राजनीति के पेंचों को समझने के लिए अक्सर हम क्रिकेट के खेल में उभरने वाली स्थितियों का उदाहरण देते रहे हैं. लेकिन फिलहाल तो ओलंपिक और यूरो-2024 का मौसम चल रहा है. इसलिए फुटबॉल और हॉकी से उपमाएं लेना उचित होगा. सो, हम यह देखेंगे कि हॉकी या फुटबॉल के खेल में आने वाले दिलचस्प मोड़ों के उदाहरण किस तरह हमारी राष्ट्रीय राजनीति में आने वाले मोड़ों पर लागू होते हैं, जिनके संकेत संसद के इस मॉनसून/बजट सत्र में मिले हैं.
याद कीजिए कि इस ओलंपिक में हॉकी के क्वार्टर फाइनल मैच में 42 मिनट तक भारत किस तरह ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ 10 खिलाड़ियों के साथ खेला. इसका फायदा उठाकर ग्रेट ब्रिटेन भारत पर लगातार जम कर हमले करता रहा, जबकि भारत अपने खिलाड़ियों को अग्रिम मोर्चे पर बनाए रखने के लिए संघर्ष करता रहा. लेकिन कभी-कभी जैसा वे खेल दिखाते रहे हैं, खेल को उन्होंने नाटकीय मोड़ दे दिया. इसे लंबे समय तक बिल्कुल बचाव (इस मामले में दीवार बनकर खड़े थे शानदार गोलकीपर पी.आर. श्रीजेश) के लिए मजबूर किए जाने पर जवाबी हमले की मिसाल कहा जाता है. आज राष्ट्रीय राजनीति में भी यही हो रहा है.
4 जून ने यह साफ कर दिया था कि 2024 के आम चुनाव ने राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण को बदल दिया है. एक दशक से भारी दबाव और नाउम्मीदी झेल रहे पूरे विपक्ष ने बड़ी मेहनत से जवाबी हमला करने का मौका बना लिया है. वैसे, व्यापक तौर पर यह उम्मीद भी नहीं की जा रही थी कि जवाबी हमला करने की ताकत इतनी मजबूत हो जाएगी कि विजेता अपने इरादे और अपनी चालें बदल देगा.
लेकिन यह जरूर हुआ कि जिस राहुल गांधी का इतना मखौल उड़ाया गया जितना हमारे इतिहास में दूसरे किसी नेता का नहीं उड़ाया गया होगा, उन्हें आज बिल्कुल दूसरी नजर से देखा जा रहा है.
अब निष्पक्ष होकर यह देखें कि क्या कुछ हो रहा है. काँग्रेस पार्टी ने इस चुनाव अभियान में जो विचार और मुद्दे उभारे उनकी एक सूची यहां दी जा रही है—
< युवाओं में बेरोजगारी बढ़ी है, ज्यादा रोजगार पैदा करने के लिए सब्सिडी दी जाए और प्रशिक्षण की योजना बनाई जाए.
< गरीबों, बेरोजगारों और किसानों को नकदी भुगतान के जरिए मदद की जाए.
< सभी बड़ी फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए और किसानों के कर्ज माफ किए जाएं.
< अग्निपथ योजना पर सवाल खड़े किए.
< राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना करवाई जाए और उसके आधार पर हर एक वर्ग को उसकी संख्या के अनुपात में सरकारी लाभ और सहायता दी जाए.
इनमें से कई मुद्दों को भाजपा ने झूठ बताकर खारिज कर दिया. जाति संबंधी सभी मसलों से कन्नी काट ली और जवाब में हिंदू भावनाओं को उभारने की कोशिश की.
वास्तव में, काँग्रेस के जातीय जनगणना और वितरणवादी समाजवादी नजरिए को ‘रेवड़ी’ बताकर उपेक्षित कर दिया गया. सीधे शब्दों में कहें तो यह कहा गया कि काँग्रेस मुफ्त के प्रलोभन देकर वोट खरीदना चाहती थी. अब हम यह देखें कि इन दिनों क्या-क्या होता रहा है.
मोदी की तीसरी सरकार ने राहुल/काँग्रेस के जिन विचारों को बेमानी और मज़ाक बताकर खारिज कर दिया था उससे वह तुरंत पलट गई और उनमें से कई को अब लागू करने में जुट गई है. उदाहरण के लिए—
< बेरोजगारी की चुनौती से निपटने के लिए बजट में काफी आवंटन और वादे किए गए हैं. ज्यादा रोजगार देने वाली कंपनियों के लिए प्रोत्साहनों की घोषणा की गई है, और अगले पांच वर्ष में 1 करोड़ युवाओं के लिए प्रशिक्षण (इंटर्नशिप) की योजना घोषित की गई है.
भाजपा शासित राज्यों में, खासकर उनमें जहां चुनाव होने वाले हैं, कृषि एमएसपी का विस्तार किया जा रहा है. उदाहरण के लिए, हरियाणा की सरकार ने सभी 24 बड़ी फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की है जबकि वहां अभी तक 14 फसलों के लिए ही एमएसपी दी जाती थी.
< अखबारों में इन दिनों पूरे पन्ने के विज्ञापनों पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि हरियाणा में किस तरह रेवड़ियां घोषित की जा रही हैं. 46 लाख परिवारों को मात्र 500 रुपये में एलपीजी सिलिन्डर से लेकर स्कूली लड़कियों को मुफ्त में दूध देने, और नहरों से मिलने वाले पानी पर से अधिभार समाप्त करने की घोषणाएं की गई हैं.
< और तो और, जिन परिवारों की वार्षिक आमदनी 1 लाख रुपये तक है उनके सभी सदस्य महीने में 1,000 किमी तक मुफ्त में बस यात्रा कर सकते हैं. भाजपा दिल्ली, कर्नाटक, और तेलंगाना में ऐसे कार्यक्रमों की खिल्ली उड़ाया करती थी. ये सब ‘रेवड़ी’ की उसकी परिभाषा में आते थे.
< हरियाणा ने ओबीसी की अपनी परिभाषा में ‘क्रीमी’ तबके की आय सीमा प्रति वर्ष 6 लाख रुपये से बढ़ाकर 8 लाख रु. कर दी है.
हरियाणा के लिए तो इस तरह हिसाब जमा लिया गया, महाराष्ट्र के लिए जो कुछ किया गया है वह और ज्यादा काबिल-ए-गौर है. उसके लिए अब तक जितनी ‘रेवड़ियों’ की घोषणा की जा चुकी है उनके लिए हर साल कम-से-कम 96,000 करोड़ रु. की जरूरत पड़ेगी. उनके कुछ उदाहरण—
< एक आय सीमा के नीचे की महिलाओं, युवाओं, वरिष्ठ नागरिकों और वरकरी संप्रदाय (भक्ति पंथ के करीब 16 लाख जातिविहीन लोगों) को नकदी भुगतान और सब्सिडी दी जाएगी. वरकरियों को उनकी वार्षिक पंढरपुर तीर्थयात्रा के लिए सब्सिडी दी जाएगी. अब इंतजार कीजिए कि उत्तर प्रदेश के 2027 के चुनाव के मद्देनजर योगी कांवड़ियों के लिए कब ऐसी कोई घोषणा करते हैं.
< ढाई लाख रु. से कम की वार्षिक आय वाली 21-65 आयु वर्ग की महिलाओं को हर महीने 1,500 रु. का वजीफा दिया जाएगा. अकेले इस कार्यक्रम के लिए 46,000 करोड़ रु. की जरूरत पड़ेगी.
< बारहवीं पास युवाओं, डिप्लोमाधारकों और ग्रेजुएट युवाओं को प्रशिक्षण तथा हुनर सीखने के लिए छह महीने के लिए क्रमशः 6,000, 8,000 और 10,000 रु. के वजीफे दिए जाएंगे.
< पांच सदस्यों वाले हर परिवार को हर साल एलपीजी के तीन सिलिंडर मुफ्त दिए जाएंगे.
मेरा ख्याल है कि ये सब इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि एक दशक तक बचाव के लिए मजबूर रहा विपक्ष ही फिलहाल एजेंडा तय कर रहा है. ऐसे बंटवारे का मखौल उड़ाने वाली भाजपा ही अब ‘रेवड़ी लो, वोट दो’ वाली पार्टी बन गई है. दब्बू ने दमदार को अपना नजरिया बदलने को मजबूर कर दिया है.
अगर आपको यह लग रहा हो कि ये तमाम बातें चुनाव के मौके को देखकर की गई अतिशयोक्ति है, तो हम अपनी राजनीति के और अधिक ठोस, मजबूत—वास्तव में, शाश्वत—वैचारिक मुद्दे को उठा सकते हैं. और तब हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि क्या यह तर्क इस पर भी लागू होता है या नहीं, कि दमदार पक्ष बचाव की मुद्रा में गया है या नहीं.
1989 से, ये दो सवाल यह तय करते रहे हैं कि भारत पर कौन राज करेगा— एक यह कि धर्म ने जिन्हें एकजुट किया था उन्हें बांटने के लिए क्या जाति का इस्तेमाल किया जा सकता है? दूसरा यह कि जाति ने जिन्हें बांट दिया उन्हें एकजुट करने के लिए क्या धर्म का इस्तेमाल किया जा सकता है? हम यह कहते रहे हैं कि शुरू के 25 वर्षों तक तो जाति जीतती रही. लेकिन नरेंद्र मोदी के उभार ने तमाम जातिगत विभाजनों के ऊपर व्यापक हिंदू वोट को एकजुट कर दिया. यह हिंदुत्व के युग की शुरुआत थी.
राहुल गांधी ने जातीय जनगणना के नारे के साथ इसे फिर से चुनौती दे दी. इस मुद्दे को उन्होंने संसद के अंदर ला दिया और ज़ोर देकर कहा कि उनकी पार्टी “इसी संसद के जरिए” जातीय जनगणना जरूर करवाएगी.
जाति के मुद्दे का जवाब देने के लिए भाजपा के पास विचारों की कमी है इसलिए वह धर्म के मुद्दे पर ही ज़ोर देती रहती है. वक़्फ़ को लेकर नया विधेयक, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का ‘जमीन जिहाद’ का नारा, ‘लव जिहाद’ के लिए उम्रक़ैद की सज़ा दिलाने का कानूनी संशोधन लाने का योगी का प्रस्ताव, एक समुदाय को अपनी जनसंख्या वृद्धि पर रोक न लगाने का राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा का आरोप— ये सब बचाव की ही स्वतःस्फूर्त चालें हैं.
मैं इसे उलझन बताता हूं क्योंकि आम चुनाव में इन्हीं चालों का इस्तेमाल किया गया और वे नाकाम रहीं. भाजपा अब फिर से जाति के मसले से जूझ रही है. जातीय जनगणना तो दूर, वह हर दस साल पर होने वाली उस सामान्य जनगणना की बात भी नहीं कर रही है, जो 2021 में होनी चाहिए थी.
पिछड़े वर्गों के उप-वर्गीकरण की बात खुद भाजपा ने उठाई थी और इस मसले की जांच के लिए दिल्ली हाइकोर्ट की सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया था. उस आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. सरकार अगर उप-वर्गीकरण की ओर कदम बढ़ाती है तो जातीय जनगणना जरूरी हो जाएगी. यह राहुल गांधी की एक और जीत होगी. सरकार अगर जातीय जनगणना नहीं करवाती है तो जातियों के आधार पर हिंदू वोटों के विभाजन में फिर तेजी आएगी. विपक्ष किसी हिंदी प्रदेश में सत्ता में नहीं है इसलिए वह इंतजार ही कर सकता है.
यह मुद्दा चुनावों के दौरान इतना बड़ा मसला बन गया था कि भाजपा अब संविधान संशोधन करने का हल्के से कोई जिक्र तक नहीं कर सकती. वह बढ़त ले चुकी टीम तो है लेकिन बचाव के लिए मजबूर होकर विकल्पों की तलाश में जुटी है, जबकि चुनौती देने वाला पक्ष पूरा दबाव बनाए हुए है.
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