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Friday, 22 November, 2024
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शक्सगाम घाटी में सड़क बनाने की चीन की मंशा से भारत की सुरक्षा को खतरा नहीं, राजनीतिक पहलू पर गौर कीजिए

भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा विरोध दर्ज करने से ज्यादा-से-ज्यादा यह मकसद सध सकता है कि भारत अपना दावा बनाए रख सकता है. कोई और मकसद सधेगा, इसकी उम्मीद रखना बेमानी है.

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हिमालयी क्षेत्र में सड़कें बनाने की चीन की क्षमता और उसके मंसूबों की चर्चा हाल में एक शोधकर्ता नेचर देसाई ने एक्स पर पोस्ट की हैं. सैटेलाइट तस्वीरों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने बताया है कि चीन 4,805 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अघिल दर्रे में सड़क बनाकर निचली शक्सगाम घाटी में घुस गया है. यह सड़क सियाचीन ग्लेशियर से मात्र 30 किलोमीटर पहले तक पहुंच गई है. भारतीय मीडिया अब चीन के मंसूबों के बारे अटकलें लगा रहा है और अंदाज़ा लगा रहा है कि चीन और पाकिस्तान मिलकर सियाचीन ग्लेशियर क्षेत्र में भारत की सुरक्षा के लिए कितना बड़ा खतरा पैदा कर सकते हैं.

भारतीय विदेश मंत्रालय की आधिकारिक प्रतिक्रिया यही आई है कि उसने 1963 के उस सीमा समझौते को कभी मान्यता नहीं दी, जिसके तहत पाकिस्तान ने शक्सगाम घाटी को चीन के हवाले करने का फैसला किया और इसी के आधार पर विदेश मंत्रालय ने अपना विरोध दर्ज किया. इसी तरह का विरोध चीन द्वारा सड़कें बनाने और दूसरी गतिविधियां किए जाने पर दर्ज किया जाता रहा है.

अब रणनीति से जुड़े कुछ सवाल उभरते हैं: चीन के मंसूबे क्या हैं? क्या वह काफी ऊंचाई पर ग्लेशियर क्षेत्र में सड़क बनाने की क्षमता रखता है?

जिस तरह का वो इलाका है और सड़क बनाने की चीन की जो क्षमता है उसे देखते हुए यह बेहद कठिन लगता है, लेकिन वो सड़क बना रहा है तो इससे यही संकेत मिलते हैं कि वो यह काम कर सकता है और भविष्य में जलवायु में परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने से उसे इसमें मदद ही मिलेगी. सड़क की दिशा सड़क निर्माण की कठिनाइयां तय करेगी और सड़क की दिशा चीन के इरादों के मुताबिक तय होगी.


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चीन के इरादे क्या हैं?

सड़क का निर्माण कई सालों से हो रहा है. मई 2018 में ‘स्वराज्य’ पत्रिका में छपे एक लेख में इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की गई थी कि चीन शक्सगाम घाटी में जो सड़क बना रहा है क्या वो सियाचिन के लिए खतरा पैदा करेगा? लेख में उस क्षेत्र के भूगोल का नक्शों के साथ विस्तार से विश्लेषण किया गया था. उसका निष्कर्ष था कि “फिलहाल तो चीन की सड़क से सियाचिन या वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर कहीं भी भारत के सैनिक अड्डों को कोई खतरा नहीं है क्या भविष्य में यह खतरा बन सकती है? यह चीन के लक्ष्यों पर निर्भर करेगा. तकनीकी तौर पर वो उत्तर की ओर से सियाचिन पर हमला कर सकता है, लेकिन इसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर और मानव संसाधन पर काफी निवेश करना पड़ेगा और कोई विश्वसनीय क्षमता बनाने में समय लगेगा. ऐसा कुछ होगा तो उसका जवाब देने के लिए भारत को काफी समय मिलेगा.”

शक्सगाम घाटी में सड़क बनाने की चीनी गतिविधियों की आज जो चर्चा हो रही है उसने एक नए दृष्टिकोण को सामने ला दिया है. सेना में आर्टिलरी के पूर्व महानिदेशक और फिलहाल आईआईटी मद्रास में प्रोफेसर ले.जनरल (रिटायर्ड) पी.आर. शंकर ने अपने ‘गनर्स शॉट चैनल’ के माध्यम से यूट्यूब पर जारी पॉडकास्ट में यह विश्वसनीय बात रखी है कि अघिल दर्रे पर सड़क निर्माण चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर (सीपीईसी) का विकल्प तैयार करने की चीनी कोशिश के तौर पर किया जा रहा है. कई नक्शों का प्रयोग और इलाके के भूगोल का कुशल विश्लेषण करते हुए शंकर ने चीन के संभावित इरादों का अंदाज़ा लगाया है. मुख्य तर्क यह है कि इलाके के चीनी विश्लेषण से संकेत मिला है कि सीपीईसी की एक बाइपास सड़क बनाना मुमकिन है, चाहे उसमें जितना भी समय और लगे और वो कितना भी चुनौतीपूर्ण क्यों न हो.

विभिन्न प्रासंगिक कारकों का विश्लेषण बताता है कि अघिल दर्रे से शक्सगाम घाटी की ओर सड़क बनाना उस पुराने रास्ते को फिर से चालू करने की कोशिश है, जो शिंजियांग में यारकंद को कश्मीर के स्कार्दू से जोड़ता था. 1956 में बनाया गया शिंजियांग-तिब्बत हाइवे येचेंग/यारकंद से शुरू होकर दक्षिण-पश्चिम की ओर बढ़ता है और अक्साई चीन से होता हुआ मध्य तिब्बत तक जाता है. अगले चरण में मुज़्ताग दर्रे तक इस सड़क पर कई जगहों पर पुलों के निर्माण के संकेत हैं, लेकिन इस रास्ते पर तीन-चार ग्लेशियर हैं, जो बेहद दुष्कर चुनौतियां पेश करते हैं. वैसे, यह मुश्किल ग्लेशियरों के पिघलने की गति के हिसाब से आसान हो सकती है. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि यारकंद-स्कार्दू सड़क सीपीईसी के बाइपास के रूप में कम-से-कम एक दशक तक तो शायद ही काम कर सकेगा (नीचे दिए गए नक्शे को देखें).

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट
चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

सिरों को जोड़ना

तिब्बत में अधिकतर इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण भारत के रणनीतिकारों के लिए निगरानी तथा आकलन का विषय बना रहेगा. वैसे, संभावित खतरों, राजनीतिक संदर्भ से उभरते खतरों और चीन के लक्ष्यों के आकलन से भ्रामक स्थिति पैदा हो सकती है और अपने सीमित संसाधन को अलाभकारी योजनाओं पर खर्च करवा सकती है.

ऐसा ही एक मामला शक्सगाम घाटी में सड़क निर्माण को सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र में भारत की सुरक्षा के लिए खतरा मानने का है. इसकी वजह यह है कि शक्सगाम घाटी से सियाचिन ग्लेशियर के उत्तरी हिस्से में इंद्रा कोल तक के रास्ते में ग्लेशियर वाला इलाका उपयुक्त आकार की सैन्य टुकड़ी के साथ हमला करने की दृष्टि से उपयुक्त नहीं हो सकता. इसके लिए इतना बड़ा तामझाम जुटाना पड़ेगा कि वही इस तरह की कोशिश को हतोत्साहित कर देगा. बेहद ऊंचे इलाकों में मौसम की बेरहमी सैनिकों और साजोसामान को इतना असहाय बना सकती है जिसका तकनीक से आसान समाधान नहीं किया जा सकता.

इसके विपरीत तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र में तैनात सेना को काराकोरम रेंज पर सासर दर्रे में हमला करके अलग-थलग करना ज्यादा आसान होगा, लेकिन इस इलाके में भी सेना का जमावड़ा किए रखना बेहद मुश्किल होगा और इसके लिए बड़ी संख्या में ऐसे सैनिकों को लगाना होगा जिन्हें ऊंचे इलाकों में लड़ने की ट्रेनिंग मिली हो. चीन के पास ऐसे सैनिक न के बराबर हैं और उनकी संख्या बढ़ने की संभावना नहीं है. उल्लेखनीय बात यह है कि ये तमाम आशंकित खतरे चीन के मौजूदा राजनीतिक लक्ष्यों से उभरते नहीं हैं.

उसके मौजूदा राजनीतिक लक्ष्य मुख्यतः यही दिखते हैं कि इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करके और जब भी, जहां भी मुमकिन हो वहां ज़मीन पर कब्जा करके खतरे पैदा करते रहो. उसका रणनीतिक लक्ष्य भारत को अपना सीमित संसाधन अपनी उत्तरी सीमा पर केंद्रित करने को मजबूर करना है. इस रणनीति को पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, और मालदीव में अपना प्रभाव बढ़ाकर मजबूती दी जाती है. उम्मीद की जाती है कि इन कोशिशों के कारण भारत इस उपमहादेश में ही सिमटा रहेगा और एक नौसैनिक शक्ति के रूप में उभरने की उसकी संभावना कमजोर पड़ेगी. दरअसल, इस रणनीति की वजह यह है कि नौसैनिक क्षेत्र में जो वैश्विक भू-राजनीतिक चुनौतियां उभर रही हैं उनके संदर्भ में चीन रणनीतिक दृष्टि से कमजोर पड़ रहा है.

शक्सगाम घाटी में सड़क निर्माण से भारत की सुरक्षा को सैन्य दृष्टि से वैसे तो खतरा नहीं है, लेकिन विवेकसम्मत यही होगा कि निगरानी जारी रहे. इसकी जगह, इस मामले में पाकिस्तान द्वारा भारत की ज़मीन चीन को अवैध रूप से सौंपने पर राजनीतिक विवाद पैदा हो सकता है. इसलिए, भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा विरोध दर्ज करने से ज्यादा-से-ज्यादा यह मकसद सध सकता है कि भारत अपना दावा बनाए रख सकता है. इस विरोध से कोई और मकसद सधेगा, इसकी उम्मीद रखना बेमानी है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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