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Friday, 19 April, 2024
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ईवीएम में छेड़छाड़ जैसी बेकार की बहस बंद हो, पर कैसे?

मतदान व मतों की गिनती की बुनियादी प्रक्रिया पर बहस से हमारे लोकतंत्र की कुछ ठोस उपलब्धियों पर अविश्वास पैदा होता है. हमारा ध्यान चुनाव सुधारों पर होना चाहिए.

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विपक्षी दलों ने इस हफ्ते चुनाव आयोग से भेंट की और ईवीएम को लेकर अपनी मांग रखी. इस बार पार्टियों ने ईवीएम को सिरे से खारिज नहीं किया, ये नहीं कहा कि हमें उसी जमाने में लौट जाना है जब बैलेट पेपर चला करते थे बल्कि इस बार विपक्षी पार्टियों की मांग बड़ी युक्तिसंगत थी- विपक्षी दलों ने कहा कि कम से कम 50 फीसद मतदान केंद्रों के वोटों की गिनती में नई वीवीपीएटी मशीन से निकली पर्चियों को भी संज्ञान में लिया जाय.

इससे गुंजाइश बनी है कि आम चुनावों से ऐन पहले मसले पर चली आ रही तकरार खत्म हो और दोनों पक्षों के बीच सुलह हो जाये. गेंद अब चुनाव आयोग के पाले में है, पहल करने का जिम्मा अब आयोग का बनता है. नीचे कुछ सुझाव दर्ज किये गये हैं. चुनाव आयोग चाहे तो इन नुक्तों पर गौर करके विपक्षी पार्टियों की मांग पर पहलकदमी के बारे में सोचे. वो वक्त अब आ चुका है, जब ईवीएम में छेड़छाड़ जैसी बेकार की बहस को दोनों पक्ष हमेशा के लिए विराम दे दें.


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ईवीएम को लेकर खींचतान

याद करें कि ईवीएम को लेकर बहस की शुरुआत 2009 में हुई जब बीजेपी के नेता और प्रवक्ता नरसिम्हा राव ने पार्टी की हार के बाद कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी की शह पर दोष का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा- उन्होंने ईवीएम पर सवाल उठाये.

2014 के बाद से बीजेपी को लगातार कई चुनावों में अप्रत्याशित रूप से बड़ी जीत हासिल हुई- ऐसी जीत की एक बड़ी मिसाल तो यूपी ही रहा और इसी बिनाह पर विपक्षी दलों ने ईवीएम में छेड़छाड़ के आरोप लगाये. ‘कहीं तो कुछ गड़बड़ है’ सरीखे मनभावन सोच पर टिका ईवीएम-विवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा हाल के लंदन प्रेस-सम्मेलन में. ईवीएम में छेड़छाड़ के ज्यादातर आरोपों के पीछे सबूत कम थे और यह शंका ज्यादा कि हां, ‘ईवीएम में कुछ तो गड़बड़ी हुई ही होगी’.

ऐसी शंका के पीछे ये सोच काम कर रही थी कि मोदी-शाह की जोड़ी चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकती है. मौजूदा सरकार ने सांस्थानिक मान-मूल्यों की जिस तरह धज्जियां उड़ायी हैं उन्हें देखते हुये ऐसे सोच को सिरे से खारिज तो खैर नहीं ही किया जा सकता. लेकिन ये सोच भय की कोख से जन्मी है, इस सोच में कोई तथ्य नहीं है.

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चुनाव आयोग का रुख

आयोग चाहता तो विपक्षी दलों की शंका का समाधान कर सकता था. विरोधी पक्ष को हैकाथॉन के नाम पर चुनौती देने की जगह आयोग को मौका-मुआयना की पेशकश करनी चाहिये थी. आयोग कह सकता था कि आइए, कोई शक है तो हाल के समय में इस्तेमाल हुये ईवीएम की जांच-परख करके उसे दूर कर लीजिए. वह विवादास्पद मामलों में पर्ची से मिलान की भी पेशकश कर सकता था. अफसोस कि चुनाव आयोग अड़ा रहा, तर्क देता रहा कि ईवीएम में छेड़छाड़ नामुमकिन है. तकनीक के मामले में ‘रामभरोसे’ कहलाने लायक मुझ जैसे व्यक्ति को भी यह तर्क गले नहीं उतरेगा. बात ये है कि किसी भी इलेक्ट्रानिक उपकरण के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है. सवाल यह है कि छेड़छाड़ किन हालात में मुमकिन है और किन हालात में नहीं.

विडंबना देखिए कि चुनाव आयोग ने जब यह रुख अपनाया कि ‘आखिर, आपने हम पर अंगुली उठाने की हिम्मत कैसे की’ उस घड़ी उसकी साख का बंटाधार हो चुका था- साख बीते तीन दशकों के एतबार से सबसे नीचे जा गिरी थी. ईमानदारी से कहें तो ये कोई पहली बार नहीं हुआ जब सरकार ने सत्ताधारी दल के नजदीक माने जाने वाले किसी अधिकारी को चुनाव आयोग का जिम्मा सौंपा हो (आपको नवीन चावला तो याद ही होंगे जो मुख्य चुनाव आयुक्त बनाये गये. उन्हें 10 जनपथ का नजदीकी माना जाता था). लेकिन, ये मानकर भी चलें तब भी बीते पांच सालों में चुनाव आयोग के कुछ सदस्यों का जैसा बर्ताव रहा है उसे देखकर लगता है, काश! कोई और होता और वो करता जो नियम के मुताबिक उसे करना चाहिए था.

ईवीएम के साथ वीवीपीएटी को लगा देने के कारण अब ईवीएम में छेड़छाड़ को लेकर चलने वाली बहस बेमानी हो गई है. वीवीपीएटी मशीन से एक छपी हुई पर्ची निकलती है. इस पर्ची पर उसी पार्टी या उम्मीदवार का चुनाव चिह्न छपा होता है, जिसे मतदाता ने अपना वोट दिया है. मतदाता इस पर्ची को देखकर यकीन कर सकता है कि हां, वोट सही जगह पर पड़ा है, लेकिन वह इस पर्ची को हाथ से नहीं छू सकता जब तक कि पर्ची एक बक्से में न गिर जाये. बक्से में जमा होने के बाद इस छपी हुई पर्ची को वक्त-जरूरत निकालकर हाथ से गिना जा सकता है. अब पार्टियों को अपने समर्थक मतदाता या फिर प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को सिर्फ इतना भर निर्देश देना होगा कि वोट डालने के बाद निकलने वाली पर्ची पर नजर रखें- देखें-परखें कि वोट सही जगह पड़ा है या नहीं. अब चुनाव आयोग के पास भी दोहरी जांच का मौका होगा- इसके अनुकूल बस अब नियमों और प्रक्रियाविधि की तनिक नोक-पलक दुरुस्त करने की जरूरत होगी.

आगे की राह

पहली बात, चुनाव आयोग को चाहिए कि वह पंजीकृत राजनीतिक दलों के नामित विशेषज्ञों को अगामी आम चुनावों में इस्तेमाल की जाने वाली किसी भी ईवीएम मशीन की जांच की इजाजत दे. चुनाव की तारीख के ऐन एक हफ्ते पहले तक पार्टियों के नामित विशेषज्ञों के लिए मशीन की जांच का यह मौका मौजूद होना चाहिए. इससे मदरबोर्ड में बदलाव या फिर किसी गुप्त सॉफ्टवेयर लगे होने की आशंका को विराम दिया जा सकेगा.

दूसरी बात, विभिन्न निर्वाचन-क्षेत्रों को जिस प्रक्रिया के जरिये ईवीएम आबंटित किये जाते हैं वह पारदर्शी बनायी जानी चाहिये. चूंकि ईवीएम में छेड़छाड़ के लिए किसी व्यक्ति को यह पता होना जरूरी है कि मशीन पर किसी उम्मीदवार का नाम किस क्रमसंख्या में आयेगा और उम्मीदवारों के नाम की क्रमसंख्या हर निर्वाचन-क्षेत्र में बदल जाती है (यह पार्टी के नाम से नहीं, बल्कि उम्मीदवारों के सरनेम के अकारादि क्रम से तय होता है) सो कौन-सा ईवीएम किस जगह पर लगाया जा रहा है यह बात किसी को पता नहीं होनी चाहिए. यह काम पार्टी के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में लॉटरी सिस्टम के जरिये किया जा सकता है.

तीसरी बात, मतदान से संबंधित नियमों में कुछ बदलाव होने चाहिए ताकि अगर मतदाता को लगता है कि उसने जिस उम्मीदवार को वोट दिया है उससे वीवीपीएटी से निकली पर्ची का मेल नहीं बैठता तो वह इसकी शिकायत मतदान कराने के जिम्मेदार अधिकारियों से कर सके. मिसाल के लिए, अगर किसी मतदान केंद्र पर 1 प्रतिशत मतदाता इस तरह की आपत्ति दर्ज कराते हैं तो फिर उस मतदान केंद्र के लिए ईवीएम की गिनती का मिलान पर्चियों की गिनती से करना अनिवार्य कर दिया जाये. चुनाव आयोग को एक व्यापक अभियान चलाकर मतदाताओं को बताना चाहिए कि वीवीपीएटी से निकली पर्ची को कैसे जांचे और जरूरत पड़ने पर कैसे आपत्ति दर्ज करायें.

चौथी बात, ‘ईवीएम ठीक से काम नहीं कर रहा है’- चुनाव के वक्त ऐसी खबरें भी आती हैं. ईवीएम ठीक से काम न करे तो नियम है कि उसे 30 मिनट के अन्दर बदल दिया जायेगा या फिर दोबारा से मतदान होगा. ईवीएम की गड़बड़ी की सूरत में इस नियम का सख्ती से पालन होना चाहिए. इस मोर्चे पर पर्याप्त प्रचार और प्रशिक्षण की जरूरत है ताकि ईवीएम में पैदा हर गड़बड़ी को उसके साथ हुई छेड़छाड़ न करार दिया जाय.

इस सिलसिले में मेरा आखिरी सुझाव है कि मतगणना की मौजूदा प्रक्रिया में बदलाव होना चाहिए. अभी मतगणना के लिए ईवीएम को क्रमवार 14 की तादाद में रखा जाता है (अब यह मत पूछ लीजिएगा कि आखिर 14 ही की तादाद में क्यों?). इसका मतलब हुआ कि सबसे पहले मतदान-केंद्र संख्या 1 से 14 पर वोटों की गिनती अलग-अलग 14 टेबल पर होती है. इसे फर्स्ट राउंड यानि पहले चरण की मतगणना कहा जाता है. मेरा सुझाव है कि मतगणना की 14 टेबल में हर एक पर रैंडम रीति से चुने गये एक मतदान केंद्र के मतों की गिनती से शुरुआत हो. मतलब हम बूथ संख्या 3, 11, 26, 47, 53, 89, आदि किसी भी नंबर का चुनाव इसके लिए कर सकते हैं.


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मतगणना के इस खास पहले चरण में पर्ची (पेपर स्लिप) की गिनती हाथों से की जाय और जो संख्या आती है उसका मिलान ईवीएम के डिस्प्ले बोर्ड की संख्या से किया जाय, अगर कोई असंगति नहीं दिखती (हम पर्ची की गिनती और डिस्प्ले बोर्ड पर दिख रही संख्या के बीच 0.5 प्रतिशत तक के अन्तर की अनदेखी कर सकते हैं) तो फिर आगे की गिनती उसी रीति से हो जिस रीति से अभी होती है. लेकिन पर्ची की गिनती और डिस्प्ले बोर्ड पर दिख रही संख्या में अन्तर तय सीमा से ज्यादा का आता है तो फिर उस निर्वाचन क्षेत्र के सभी मतदान केंद्रों की सभी पर्चियों (पेपर स्लिप) की गिनती की जाय. यहां सावधानी बरतते हुये एक विधान यह भी किया जाना चाहिए कि जो उम्मीदवार मतगणना में दूसरे नंबर पर है उसे अधिकार दिया जाय कि वह चाहे तो अंतिम परिणाम के घोषित होने से पहले अपनी पसंद के किसी भी बूथ की पर्चियों की गिनती करा सके.

यह तनिक मुश्किल काम लग सकता है. ऐसा करने पर निश्चित ही परिणाम के आने में कुछ घंटों की देर लगेगी. मतगणना के दिन टेलीविजन पर जो टी-ट्वेंटी मुकाबले की शक्ल पर कार्यक्रम चलते हैं, उनकी चमक बेशक मंद पड़ेगी लेकिन ऐसा करने पर एक निश्चित ही एक नुकसानदेह और गैर-जरूरी बहस को विराम दिया जा सकेगा. मतदान और मतों की गिनती के बुनियादी प्रक्रिया पर बहस के जारी रहने से हमारे लोकतंत्र की कुछ ठोस उपलब्धियों पर अविश्वास पैदा होता है. साथ ही, यह बहस हमें गुमराह भी करती है- हमारा ध्यान अभी चुनाव सुधारों पर होना चाहिए, जो बहस के जारी रहते कहीं और चला जाता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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