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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमत‘जय भीम, जय संविधान’: वह नारे जो गैर-दलितों से दूर थे, अब संसद में गूंज रहे हैं

‘जय भीम, जय संविधान’: वह नारे जो गैर-दलितों से दूर थे, अब संसद में गूंज रहे हैं

आंबेडकर के करीबी रहे दलित नेता बाबू हरदास लक्ष्मणराव नागरले द्वारा बनाए गए ‘जय भीम’ नारे ने कई दलित दलों का उत्कर्ष और पतन देखा और अब इसे गैर-दलित सांसद उस लोकसभा में उठा रहे हैं जिसमें बसपा का कोई सदस्य नहीं है.

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इस साल जनवरी में उत्तर प्रदेश के नरौली में एक स्कूल में एक दलित छात्र ने गणतंत्र दिवस का अपना भाषण जब ‘जय भीम, जय भारत’ के नारे के साथ समाप्त किया तो उसके दो साथियों ने उसे पीट दिया. मई में मध्य प्रदेश के शहडोल में ऊंची जातियों के लोगों ने एक दलित युवक चंद्रशेखर साकेत से मारपीट कर डाली क्योंकि उसने ‘जय भीम, जय बुद्ध’ का नारा लगाया था. उसकी हत्या तक करने की धमकी दी गई.

केवल जय भीम बोलने पर दलितों की पिटाई और हत्या भारत की एक दुखद सच्चाई रही है भारत की एक दुखद सच्चाई है. 24 जून को तो एक अभूतपूर्व घटना ही घट गई. नवनिर्वाचित सांसद जब नई संसद में शपथ ले रहे थे तब “जय भीम” का नारा सदन में गूंज उठा. करीब दो दर्जन सांसदों ने संविधान की एक प्रति हाथ में लेकर अपना शपथग्रहण “जय भीम” (भीम यानी बाबासाहब भीमराव आंबेडकर) और “जय संविधान” के नारों के साथ समाप्त किया. इनमें कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), विदूतलाई चिरुतेगल कात्ची (वीसीके, पूर्व दलित पैन्थर्स), आज़ाद समाज पार्टी (एएसपी) के दलित, मुस्लिम, ओबीसी, और जनजातीय सांसद शामिल थे.

उल्लेखनीय बात यह है कि न केवल गैर-दलित सदस्य “जय भीम” का नारा लगा रहे थे, बल्कि यह सब तब हो रहा था जब हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा एक दशक बाद संसद में अपना स्पष्ट बहुमत गंवा चुकी थी.

“जय भीम” नारा जो दलितों द्वारा अभिवादन के लिए प्रयोग किया जाता था, आज वही जयभीम नारा और आंबेडकर की तस्वीर शोषण के खिलाफ एक सर्वव्यापी प्रतीक बन गया है


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‘जय भीम’ नारे का सफर

सबसे पहले 1935 में 30-वर्षीय दलित नेता बाबू हरदास लक्ष्मणराव नागरले ने “जय भीम” का नारा बनाया था. आंबेडकर के करीबी सहयोगी नागरले अनुसूचित जाती संघ के महासचिव थे और नागपुर से विधायक भी थे. वे दलितों के लिए वैसा ही अनूठा अभिवादन बनाना चाहते थे जैसा मुसलमानों का “अस-सलाम-अलैकुम” है. उस समय दलित लोग “जय जोहार, जय रमापति राम राम या नमस्कार” बोला करते थे, लेकिन नागरले आत्मसम्मान, भाईचारे से भरा और आंबेडकर तथा उनकी विचारधारा में निष्ठा व्यक्त करने वाला अभिवादन चाहते थे जिसे गर्व से और बिना दास भाव के बोला जा सके.

उन्होंने “जय भीम” अभिवादन तैयार किया जिसके जवाब में “बल भीम” बोला जाना था, लेकिन “जय भीम” ही लोकप्रिय हुआ. नागरले ने शायद ही सोचा था कि उनका यह नारा पूरे भारत में व्यापक स्वीकृति हासिल कर लेगा.

जल्दी ही यह नारा अभिवादन के रूप में पूरे देश में तेज़ी से फैल गया. यह इतना आकर्षक था कि गैर- दलित समुदायों में भी प्रचलित हो गया. 1940 के दशक में टी. शिवराज ने तब के मद्रास (आज चेन्नैई) से “जय भीम” नाम की अंग्रेज़ी पत्रिका शुरू की. इसमें बाबासाहेब और अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ (एआईएससीएफ) के नेताओं के भाषण प्रकाशित किए, जिनमें मद्रास प्रांत के दलितों से आंबेडकर के नेतृत्व में एकजुट होने की अपील की गई थी.

कुछ लोग स्वयं आंबेडकर को जयभीम नारे से संबोधित करते तो वे बस मुस्कुरा देते.

1956 में आंबेडकर के निधन के बाद “जय भीम” का नारा दलितों में और ज्यादा लोकप्रिय हो गया. दलित राजनीतिक दल न केवल इसका प्रयोग अभिवादन के लिए करते हैं बल्कि रैलियों में लोगों को उत्साहित करने के लिए भी करते हैं. इसका प्रयोग भाषण शुरू करते हुए और समाप्त करते हुए किया जाता है. आंबेडकर की मृत्यु के बाद रिपब्लिकन पार्टी (आरपीआई) का राजनीतिक आधार सिकुड़ा, लेकिन दलित आंबेडकरवादी आंदोलनों के कारण यह नारा जीवित रहा. ऐसे आंदोलनों में एक था क्रांतिकारी दलित पैंथर आंदोलन जो जातीय दमन से लड़ने के लिए 1970 में शुरू हुआ था और गीतों, कविताओं के जरिए चलाया जा रहा था. बौद्धों ने “नमो बुद्धाय” और “जय भीम” के नारों के साथ अपने भाषणों को समाप्त करके उन्हें लोकप्रिय बनाया.

गीतों, कविताओं के जरिए जयभीम नारा घर घर तक पहुंचा

1971 में आरपीआई-कांग्रेस गठबंधन – जिसमें आरपीआई को केवल एक सीट मिली और बाकी सीटें कांग्रेस की झोली में गईं – से असंतुष्ट कांशीराम ने अपना ही सामाजिक आंदोलन शुरू किया और बैकवर्ड ऐंड माइनरिटी कम्युनिटीज़ एम्पलाइज फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया जिसने उन सरकारी कर्मचारियों को एकजुट किया जिन्हें आरक्षण नीति का लाभ मिला है . इसके चलते जयभीम अभिवादन पूरे भारत में लोकप्रिय हो गया. इसके साथ ही कांशीराम ने 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का गठन किया ताकि दलित बहुजन समाज में जागरूकता फैले.

पूरे उत्तर प्रदेश में बसपा द्वारा दीवारों पर हाथी के चित्र के साथ “जय भीम” का नारा लिख दिया जाता था . पारंपरिक तौर पर इस सामंती प्रदेश में बसपा के दलित कार्यकर्ताओं को “जय भीम” बोलने वाले के लिए अक्सर हिंसा का सामना करना पड़ता था, लेकिन कांशीराम और मायावती की अथक कोशिशों का लाभ मिला.

1989 में मायावती समेत बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के तीन सदस्य चुनाव जीत गए और इस तरह दमदार दलित राजनीति की शुरुआत हो गई. वे अपने भाषण का अंत हमेशा “जय भीम, जय भारत” के नारे के साथ करते थे. “वंचित बहुजन आघाड़ी” के प्रकाश आंबेडकर ने 1990 के दशकों में अपने पूर्व “बहुजन महासंघ” के जरिए दलितों और ओबीसी के गठबंधन के साथ ऐसी ही “सोशल इंजीनियरिंग” की. जिसे सीमित सफलता मिली क्योंकि जय भीम नारा गैर-दलितों में भी फैलने लगा था.

बामसेफ और बसपा जब पूरे उत्तर भारत में अपना विस्तार कर रहे थे तब आरपीआई के पतन के बाद कमजोर पड़ा “जय भीम” का नारा फिर से महत्व हासिल करने लगा. पंजाबी गायक गिन्नी माही का “बोलो जय भीम” गाना काफी लोकप्रिय हुआ.

1990 के दशक में मायावती के उत्कर्ष ने भारत में दमदार दलित राजनीतिक नेतृत्व को पहली बार उजागर किया. “जय भीम” संसद और यूपी विधानसभा में और उन रैलियों में गूंजा, जिन्हें मीडिया में धीरे-धीरे जगह दी जाने लगी थी. मायावती से पहले बाबू जगजीवन राम और राम विलास पासवान जैसे दलित नेता हुए, लेकिन कोई भी मायावती की तरह दलित दम का प्रतीक नहीं बना था. उन्होंने न केवल 1989 से संसद में “जय भीम” का नारा बुलंद किया बल्कि आंबेडकर और बहुजन के नेताओं को नोएडा के दलित प्रेरणा स्थल और लखनऊ के आंबेडकर पार्क में प्रमुख स्थान देकर ऐसी विरासत को आगे बढ़ाया जिसे वर्षों तक याद किया जाएगा.

‘गुजरात प्रयोगशाला’ के उभार और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संविधान को बदलने की भाजपा की कोशिश के विरोध में बसपा ने ही सबसे पहले “संविधान के सम्मान में, बसपा मैदान में” यह संविधान को बचाने का नारा बुलंद किया था.

2019 में सपा के साथ गठबंधन की अपनी रैलियों में मायावती कहा करतीं: “नमो वाले जा रहे हैं और जय भीम वाले आ रहे हैं”.

शिक्षण संस्थान में भेदभाव के कारण रोहित वेमुला की आत्महत्या और सीएए विधेयक विरोधी आंदोलनों के बाद सरकार के खिलाफ हाल के दिनों में जो प्रदर्शन हुए उनमें आंबेडकर और “जय भीम” का नारा प्रमुखता से छाया रहा जहां दलित और मुसलमान आंबेडकर की तस्वीर के नीचे एकजुट हुए.

2022 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार को निर्देश दिया कि केवल आंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें दफ्तरों में लगाई जाएं, किसी और नेता की नहीं.

यह बदलाव दबे-कुचले लोगों के बीच सामाजिक जागरूकता के आये नए चेतना बिना संभव नहीं था. 2007-12 में अपने शिखर पर पहुंचने के बाद बसपा का प्रभाव जब घटने लगा तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों ने यूपी जैसे प्रमुख राज्यों में बड़ी दलित आबादी (यूपी में 20 फीसदी) में पैठ बनाने के लिए गठबंधन बनाया ताकि उनकी पसंद के एजेंडा से उन्हें रिझाया जाए. इस एजेंडा में आंबेडकर के बनाए संविधान को मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से बचाने के अलावा एससी/एसटी के आरक्षण को भी बचाना भी शामिल है. यह मुहिम सफल रही, ‘इंडिया’ गठबंधन के टिकट पर कई दलित (जिनमें बसपा छोड़कर आए नेता) चुनाव जीत गए. सपा के दलित उम्मीदवार अवधेश प्रसाद ने फैज़ाबाद की, जहां अयोध्या मंदिर बनाया गया है, अनारक्षित सीट पर भाजपा उम्मीदवार को हरा दिया. संसद में शपथ लेते हुए प्रसाद ने इसे आंबेडकर और उनके संविधान की जीत बताया. ‘इंडिया’ गठबंधन ने महाराष्ट्र में भी भी ऐसी सफलता हासिल की और दलितों तथा मुसलमानों के भारी समर्थन के बूते वहां की 48 में से 30 लोकसभा सीटें जीती.


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‘इंडिया’ वाले दलों का संविधान विरोधी अतीत

आज ‘आंबेडकर के संविधान’ की दुहाई दे रही कांग्रेस ने आंबेडकर के निधन के बाद उन्हें वर्षों तक अपेक्षित सम्मान नहीं दिया. 1990 तक उनकी तस्वीर संसद के केंद्रीय हॉल में नहीं लगाई गई थी, जब तक की जनता दल के प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने उनकी तस्वीर का अनावरण नहीं किया. यह बदलाव बसपा के उभार के बाद ही आया.

उद्धव ठाकरे के पिता बाल ठाकरे आंबेडकर का उपहास उड़ाया करते थे और लोकतंत्र से ज्यादा तानाशाही की वकालत करते थे, उन्होंने तो इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी का समर्थन तक किया था.

अखिलेश यादव की सपा ने नौकरी में प्रोमोशन में एससी/एसटी को आरक्षण देने के विधेयक का विरोध किया था और इस पार्टी के सांसद ने इस विधेयक की प्रति संसद में फाड़ डाली थी. अखिलेश इस विधेयक के खिलाफ अक्सर बोलते रहे और कांशीराम, राजर्षि साहू महाराज (भारत में आरक्षण आंदोलन के प्रणेता) के नाम पर बने जिलों का नाम बदल दिया.

बसपा, आरपीआई, वंचित बहुजन आघाड़ी जैसी दलित पार्टियों को छोड़ कोई भी संविधान दिवस नहीं मनाता था. वास्तव में हाल तक किसी सरकार ने भी संविधान लागू करने के दिवस (26 नवंबर) का कभी विशेष उल्लेख तक नहीं किया.

आज कांग्रेस और सपा के सांसद अपने हाथ में संविधान की प्रति लेकर “जय भीम” का नारा तो लगा रहे हैं मगर देखना यह है कि यह केवल दलितों को रिझाने का खोखला नारा भर बनकर रह जाता है या उनमें कोई वास्तविक वैचारिक परिवर्तन भी आता है.

“जय भीम” एक आकर्षक नारा बन गया है, लेकिन इसके साथ संवैधानिक बहुलता, प्रतिनिधित्व, ब्राह्मणवाद और कट्टरपंथ से अहिंसक संघर्ष, और दबे-कुकलों के हक में खड़े होने की समझदारी और ज़िम्मेदारी भी जुड़ी है. यही वजह है कि यह नारा मुसलमानों और पिछड़े वर्गों को लुभाता है.

शायद इसीलिए यह विपक्षी दलों का पसंदीदा नारा बन गया है क्योंकि उन्हें लगता है कि भाजपा के धार्मिक राष्ट्रवाद और हिंदुत्व से लड़ने का यही सबसे अच्छा हथियार है. भाजपा और मोदी को भी इसकी काट खोजने में मुश्किल हो रही है.

इसीलिए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को सांसदों का “जय भीम” का नारा लगाना नागवार गुज़रता है, जबकि भाजपा का कोई सदस्य जब “जय हिंदू राष्ट्र” का नारा लगाता है तब उन्हें कोई परेशानी नहीं होती.

2021 में बनी लोकप्रिय फिल्म “जय भीम” (जिसे आईएमडीबी ने ऊंची रेटिंग दी) के निर्देशक से ज्ञानवेल इस बात पर अफसोस ज़ाहिर करते हैं कि जय भीम और जय आंबेडकर नारों को जाति से जोड़कर देखा जाता है. वे कहते हैं, “वास्तव में जय भीम उन सबका नारा है, जो दबाए गए हैं. भारत का संविधान उनका हथियार है. अगर महिलाएं दबाई गई हैं तो जय भीम उनका भी नारा है.”

इस फिल्म का अंत इस संवाद के साथ होता है : “जय भीम रोशनी है, जय भीम मुहब्बत है, जय भीम अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग है, जय भीम लाखों लोगों की आंखों के आंसू की बूंद है”.

“जय भीम वाला” जुमला कभी दलितों के लिए किये जाने वाला शब्दप्रयोग था , लेकिन अब यह सार्वभौमिक सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक नारा बन चुका है जिसके साथ आंबेडकरवादी विचारधारा जुड़ी है. इस नारे और आंबेडकर की तस्वीर ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ नारे और गांधी की तस्वीर तथा दूसरे नारों की जगह ले ली है.

बाबू हरदास पर एक फिल्म बनी थी — “बोले इंडिया जय भीम”. आज ‘इंडिया’ खेमा यही बोल रहा है.

कांशीराम और मायावती ने मंडल वाले कठिन चुनौतीपूर्ण दौर में दलित बहुजन जागरण की नींव डाली थी और वास्तविक सामाजिक उत्थान के जरिए इस नारे और आंबेडकरवादी विचारधारा को आगे बढ़ाया था. आज दूसरी पार्टियां खोखली नारेबाजी करके और ज़मीन पर कोई काम किए बिना उन दोनों के प्रयासों का लाभ उठाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे संविधान की मूल भावना और आंबेडकर के विचारों पर चलने की कोशिश करेंगी?

रवि शिंदे एक स्वतंत्र लेखक और स्तंभकार हैं. वे सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर लिखते हैं और विविधता के पैरोकार हैं. उनका एक्स हैंडल @scribe_it है. व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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