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Friday, 22 November, 2024
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उग्रवाद आंदोलन में भी पंजाबियत के सरोकार रहे कवि सुरजीत पातर, विभाजन की यादें रही हमेशा साथ

सुरजीत पातर की हालिया कविताएं पंजाब की समावेशी संस्कृति, पंजाबी भाषा की घटती लोकप्रियता, बड़े पैमाने पर विदेशी प्रवास और बिहारी मजदूरों के प्रति सहानुभूति के बारे में थीं.

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1945 में पंजाब में कपूरथला के पास पातर कलां गांव में जन्मे सुरजीत पातर नामक एक छोटे लड़के को सुरों का वरदान था, जिससे वह जहां भी जाता था, अपने साथ ले जाता था. जैसे उन्होंने अपने गांव का नाम किया.

उनके बचपन की यादें उनके घर की मिट्टी की दीवारें, एक पिसाई वाला पत्थर और पिता का जादू जो लकड़ी के टुकड़ों को कई कलाकृतियों में आकार दे सकता था. जादूगर, घर का मुखिया, अपने परिवार को पालने के लिए केन्या में काम करने के लिए घर को छोड़ चुका था. जैसे-जैसे सुरजीत बड़े हुए उन्होंने इस दृश्य को एक कविता में कैद किया, “सुन्ने सुन्ने रावां विच कोई कोई पैढ़ी, दिल ही उदास है, बाकी सब खैर है…” पिता ने परिवार का उत्थान तो किया, लेकिन एक बार में पांच साल तक दूर रहने के बाद वे केवल कुछ समय के लिए घर लौटते थे.

प्यार और लगाव

प्यार और लगाव के शब्दों के साथ, इस लड़के की शानदार यात्रा शुरू हुई जो आगे चलकर महान कवि बना. उन्होंने खुद को एक पेड़ वर्णित किया, “हवा दी सां-सां दा पंजाबी विच अनुवाद करदा अजीबो-ग़रीब दरख्त हां”. यह युवा बड़ा होकर पंजाबी भाषा का एक प्रमुख कवि बन गया, जिसने साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म श्री सहित कई पुरस्कार और ख्याति अर्जित कीं.

सुरजीत पातर कई कार्यकालों तक चंडीगढ़ में पंजाब कला परिषद के अध्यक्ष भी रहे, जब तक कि 11 मई 2024 को लुधियाना में उनके घर में नींद में उन्होंने इस संसार को अलविदा नहीं कर दिया. दिलचस्प बात यह है कि जब उन्हें कला परिषद का प्रमुख नियुक्त किया जाना था, तो पंजाब के पूर्व सांस्कृतिक मामलों के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू नियुक्ति पत्र देने के लिए खुद कवि के घर गए. प्रसिद्ध कवि शिव कुमार बटालवी के नक्शेकदम पर चलते हुए कवि पातर की लोकप्रियता उल्लेखनीय थी. हालांकि, बटालवी के विपरीत, जो अपनी ज्यादतियों के लिए जाने जाते थे, पातर ने लंबी ज़िंदगी जी और अपनी प्रसिद्धि का पूरा लाभ लिया.

पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला से पंजाबी साहित्य में मास्टर डिग्री करने के बाद, पातर ने गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर से ‘‘गुरु नानक वाणी में लोककथाओं का विकास’’ विषय पर पीएचडी की. इसके बाद मशहूर शायर साहिर लुधियानवी का शहर लुधियाना उनका घर बन गया.


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माटी के गीत

युवा पातर ने गायक बनने का सपना देखा था क्योंकि उनके पिता गुरबानी के शबद गाते थे. हालांकि, जैसे-जैसे वे बड़े हुए और पंजाबी मिट्टी की लय और शब्दों की गर्माहट ने उनकी रचनात्मक कल्पना को बढ़ाया. उन्होंने ग़ज़ल को अपना तकिया कलाम बना लिया. पंजाबी में उर्दू से उधार ली गई ग़ज़लों की एक लंबी फेहरिस्त थी, लेकिन यह पातर ही थे जो इसमें समकालीन विचार और शब्द जोड़े, जो अक्सर पारंपरिक कवियों को परेशान किया करते थे. इस पर पातर का जवाब था: ‘असी तां खून विच डूबो के कलम लिखी है ग़ज़ल, ओ होरे होन्गे लिखदे ने जैड़े बेहड़ अंदर’.

पातर ने अपनी ग़ज़लों और गीतों को ‘तरन्नुम’ में प्रस्तुत किया, अपनी मनमोहक आवाज़ में गाया और सीधे श्रोताओं के दिलों तक पहुंचे. पंजाब, उसका इतिहास, संस्कृति, असफलताएं, त्रासदियां और जख्मों का भरना ऐसे विषय हैं जो उनकी कविताओं में दोहराए जाते हैं — और यह सब व्यक्तिगत था. पटियाला में छात्र जीवन में वे 1960 के दशक में अति-वामपंथी आंदोलन से प्रभावित और प्रेरित थे, लेकिन कभी इसका हिस्सा नहीं बने. उस समय की उनकी मशहूर कविताओं में से एक है ‘हुन घरां नूं पर्तना मुश्किल बड़ा, कौण पहचानेगा सानूं, मत्थे उत्ते मौत दस्खत कर गई है, चेहरे उत्ते यार पैंदा चढ़ गए ने, शीशे विचों होरे कोई झांकदा है’.

उग्रवादी आंदोलन ने पातर को पंजाबियत को फिर से देखने और विभाजन को याद करने के लिए मजबूर किया: ‘कल वारिस शाह नू वंडेया सी, अज्ज शिव कुमार दी वारी है, ओह ज़ख्म तुहानु फूल (भूल) वी गए, जे नवेयां दी होर तय्यियारी है? हाल के दिनों में उनकी कविताओं ने पंजाब की समावेशी संस्कृति, घटती लोकप्रियता पर जोर दिया है पंजाबी भाषा, विदेशों में बड़े पैमाने पर प्रवासन और उन बिहारी मजदूरों के प्रति सहानुभूति जो अब राज्य में खेतों की जुताई करते हैं.

उनके निधन से न केवल पंजाब बल्कि देशभर के काव्य जगत में एक खालीपन आ गया है. पातर कोई संत नहीं थे, न ही हमें उन्हें इस रूप में समेटना चाहिए. वे इंसान थे क्योंकि उनके साथ कई परेशानियां भी थीं, लेकिन उन्हें हमारे समय के सबसे शानदार कवियों में से एक के रूप में हमेशा याद किया जाएगा और प्यार किया जाएगा.

एक इंटरव्यू रिकॉर्ड करने के लिए नई दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर से कैब में दूरदर्शन भवन तक उनके साथ जाते समय मैंने एक सुखद पल का अनुभव किया. कैब ड्राइवर ने मुझसे पूछा, “क्या वे सुरजीत पातर है?” जब मैंने हां में सिर हिलाया तो वे इतने रोमांचित हो गए कि सड़क के किनारे कैब रोककर, मुझसे अपनी बहन को दिखाने के लिए पातर के साथ उनकी एक तस्वीर खींचने को कहा, जिसे विश्वास नहीं होगा कि उन्होंने महान कवि को अपनी कैब में बिठाया था.

(निरुपमा दत्त एक लेखिका, कवयित्री और पत्रकार हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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