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Wednesday, 20 November, 2024
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मुसलमानों को नरेंद्र मोदी के वादों को किस तरह देखना चाहिए?

अगर अल्पसंख्यक खुले मन से सरकार के साथ बातचीत और संवाद में जाते हैं तो इसके बाद का दारोमदार बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी पर होगा कि संसद के सेंट्रल ह़ॉल में कही गई अपनी बातों और वादों पर खरे उतरें.

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इस लेख का आधार 25 मई 2019 को नरेंद्र मोदी द्वारा एनडीए संसदीय दल की मीटिंग के दौरान संसद के सेंट्रल हाल में दिया गया भाषण है जिसमें उन्होंने अल्पसंख्यकों के सम्बन्ध में अपना नज़रिया पेश किया. उन्होंने संविधान को गवाह बनाते हुए बहुत सारी योजनाओं और भविष्य के सफर की रूप रेखा भी प्रस्तुत की.

उन्होंने कहा कि ‘जैसा छल देश के गरीबों के साथ हुआ वैसा ही छल इस देश के माइनॉरिटीज़ के साथ हुआ है. दुर्भाग्य से माइनॉरिटीज़ को छलावे में भ्रमित रखा गया हैभयभीत रखा गया है.अच्छा होता उसकी शिक्षा की चिंता होती.अच्छा होता उसमें सामाजिक स्तर के भिन्न-भिन्न क्षेत्र के लीडर पैदा होते.अच्छा होता समाज के अन्य वर्ग के बराबरी में उनका आर्थिकसामाजिक विकास होता लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने एक छलावाएक काल्पनिक भय और एक काल्पनिक वातावरण और डर का माहौल पैदा करके उन्हें दूर भी रखादबा कर भी रखा और सिर्फ चुनाव में उपयोग करने का खेल चला.’

उन्होंने आगे कहा कि ‘आज संविधान के सामने सर झुका कर जब आपके सामने खड़ा हूं तो आपसे आग्रह करता हूं कि हमें इस छल को विच्छेद करना है. हमें विश्वास जीतना है. जो हमें वोट देते हैं वह भी हमारे हैं और जो घोर विरोधी हैं वह भी हमारे हैं. पंथ के आधार परजाति के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिये. हम उनको हैंडओवर करके बैठे रहें यह मंज़ूर नहीं है. हम चुप रहते हैं वह इसी का फायदा उठा रहे हैं और इसलिये हम इस जिम्मेवारी को उठायेंगे.’


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अब मोदी जी के भाषण का सिलसिलेवार जायज़ा लिया जाये. उनका पहला दावा है कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग ‘वोट बैंक’ के तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं. इस बात में  सच्चाई है. इसके पक्ष में एक से ज़्यादा दलील मौजूद है. अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि मुस्लिमों ने हमको वोट नहीं दिया और कांग्रेस की तरफ चले गये. यहां केजरीवाल को इसी बात का अफसोस है कि मुसलमानों ने एकमुश्त आम आदमी पार्टी को वोट क्यों नहीं दिया. यहां उनके दिमाग में मुस्लिम वोट बैंक ही है. मायावती भी पहले ऐसी बात मुसलमानों के बारे में कह चुकी हैं.

भारतीय राजनीति की औसत समझ रखने वाला आदमी भी यह जानता है कि अल्पसंख्यकों में वोट बैंक कौन सा धार्मिक समूह बना दिया गया है. यह तबका मुसलमानों का है2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल आबादी में मुसलमानों की संख्या 14.2 प्रतिशत है. नरेंद्र मोदी अल्पसंख्यकों की बात करते हुए जिस समूह के वोट बैंक बन जाने की ओर इशारा कर रहे हैं, वह यही समुदाय है. यही वह समुदाय है, जिसकी सरकारी सेवाओं में उपस्थिति आबादी के अनुपात में काफी कम है और जिसके बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने एक पूरी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी.  

अन्य अल्पसंख्यकों के सवाल

सवाल उठता है कि देश में कई और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय हैं. लेकिन वोट बैंक की बात सिर्फ मुसलमानों के बारे में क्यों कही जाती है. मिसाल के तौर पर, देश में सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, भी हैं. लेकिन इन अल्पसंख्यक वर्गों को किसी विशेष दल या दलों का वोट बैंक कहना आसान नहीं है. हरअल्पसंख्यक समूह की अपनी पहचान होती है और इसके बनने का एक सफर होता है. इस दरमियान शिनाख्त के पैमाने उभरते हैं और बड़े फ़लक पर इन वर्गों के हक में जो भी फलदायी नज़र आता है, उनके साथ इनके संबंध बनते हैं. मुसलमानों से इतर जितने भी अल्पसंख्यक समूह हैं उनके संबंध राजनीतिक दलों से इसी आधार पर नए रूप लेते रहे हैं. अल्पसंख्यकों में से एक धार्मिक समूह सिखों के राजनीतिक व्यवहार को देखें तो ये बात स्पष्ट तौर पर नजर आती है.

क्या सिखों को किसी दल विशेष या विचारधारा का वोट बैंक कहा जा सकता है? इसका जवाब नहीं में मिलेगा. अकाली दल को आम तौर पर सिख समुदाय के हितों का ध्यान रखने वाला दल समझा जाता है. शायद इसी कारण से अकाली नेतृत्व अविभाजित भारत के पंजाब राज्य में यूनियनिस्ट नेता सिकंदर हयात खान और खिज्र हयात खान की सरकारों के साथ था. आजाद भारत में सिख समुदाय अपनी हित और सुविधा के हिसाब से कभी अकाली तो कभी कांग्रेस के साथ जुड़े रहे लेकिन किसी के साथ बंधे नहीं रहे. बीजेपी के साथ अकाली दल को गठबंधन करने में कभी कोई हिचक नहीं हुई, जबकि एक दौर में बीजेपी और अकाली दल में काफी दूरी थी. इस मामले में सिख समुदाय काफी गतिशील साबित हुआ है. 

सवाल उठता है कि देश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक अर्थात मुस्लिमों ने वोटबैंक का टैग अपने साथ क्यों नत्थी कर लिया? किन परिस्थितियों में इस समुदाय ने वोट बैंक बनना शुरू कियाइसकी एक व्याख्या हो सकती है कि इस समुदाय के प्रभावशाली लोगों ने समुदाय के हितों के साथ चलने की जगह समुदाय के हितों को किसी दल के पास गिरवी रख दिया. इस प्रक्रिया में हर स्तर पर कुछ ऐसे लोग उभरते गये जिनको इस बात का घमंड था कि वह समुदाय के माई-बाप हैं. इस समुदाय में आयातित लीडरों की भरमार और सही नेतृत्व के नहीं होने का सीधा संबंध बरसों से जारी इसी ठेकेदारी प्रथा से है.


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नरेंद्र मोदी के साथ भविष्य का सफर

यूपीए के शासन कल में एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि राज्य के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है. इस बयान के बाद आरोप-प्रत्यारोप का एक लंबा दौर चला था. अल्पसंख्यकों ने सरकार के इस विचार का स्वागत किया था. इस बयान से अल्पसंख्यकों के अंदर आशा और सकारात्मकता का संचार हुआ. यहां ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि उसी आशा और सकारात्मकता को मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान में क्यों नहीं देखा जाए. उन्होंने इस समुदाय के हितों की अनदेखी पर चर्चा करते हुए अपनी सरकार द्वारा सकारात्मक पहल किए जाने का इशारा किया.

लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में कोई भी सरकार देश के सभी वर्गों की नुमाइन्दगी करती है. यहां किसी भी समुदाय के हितों का पूरा होना बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उनका संबंध सत्ताधारी दल के साथ कैसा है. ऐसी व्यवस्था में समूहों या समुदायों की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि अपनी मांगो और सुझावों को सरकारों तक पहुंचाया जाए और सरकार के साथ विचार-विमर्श पर आधारित संबंध स्थापित किया जाए.

मोदी का भाषण और संभावनाओं का सफर

यह सही है कि बीजेपी को लेकर मुसलमानों के मन में आशंकाएं हैं और इसके वाजिब कारण हैं. लेकिन अब जबकि तय हो चुका है कि अगले पांच साल तक केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार रहेगी, तो उससे संवाद करने में कोई बुराई नहीं है. अगर अल्पसंख्यक खुले मन से सरकार के साथ बातचीत और संवाद में जाते हैं तो इसके बाद का दारोमदार बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी पर होगा कि संसद के सेंट्रल ह़ॉल में कही गई अपनी बातों पर खरे उतरें. सरकार के लिए इस दिशा में सबसे जरूरी है कि देश में कानून का राज कायम रहे और हिंसा और भय का माहौल बनाने वालों पर नियंत्रण रखा जाए.

इस समय जरूरी है कि सरकार की घोषणाओं और उसके अमल पर नजर रखी जाए और जहां आवश्यक हो, वहां सरकार को जरूरी सुझाव दिए जाएं.

यह अल्पसंख्यकों के वोट बैंक से नागरिक बनने की यात्रा की शुरुआत हो सकती है. 

(लेखक भारतीय भाषा केंद्र जेएनयू में शोधार्थी हैं.)     

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