बैंक या राजनीतिक शक्ति बनने की ज़रूरत है जिसे राजनीतिक दल नज़रअंदाज़ न कर सकें, क्योंकि यह सुनिश्चित करने का एक मात्र तरीका यही हो सकता है कि हमारे मुद्दों को प्राथमिकता दी जाए. हम बेटियां, बहनें और मां रही हैं; अब समय आ गया है कि हम खुद को एक व्यक्ति के रूप में आगे लाएं, अपनी ज़रूरतों को उन भूमिकाओं से ज़्यादा प्राथमिकता दें जो समाज हमसे निभाने की अपेक्षा करता है. हमें एक वर्ग के रूप में सामूहिक रूप से अपनी आवाज़ उठानी चाहिए और अपने से जुड़े पुरुषों के विशेषाधिकारों पर निर्भर रहने के बजाय, जो हमारा अधिकार है उसे पाने के लिए अपनी सामूहिक शक्ति पर भरोसा करना चाहिए.

हां, वे हमारे सहयोगी हैं, लेकिन यह हमारी लड़ाई है, और वे हमारे साथ शामिल ज़रूर हो सकते हैं, लेकिन वे हमें निर्देश देने वाले नहीं होने चाहिए. इसी तरह, कोई गलती न करें, जो महिलाएं ऐसी स्त्री-विरोधी व्यवस्था को जारी रखने का काम करती हैं, वे हमारी विरोधी हैं.

महिलाओं को साहसी होना चाहिए और अपनी लड़ाई का डटकर सामना करना चाहिए; सभी बदलाव शांतिपूर्ण तरीके से नहीं आते हैं. कभी-कभी, यथास्थिति को बिगाड़ना या बाधित करना आवश्यक होता है. यदि आप मानती हैं कि मताधिकार आंदोलन की सफलता केवल शांतिपूर्ण विरोध के कारण थी, तो आप गलत हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनों का इसमें जितना योगदान था उतना ही योगदान साहसिक कदमों का भी था.

उदाहरण के लिए, 1908 में, महिला सामाजिक और राजनीतिक संघ ने हाउस ऑफ कॉमन्स पर धावा बोलने के प्रयास में 60,000 लोगों को इकट्ठा किया. यह केवल वोट देने का अधिकार हासिल करने के लिए किए गए संघर्षों की एक कठोर याद दिलाता है. अगर हमें त्याग करना सिखाया गया है, तो अब आगे बढ़ने और अपनी बात सुनाने का समय है. यह बदलाव वास्तविक परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण है, जो कि हमें उन नीतियों को प्रभावित करने की शक्ति प्रदान करेगा जो हमारे जीवन पर सीधे असर डालती हैं.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी न्यूज़ पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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