नदी पर बने पुल पर रास्ता जाम हो जाय तो आप क्या करते हैं?
क्या गाड़ियों की आवाजाही का नियमन करते हैं? हां, निश्चित ही.
क्या भीड़-भाड़ वाले वक्त में गाड़ियों के आने-जाने के लिए अलग से कोई लेन खोलते हैं? हां, अगर मुमकिन दिखे तो ये भी करते हैं.
क्या पुल को चौड़ा करते हैं, कोई नया पुल बनाते हैं? हां, क्यों नहीं, जरूरी हुआ तो ये भी किया जाता है.
या फिर ये सब न करते हुए नदी की धारा ही मोड़ने का काम करते हैं? अरे नहीं, ऐसा भी कोई करता है भला! ये तो पागलपन वाली बात हुई.
‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के मसले पर मेरी राय आप ऊपर की इन पंक्तियों से जान सकते हैं. हमारे चुनावी-कलेंडर से कुछ ठोस और बहुत परेशान करने वाली मुश्किलें जुड़ी हुई हैं. इन मुश्किलों का हल निकालने की जरूरत है. इनसे पार पाने के कुछ व्यावहारिक उपाय हैं. इन उपायों से मुश्किलों का पूरा नहीं तो भी बड़े हद तक समाधान निकल सकता है. लेकिन इसके लिए आपको संविधान या फिर पूरी राजनीतिक-व्यवस्था बदलने की कतई जरूरत नहीं. दरअसल, विधान-सभाओं और लोकसभा का चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव कुछ वैसा ही है जैसे कोई पुल पर गाड़ियों की आवाजाही से जुड़ी समस्याओं से निजात पाने के लिए नदी की धार बदलने का उपाय सोचे.
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समस्या
आईए, पहले मुश्किल को समझें: केंद्र सरकार की पांच साल की कार्यावधि राज्य-विधानसभा के चुनावों से ठसाठस भरी हुई है (अगर सब कुछ सामान्य रीति से होता रहा तो अगले पांच सालों में हमें ऐसे आठ चुनाव देखने को मिलेंगे पांच साल की कार्यावधि में थोड़े-थोड़े अन्तराल से विधानसभा के चुनाव होते रहने के कारण केंद्र सरकार के कामकाज में बार-बार व्यवधान आता है, नीतियों पर अमल बाधित होता है और इसका असर गवर्नेंस पर पड़ता है. चुनावी आचार संहिता के लागू होने के कारण मसलों पर फैसला लेने का काम चुनाव वाले राज्यों के साथ-साथ केंद्र सरकार के स्तर पर भी एक अवधि-विशेष तक रुक जाता है. नेतृवर्ग जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर सांसद तक शामिल हैं, चुनावी छुट्टी पर चले जाते हैं. चुनावी आचार संहिता की आयद सीमा अपनी जगह लेकिन केंद्र सरकार पर इससे भी ज्यादा दबाव काम करता है बारंबार आ पड़ने वाले चुनावों को हर हालत में जीतने का. ऐसे में केंद्र सरकार एकदम से प्रदेशों में होने वाले चुनावों पर अपना जोर लगाये रखती है और उसके पास नीतियों के बनाने के लिए वक्त का टोटा होता है. इसके अतिरिक्त, राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग वक्त पर होने के कारण इससे संबंधित खर्चों में दोहराव की भी समस्या आन खड़ी होती है.
अब ये मुश्किलें इतनी भारी भी नहीं लेकिन इनकी सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता और जाहिर है, जो समस्याएं वास्तविक हैं उनका समाधान किया ही जाना चाहिए. लेकिन यहां मसले पर सोच विचार को आगे बढ़ाने से पहले हम नोट करते चलें कि बारंबार पड़ने वाले विधानसभा चुनावों का असर केंद्र सरकार के कामकाज पर तो होता है लेकिन राज्य सरकारों पर नहीं. हम यह भी ध्यान रखें कि चुनावी काल-चक्र में विविधता का होना अपने आप में न तो कोई असामान्य बात है और न ही किसी गड़बड़-घोटाले का संकेत. शासन की संसदीय प्रणाली अपनाने वाले संघीय ढांचे के देश में ऐसा होना लाजिमी है.
समाधान
सवाल उठता है, हम इस समस्या का समाधान कैसे करें? सबसे पहले तो हमें चुनावी आचार संहिता को ही देखना होगा. ये संहिता विधानसभा के चुनावों के वक्त केंद्र सरकार पर बड़ी सख्त पाबंदी आयद करती है. इसके पीछे बुनियादी सोच ये है कि मुकाबले का मैदान सबके लिए समान रूप से खुला रहे और सत्ताधारी दल सत्ता में होने का बेजा फायदा न उठा सके. नीतिगत फैसलों पर सीधे-सीधे पाबंदी लगाने की जगह चुनाव आयोग को सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र सरकार विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में मतदाताओं को लुभाने के लिए कुछ ऐसा न करे जो लगे कि वोट मांगने के लिए एक तरह से घूस दिया जा रहा है. राजनीतिक दल चुनावी आचार संहिता का पुनरावलोकन कर सकते हैं. ये संहिता अब बहुत पुरानी पड़ चुकी है और वक्त की जरूरत के हिसाब से इसे नया किया जाना चाहिए.
दूसरी बात, मतदान की अवधि कम की जा सकती है और ऐसा किया भी जाना चाहिए. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में चुनाव सात चरणों में हों और पूरे एक महीने तक चलें- यह अपने आप में हास्यास्पद है. अब वक्त आ गया है जब राजनीतिक दल चुनाव आयोग से कहें कि आप अपने आलस का त्याग कीजिए और कोई ऐसी चुस्त-दुरुस्त योजना तैयार कीजिए कि चुनाव एक हफ्ते के भीतर निपट जाय.
इस सिलसिले की आखिर की एक बात यह कि चुनाव आयोग विधानसभा के कुछ चुनावों को एक साथ करा सकता है. ऐसे में केंद्र सरकार की पांच साल की कार्यावधि के बीच आठ दफे की जगह चार-पांच बार में ही चुनावी कलैंडर के सभी विधानसभाई चुनाव निबट जायेंगे. संविधान इस बात की इजाजत देता है कि विधानसभा के आखिर के छह महीने के भीतर चुनाव आयोग कभी भी चुनाव करा ले. चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को अपने विश्वास में ले सकता है और चंद राज्यों के चुनाव निर्धारित अवधि से कुछ माह पहले करा सकता है. जहां तक खर्चे के दोहराव का सवाल है, हमें याद रखना चाहिए कि असल समस्या चुनावों पर होने वाले अत्यधिक खर्चे की है- वैधानिक रूप से जितने खर्चे की अनुमति दी गई है, अभी उससे कई गुना ज्यादा खर्चा हो रहा है. सो, समाधान इलेक्शन फंडिंग के मोर्चे पर निकालने की जरुरत है न कि चुनावी कलैंडर बदलने की.
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दुष्प्रभाव
क्या एक राष्ट्र-एक चुनाव इन समस्याओं का बेहतर समाधान है? हां, बशर्ते इस दवा का कोई साइड इफेक्ट न हो और चुनावी कलैंडर का ठसाठस भरा होना भर ही हमारी राजनीति की सबसे बड़ी या एकलौती समस्या हो. लेकिन इन दोनों बातों में कोई भी सही नहीं है. पांच साल में लोकसभा और सभी विधानसभा के चुनाव एक साथ कराना हमारे चुनावी कलैंडर में कोई सामान्य फेर-बदल करने जैसी बात नहीं. इसके लिए जरूरी होगा कि विधायिका की कार्यावधि तयशुदा तौर पर पांच साल की हो. और, विधायिका की कार्यावधि तयशुदा तौर पर पांच साल करने का मतलब होगा हमारी अभी की शासन की संविधान-सम्मत संसदीय प्रणाली को बदलना.
चलिए, मान लेते हैं कि हम संविधान के बुनियादी ढांचे की इस विशेषता में बदलाव करने के इच्छुक हैं लेकिन ऐसे में सवाल उठेगा कि किसी राज्य सरकार ने सदन में अपना विश्वास मत खो दिया तो हम ऐसी स्थिति से कैसे निबटेंगे? लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के विचार से सहमत लोग इस बाबत दो समाधान सुझाते हैं. एक तो यह कि किसी राज्य में सरकार विश्वास मत खो दे तो फिर से चुनाव कराया जायें लेकिन नई सरकार विश्वास मत खोने वाली सरकार की बाकी बची अवधि के लिए ही बने (क्या हम महज आठ महीने के लिए किसी नयी सरकार को चुनना चाहते हैं?).
दूसरा यह कि सरकार के खिलाफ सदन में उस घड़ी तक अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान न हो जब तक कि नई सरकार को विश्वास मत न हासिल हो जाये (ऐसे में सवाल उठेगा कि जिस सरकार का गिरना तय हो चुका है वह सदन में बजट कैसे पारित करायेगी?) हम इनमें से तमाम समाधानों के गुण-दोष का विवेचन आगे और कर सकते हैं लेकिन हम इस बात को नहीं झुठला सकते हैं कि इन दवाओं के गंभीर साइड इफेक्टस हैं.
असली एजेंडा
तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि नई सरकार अपने कार्यकाल के शुरुआती वक्त में ही चुनावी कलैंडर में सुधार कराने के अपने इस अजेंडे पर जोर लगा रही है? दरअसल इससे कहीं ज्यादा बड़े रोग हमारी चुनावी प्रणाली को कमजोर बना रहे हैं और उन रोगों को दुरुस्त करना कहीं ज्यादा जरूरी है. इलेक्शन फंडिंग के मोर्चे पर सुधार करना चुनावी-प्रणाली में सुधार करने की दिशा में पहला कदम होना चाहिए. लेकिन ऐसा करने की जगह हमारी राज-व्यवस्था ने एकदम से पीछे की तरफ एक लंबी छलांग लगायी और इलेक्टोरल बॉन्ड का उपाय ईजाद कर लिया. आखिर, लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की ऐसी हड़बड़ी क्यों है?
इसका सबसे ठीक जान पड़ने वाला उत्तर यही लगता है कि एक राष्ट्र-एक चुनाव का तरीका बीजेपी के दूरगामी सियासी ढांचे के अनुकूल बैठता है. लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से सरकार अपनी आर्थिक नीतियों के बाबत लोकतांत्रिक जवाबदेही की बाध्यता से छुटकारा पा जायेगी. स्वायत्त संस्थाओं के तेज पतन के इस दौर में सिर्फ चुनाव ही सरकार को जवाबदेह बनाने का एकमात्र कारगर उपाय रह गया है. अगर इस अंकुश को भी हटा लिया गया तो सरकार दो बड़े महा-चुनावों के बीच की अवधि में तमाम किस्म की लोकतांत्रिक बाध्यताओं को अंगूठा दिखाने के लिए आजाद होगी. जाहिर है, ऐसे में लोकतांत्रिक मन-मानस के हर व्यक्ति को इस बात की चिन्ता करनी चाहिए.
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दूसरी बात यह कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से सबसे मजबूत राष्ट्रीय पार्टी (यानि बीजेपी) को फायदा होगा, मतदान का रुझान उसकी तरफ रहने की संभावना है- भले ही, इससे बीजेपी की जीत सुनिश्चित न होती हो, जैसा कि इस बार ओडिशा और आंध्र प्रदेश मे देखने में आया. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनावों के एक साथ होने पर उनके क्षेत्रीय रंग-ओ-आब में कमी आयेगी कुछ मतदाता निश्चित ही राष्ट्रीय स्तर पर सबसे मजबूत दिखने वाली बीजेपी सरीखी पार्टी की तरफ खिंच जायेंगे.
शायद, यह वक्त प्रस्ताव को उसके सही नाम से पुकारने का है और प्रस्ताव का सही नाम है: ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव, एक पार्टी, एक प्रधान!
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)
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