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Friday, 22 November, 2024
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SC के फैसले ने मुस्लिम महिलाओं को तलाक की अर्ज़ी डालने का अधिकार दिया, लेकिन कितनी महिलाएं ऐसा करेंगी

जब तक हम मूल कारण, जो कि व्यक्तिगत नागरिक संहिता है पर बात नहीं करेंगे, मुस्लिम महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाएगा.

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अब्दुल समद मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने, जिसमें उसने गुज़ारा भत्ता के खिलाफ उस याचिका को खारिज कर दिया और उनकी पूर्व पत्नी को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के तहत गुज़ारा भत्ता का अधिकार दिया, मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता पर फिर से बहस छेड़ दी है और यह सही भी है. इस पहल से अदालत ने उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि के बावजूद उन्हें उपलब्ध कानूनी सुरक्षा की पुष्टि की है.

यह फैसला अचानक बहस का केंद्र बन गया क्योंकि इसने भारतीयों को शाह बानो मामले की याद दिला दी, जो भारतीय कानूनी और राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था. गुज़ारा भत्ता के लिए बानो की लड़ाई ने अदालत की जीत का मार्ग प्रशस्त किया और उन्हें उसी धारा के तहत गुज़ारा भत्ता दिया गया. हालांकि, भारत सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया, जिसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रभाव को कम कर दिया.

इसलिए, स्वाभाविक रूप से इस फैसले ने राहत और उम्मीद के साथ-साथ नई जिज्ञासा की लहर पैदा की है. अब, बदलाव और अटकलों की फुसफुसाहट हवा में गूंज रही है — क्या कानून बदल गए हैं या क्या अतीत अभी भी वर्तमान की गूंज सुनाई दे रही है?

संहिताबद्ध कानून नहीं

हालांकि, यह फैसला लैंगिक समानता सुनिश्चित करने और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में एक बहुत ही स्वागत योग्य कदम है, खासकर 2017 के तीन तलाक के फैसले के बाद, यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि सीआरपीसी की धारा-125 किसी भी आश्रित को वित्तीय सहायता प्रदान करती है, जिसमें पत्नी, बच्चे, माता-पिता या संकट में अन्य आश्रित शामिल हो सकते हैं — न कि केवल मुस्लिम तलाकशुदा. साथ ही, यह पहली बार नहीं है जब अदालत ने मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में फैसला सुनाया है. शाह बानो मामले के बाद, अदालत ने डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले और शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान मामले में मुस्लिम महिलाओं के लिए गुज़ारा भत्ता के अधिकार को बरकरार रखा था.

हालांकि, यह स्पष्ट है कि धारा-125 मुस्लिम महिलाओं को उनके वित्तीय गुज़ारे भत्ते की रक्षा के लिए कानूनी सहारा प्रदान करती है, लेकिन यह एक संहिताबद्ध व्यक्तिगत कानून नहीं है जो तलाक के मामलों में समुदाय की सभी महिलाओं पर स्वचालित रूप से लागू होता है. मुस्लिम महिलाएं जो व्यक्तिगत कानून का पालन करना चाहती हैं और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के अनुसार केवल इद्दत अवधि के दौरान गुज़ारा भत्ता लेना चाहती हैं, वे ऐसा कर सकती हैं और जो उस अवधि से परे गुज़ारा भत्ता चाहती हैं, वे फैसले के लिए अदालत जा सकती हैं. यह एक विकल्प है, लेकिन मानक प्रक्रिया नहीं है.


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एक ज़रूरी सवाल

मेरा मानना है कि गुज़ारा भत्ता का प्रावधान बहु-विवाह पर कुछ सीमाएं लगाकर भारतीय मुस्लिम महिलाओं को सुरक्षा की एक और परत प्रदान कर सकता है. चूंकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत अभी भी बहुविवाह की अनुमति है, इसलिए जिन महिलाओं के पति दूसरी शादी करते हैं, उनके पास अक्सर अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वित्तीय साधन नहीं होते हैं, जिससे उन्हें कठिनाई सहनी पड़ती है, लेकिन अलग होने के बाद भी गुज़ारा भत्ता लेते रहने का मौका इन महिलाओं को परिणामों की चिंता किए बिना तलाक के लिए आवेदन करने के लिए प्रोत्साहित करेगा. पुरुष यह भी समझेंगे कि वे अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर उसे ज़िम्मेदारियों से वंचित नहीं कर सकते, भले ही वे दूसरी शादी कर लें.

यहां एक ज़रूरी सवाल है: कितनी महिलाएं इतनी साहसी, इतनी जागरूक होंगी या यहां तक कि अपनी खुद की एजेंसी भी रखेंगी कि वे अपने परिवार के समर्थन के बिना और सामाजिक दबाव के विरुद्ध न्यायालय में जाकर अपने पूर्व पति से गुज़ारे भत्ते का दावा कर सकें, जब उन्हें लगे कि यह व्यक्तिगत कानूनों के विरुद्ध है? हमने शाह बानो मामले को देखा है और कैसे इसने रूढ़िवादियों और कट्टरपंथियों को उकसाया. यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, जो उस समय भारत के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे, ने एक गरीब, असहाय बुजुर्ग महिला को उसके अधिकार छोड़ने पर मजबूर कर दिया. मुझे हर बार यह सोचकर दुख होता है कि कैसे सबसे शक्तिशाली भारतीय पुरुष एक महिला की रक्षा नहीं कर सके और कैसे उसके साथ खड़े होने के बजाय कट्टरपंथियों के सामने झुक गए.

खैर, शुरुआती बिंदु पर लौटते हैं: ऐसे समाज में जहां ऐसी मानसिकता व्याप्त है, कितनी महिलाएं और उनके परिवार अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की हिम्मत करेंगे? क्या यह कोई समाधान हो सकता है?

वास्तविक समाधान

गुज़ारा भत्ता एक पारिवारिक दीवानी मामला है, जहां अक्सर पर्सनल लॉ लागू होता है. CrPC की धारा-125, एक आपराधिक प्रावधान, पर्सनल लॉ से उत्पन्न होने वाले विवादों को दरकिनार करता है और महिलाओं को न्याय पाने का मौका देता है. जब तक हम मूल कारण, जो कि व्यक्तिगत सिविल कोड है पर बात नहीं करते हैं, तब तक कई महिलाएं को न्याय नहीं मिल पाएगा. कानूनी उपायों के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना वैकल्पिक नहीं होना चाहिए. हालांकि, यह फैसला सकारात्मक कदम है, लेकिन यह भेदभाव का वास्तविक समाधान नहीं है. हमें भारतीय महिलाओं के कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने की आवश्यकता है, चाहे उनकी पृष्ठभूमि और धर्म कुछ भी हो.

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कि 1986 का अधिनियम और CrPC की धारा-125 के तहत गुज़ारा भत्ता उनके संबंधित अधिकार क्षेत्र में एक साथ रह सकते हैं, एक स्पष्ट संदेश देता है: मुस्लिम पुरुष गुज़ारा भत्ता प्रदान करने से खुद को मुक्त करने के लिए पर्सनल लॉ का हवाला देकर अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटा सकते, जैसा कि इस मामले में याचिकाकर्ता तर्क दे रहे थे. यह फैसला इस सिद्धांत को कायम रखता है कि पर्सनल लॉ धर्मनिरपेक्ष CrPC के तहत गुज़ारा भत्ता देने के कानूनी दायित्वों को प्रभावित नहीं कर सकते, जिससे धर्मनिरपेक्ष कानून की प्रधानता की पुष्टि होती है. इससे मुझे भविष्य के लिए उम्मीद जगी है — कि किसी दिन, हम हर भारतीय महिला के लिए लैंगिक समानता और समानता पर आधारित कानून देखेंगे. तब तक, इस तरह के फैसले बहुत ज़रूरी सुरक्षा प्रदान करते हैं और महिलाओं के अधिकारों को बनाए रखने में धर्मनिरपेक्ष कानून की उपयोगिता को मजबूत करते हैं.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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