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Thursday, 21 November, 2024
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भारत में चुनाव सुधार के लिए जर्मनी से कुछ सबक

भारत में भी समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के जरिए प्रतिनिधियों का चुनाव होना चाहिए, या फिर जर्मनी की तरह मिली-जुली प्रणाली अपनाई जानी चाहिए.

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भारत के आम चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है. इस अभूतपूर्व कामयाबी से जहां दक्षिणपंथी चिंतक और विचारक खुश हैं और इसमें अपनी विचारधारा की जीत देख रहे हैं. वहीं, आलोचकों की तरफ से कई तरह की व्याख्याएं भी आ रही हैं. जहां भाजपा समर्थक इसे मोदी लहर, विकास की राजनीति की जीत, हिंदुत्व की जीत और जाति की राजनीति का अंत मान रहे हैं. वहीं, आलोचक इस जीत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का असर, भारत पाकिस्तान के बीच तनाव का प्रभाव से लेकर, ईवीएम में गड़बड़ी तक देख रहे हैं. विपक्ष की तरफ से ये आरोप लग रहे हैं कि बीजेपी ने ये चुनाव ध्रुवीकरण और कदाचार के जरिए जीता है. उनका ये आरोप भी है कि चुनाव आयोग ने पूरी प्रकिया को निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से संचालित नहीं किया और इस चुनाव में एक संस्था के तौर पर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता खंडित हुई है.

चुनाव सुधार एजेंडे में

इस चुनाव के फौरन बाद बीजेपी नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने चुनाव प्रक्रिया में बदलाव के लिए बातचीत शुरू कर दी है. नरेंद्र मोदी का सुझाव है कि पूरे देश में हर पांच साल में एक साथ लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव हों. वन नेशन, वन पोल पर विचार करने के लिए सरकार ने एक समिति भी बना दी है. अपनी पार्टी के प्रचंड बहुमत के कारण बीजेपी इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा सकती है और राज्यसभा में बहुमत मिल जाने के बाद इसे लागू भी करा सकती है. इस प्रस्ताव के कई नफा-नुकसान हैं और इस पर अन्य जगहों पर काफी बातचीत हुई है और आगे भी होगी. ये मुद्दा इस लेख का विषय नहीं है, इसलिए इस पर फिलहाल बात नहीं करते हैं.

इस लेख का विषय चुनाव सुधार से जुड़े अन्य पहलू हैं. क्या भारत को मतदान के लिए ईवीएम छोड़कर पेपर बैलेट की ओर लौटना चाहिए. क्या भारत को समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के जरिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव करना चाहिए, या इस प्रणाली को पूरी तरह नहीं तो भी आंशिक तौर पर अपनाना चाहिए और चुनाव में मीडिया की भूमिका क्या और कितनी होनी चाहिए और इसका नियमन किस तरह होना चाहिए. चुनाव में धर्म का इस्तेमाल भी बहस का एक प्रमुख मुद्दा है.

इस क्रम में हम खासकर जर्मन लोकतंत्र में मतदान की प्रणाली को भी देखेंगे.

पेपर बैलेट या ईवीएम: बहस जारी है

पेपर बैलेट या ईवीएम की बहस भारत में अब पुरानी पड़ने लगी है. हालांकि, इसे तमाम दलों के सहयोग से कांग्रेस के बहुमत वाली सरकार ने देश में लागू किया था और इसके लिए जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन का बिल संसद में पारित हुआ है. इस संशोधन के जरिए कानून में एक नई धारा 61 (ए) जोड़ी गई, जो मशीन से मतदान का आधार है. लेकिन, अब लगभग सारा विपक्ष और बीजेपी को छोड़कर ज्यादातर पार्टियां इस बारे में एकमत है कि चुनाव पेपर बैलेट से होना चाहिए. ये मामला बार-बार चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के सामने भी लाया जा रहा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के लिए ईवीएम को दोषी ठहराने और इस मामले को सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट ले जाने वाली बीजेपी ने ईवीएम पर अपनी पोजिशन बदल ली है. बीजेपी कह रही है कि विपक्ष अपनी हार के लिए ईवीएम का बहाना बना रहा है.

हालांकि जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, ऑस्ट्रेलिया समेत दुनिया के सभी विकसित लोकतंत्र में कागज पर बने मतपत्र पर ही राष्ट्रीय चुनावों के लिए मतदान होते हैं और भारत को भी ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए. इसके कोई मजबूत तर्क नहीं है. ईवीएम के पक्ष में एकमात्र ठोस तथ्य ये है कि इससे चुनाव प्रक्रिया में समय बचता है. लेकिन, अब भारत में जिस तरह लंबे चरणों में मतदान होने लगे हैं और महीनों तक चुनाव प्रकिया चलती रहती है. उसे देखते हुए ईवीएम से समय बचने का तर्क अपने आप खारिज हो चुका है. ईवीएम के आने के बाद चुनावी प्रक्रिया लगातार लंबी होती चली जा रही है.


यह भी पढ़ें : चुनाव प्रक्रिया में सुधार कीजिए, ईवीएम का हौवा दिखाना बंद कीजिए


ईवीएम की बहस आने वाले दिनों में जारी रहने वाली है और इसके पक्ष और विपक्ष में नए-नए तर्क आने वाले हैं.

किस पद्धति से चुने जाएं जनप्रतिनिधि

दूसरा मुद्दा मतदान के जरिए जनप्रतिनिधि चुनने की पद्धति का है. भारत में मतदाता अपने चुनाव क्षेत्र से सांसद और विधायकों का चुनाव करता है. जो आगे सरकार का गठन करते हैं. हर नागरिक को, बगैर किसी भेदभाव के, मतदान का अधिकार देना भारतीय संविधान का एक प्रगतिशील कदम था और इसके लिए हमें तमाम संविधान निर्माताओं के साथ, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का भी आभारी होना चाहिए, जिन्होंने सार्वभौमिक मताधिकार के पक्ष में तर्क दिए.

इससे पहले, पूना पैक्ट (1932) होने तक बाबा साहेब ‘अछूतों’ (उस समय राजनीतिक विमर्श में यही शब्द प्रचलित था) के लिए सैपरेट एलेक्टोरेट के पक्ष में थे. उनका तर्क था कि अछूतों को हिंदू अपने समाज का हिस्सा नहीं मानते इसलिए उन्हें अपने प्रतिनिधि अलग से चुनने का अधिकार होना चाहिए. ऐसा अधिकार मुसलमानों और सिखों को दिया गया था. सेपरेट एलेक्टोरेट अलग लागू होता को कुछ खास सीटों पर दो प्रतिनिधि चुने जाते. पहले का निर्वाचन सारे वोटर मिल कर करते और दूसरा प्रतिनिधि अछूत मतदाता खुद चुनते. हालांकि, गांधी जी के अनशन और पूना पैक्ट के कारण अछूतों का सैपरेट एलेक्टोरेट लागू नहीं हो पाया. इसकी जगह रिजर्व चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था आई.

राष्ट्रपति प्रणाली बनाम संसदीय प्रणाली

दूसरी बहस, राष्ट्रपति प्रणाली बनाम संसदीय प्रणाली की है. राष्ट्रपति प्रणाली में राष्ट्रपति का चुनाव सीधे लोगों द्वारा होता है. जबकि, संसदीय प्रणाली में जनता द्वारा निर्वाचित सांसद प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं. हर देश अपनी लोकतांत्रिक परंपरा और स्थितियों के मुताबिक शासन प्रणाली चुनते हैं. अमेरिका में राष्ट्रपति प्रणाली है. वहां सीनेट और हाउस ऑफ़ रिप्रेजेन्टेटिव राष्ट्रपति को तानाशाह बनने से काफी हद तक रोकते हैं. मिसाल के तौर पर, वर्तमान राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अपने चुनावी वादे के मुताबिक अमेरिका-मैक्सिको सीमा पर दीवार नहीं बना पा रहे हैं, क्योंकि दोनों ही सदनों की राय इसके पक्ष में नहीं बन पाई है.

दोनों ही प्रणाली के अपने नफा-नुकसान है. भारत एक विविधता से भरा देश है और यहां के लिए संसदीय प्रणाली ही बेहतर प्रतीत होती है. संविधान निर्माताओं की यही राय थी. हालांकि, केंद्र में नई सरकार बनने के बाद राष्ट्रपति प्रणाली बनाम संसदीय प्रणाली की बहस भी तेज होती दिख रही है. कई राजनीति विज्ञानी ये मान रहे हैं कि भारत भी राष्ट्रपति प्रणाली की ओर बढ़ रहा है.

जर्मनी का अनुभव और भारत के लिए सबक

जर्मनी में सरकार बनाने के लिए इन सबसे अलग एक प्रणाली अपनाई गई है. जर्मनी के नागरिक राष्ट्रीय चुनाव में दो वोट डालते है. एक वोट अपने निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार के लिए और दूसरा वोट राजनीतिक दल के लिए. इस प्रक्रिया को व्यक्तिगत आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Personalized Proportional Representation System) कहा जाता है. इस प्रणाली से यह तय होता है कि जर्मन संसद बुंडेस्टाग की 598 सीटों को विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्यों में कैसे विभाजित किया जाएगा. मत-पत्र की बाईं ओर पहला वोट उस निर्वाचन क्षेत्र में संसद सदस्य के लिए प्रत्यक्ष वोट होता है, ठीक वैसे ही जैसे भारतीय मतदाता अपने उम्मीदवार को चुनते हैं. जर्मनी में 299 निर्वाचन क्षेत्र हैं. इसलिए प्रत्यक्ष वोट से बुंडेस्टाग में आधी सीटें भरी जाती हैं. दूसरा वोट, मत-पत्र की दाईं ओर, राजनीतिक पार्टी के लिए होता है. राजनीतिक दल किसे संसद भेजेंगे, ये मतदाताओं को पता होता है. दूसरे मतों के परिणाम यह निर्धारित करते हैं कि पार्टियों की ओर से कौन से उम्मीदवार संसद की शेष सीटों पर चुनकर आएंगे हैं.

जब जर्मनी के नागरिकों का मत बंटा हुआ होता है. तो मतदाता कई बार पहले वोट में एक पार्टी के उम्मीदवार के लिए और दूसरे वोट में एक अलग राजनीतिक पार्टी के लिए वोट करते हैं. ऐसे में किसी एक पार्टी के बहुत ज्यादा ताकतवर हो जाने का खतरा नहीं होता. पिछले कई सालों से जर्मनी में गठबंधन द्वारा ही सरकार बनती है. जर्मन चांसलर (प्रधानमंत्री) का चुनाव बुंडेस्टाग (जर्मन संसद) में बहुमत के आधार पर होता है. भारत के मुकाबले चूंकि वहां पार्टियों को भी वोट पड़ता है, तो इस वजह से पार्टियों प्रतिनिधित्व का ख्याल रखती हैं. जर्मनी को इस चेक एंड बैलेंस की पद्धति का न सिर्फ राजनीतिक रूप से फायदा मिला है, बल्कि वहां की आर्थिक तरक्की के लिए भी इसे श्रेय दिया जाता है.


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भारतीय निर्वाचन पद्धति की आलोचना

इसके उलट, भारत में फर्स्ट पास्ट द पोस्ट विधि से जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं. यानी हर सीट पर सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार विजयी होता है. इसलिए जिन पार्टियों के वोट बिखरे हुए हैं, उन्हें कुल मिलाकर अच्छा-खासा वोट मिलने के बावजूद मुमकिन है कि उसके प्रतिनिधि जीतकर न आएं. ये पार्टियां जिन सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व करती हैं, उन समूहों की आवाज संसद में अनसुनी रह जा सकती है. मिसाल के तौर पर 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को यूपी में लगभग 20 परसेंट और देश में 4.1 परसेंट वोट मिले. इस नाते वह देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी, फिर भी लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं था. इसी प्रकार 2019 लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल को बिहार में 15 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन उसका एक भी सांसद नहीं जीत पाया. दोनों ही लोकसभा चुनाव में देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस इतनी सीटें नहीं जीत पाई कि उसे लोकसभा में विपक्ष का नेता पद मिल सके. ये भारत की निर्वाचन पद्धति का एक प्रमुख दोष है.

चुनाव सुधार के लिए निम्नलिखित सुझावों पर विचार किया जाना चाहिए.

1. चुनाव फरवरी या सितंबर के महीने में होने चाहिए, जब मौसम ऐसा होता है, जब ज्यादा से ज्यादा लोग मतदान कर पाएंगे. उस समय देश के ज्यादातर हिस्से बाढ़, लू या बर्फबारी से बचे होते हैं.

2. मतदान पेपर बैलेट से हो या ईवीएम से, इसे लेकर एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.

3. चुनाव की नौबत बार-बार न आए, इसके लिए उपायों पर विचार होना चाहिए.

4. चुनाव के दौरान नेताओं के धार्मिक स्थलों पर जाने और धार्मिक नारों को उछाले जाने पर रोक लगनी चाहिए और उसका सख्ती से पालन होना चाहिए.

5. पेड न्यूज और फेक न्यूज पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए. इनके जरिए जनमत को प्रभावित करने की कोशिश होती है, जिसका चुनावों पर असर होता है.

6. भारत में भी समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के जरिए प्रतिनिधियों का चुनाव होना चाहिए, या फिर जर्मनी की तरह मिली-जुली प्रणाली अपनाई जानी चाहिए.

7. राज्यसभा और जिन राज्यों में विधान परिषद है, वहां भी एससी-एसटी का रिजर्वेशन होना चाहिए.

8. ओपिनियन पोल पर चुनाव आयोग को प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए. ऐसे मतदाताओं की संख्या हमेशा काफी होती है, जो जीतते दिख रहे उम्मीदवार या पार्टी को वोट दे देते हैं. चूंकि मीडिया को मैनेज करके अपने पक्ष में ओपिनियन पोल कराए जाने का वाकए हुए हैं, इसलिए इन पर रोक जरूरी है.

(लेखक ने क्वीन मेरी यूनिवर्सिटी, लंदन से फाइनांस और इकॉनोमेट्रिक्स में मास्टर्स की पढ़ाई की है. इंडियन ओवरसीज कांग्रेस की छात्र शाखा के सह संस्थापक हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. भारतीय जन लोकतांत्रिक प्रणाली पर जनमानस मे “भ्रम” पैदा करने का कुत्सित प्रयास है
    एक खास विचारधारा का लेखक जो अपनी धृणा फैलाने वाली कोशिशें जारी रखा है…

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